संसर्ग : एक कविता

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संसर्ग : एक कविता
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एक बार मिली एक चूत मुझे, जिसे देख मेरा लंड हुआ खड़ा,
था नन्हा, सहमा, सोया सा, पल में हो गया घना बड़ा!

क्या कमसिन प्यारी बाला थी, रस अंगों की वो माला थी,
मदमाती और बलखती, मय से बोझिल मधुशाला थी!

नैन, अधर वो कपोल, उरोज, जैसे पहना सूरज का ओज,
कोई एक अप्सरा जैसी वो, नहीं उसके कोई जैसी हो!

जब उसपे पड़े ये नैन मेरे, मेरे मन में फिर अरमान भरे,
मन किया अगर वो मिल जाए, मेरा लौड़ा भी खिल जाए,
उसे चोदूँ, पेलूँ जी भर के, चूची को मुँह में लेकर के,
बस केवल वो सीत्कार करे, मेरे तनमन में वो उमंग भरे,

बस इतना सोच रहा था मैं, कैसे बैठाऊँ उससे लय,
क्या पहले जाकर बात करूँ, या रुकूँ यहीं इंतजार करूँ!

पर उसको देख रहा था जब, मुझे वो भी देख रही थी तब,
एक टक वो मुझको देख रही, मेरे बारे में कुछ सोच रही,

फिर वो आई नजदीक मेरे और बोली मुझसे प्राणप्रिय,
परिणीता भी हूँ और प्यासी हूँ, एक लौड़े की अभिलाषी हूँ,
मेरे भाग्य ने मुझे ठुकराया है, मैंने पति नपुंसक पाया है,
बस तुमसे है उम्मीद मेरी, मेरी चूत तेरी और गांड तेरी,

वो बोली मुझमें समा जाओ, मेरे राजा मुझको खा जाओ,
जी भर के मुझको चोदो तुम, चाटो चूसो और भोगो तुम,

अब मुझ पर न कोई रहम करो, मेरी गांड में अपना लंड भरो,
ये चूत मेरी बड़ी प्यासी है, तेरे लौड़े की अभिलाषी है!

अभी इतना ही कह पाई थी और आँखें उसकी भर आई थी,
वो नम्र निवेदन आँखों में, थी कामुकता भी बातों में!

मैंने सोचा उसका हो जाऊँ, उसे चोदूँ उसमें खो जाऊँ,
उसके चूत के संग मैं रास करूँ, उसकी गांड में अपना माल भरूँ!

अभी ऊहापोह में खोया था और शेर मेरा भी सोया था,
वो बोली जल्दी उत्तर दो, मुझे छूओ मेरा सब कुछ हर लो!

मैं बोला उससे रूपवती, मैं बनूँगा तेरा क्षणिक पति,
जी भर के तुझको चोदूँगा, हर अंग को तेरे भोगूँगा!

वो बोली सब कुछ तेरा है, तेरा लंड मगर अब मेरा है,
जब जी चाहे अंदर मैं लूँ, तेरी बात न अब मैं एक सुनूं!

मैंने कहा चलो फिर शुरू करें, तुम कहो अभी हम कहाँ चलें,
जहां चूत में तेरी लौड़ा दूँ, और गांड तेरी फिर मैं चोदूँ!

वो बोली अभी तुम रुक जाओ, कल सुबह मेरे तुम घर आओ,
फिर जो चाहे तुम कर लेना, जो चाहे उसको पहले लेना!

मैं बोला जैसा उचित कहो, तुम मुझसे अब निश्चिंत रहो,
जब कहो जहां आ जाऊँगा, फिर तुमको जी भर मैं खाऊँगा!

वो बोली कल मिलने आना, संग अपने सुरक्षा भी लाना,
जब आओ मुझको बतलाना, और कोशिश कर जल्दी आना!

मैं बोला, जैसा तुम बोलो, अब खुशियों के घूँघट खोलो,
कल आऊँगा तुम्हें मैं बतला कर, फिर प्यार करूँ तुम पर छा कर!

उस रात मैं फिर ना सो पाया, मैं अपना भी न हो पाया,
दूजे दिन जल्दी उठकर, तैयार हुआ मैं सज धज कर,
फिर उसको मैंने बतलाया, मेरी रानी मैं जल्दी आया!

फिर निकल गया उसके घर को, मन में ले अरमानो को,
अब रस्ते को मैं समझ गया, और उसके घर को पहुंच गया,
फिर फोन किया बाहर आओ, मुझे अपने घर में ले जाओ!

वो आई बाहर सज धज कर, मन में उम्मीदों को रख कर,
उसके मैं नजदीक गया, उसकी खुशबू में मैं भीग गया,
वो मुझको भीतर ले आई, फिर खुशियों संग वो लहराई,
उसके मैं समीप हुआ, और हल्के से मैंने उसको छुआ,
साँसें दोनों की टकराई, और हृदय गति भी बढ़ आई,
वो बोली कुछ पल रुक जाओ, मैं बोला नहीं बस आ जाओ!

उसे बालों से पकड़ा मैंने, फिर बाँहों में जकड़ा मैंने,
फिर अधरों को साधा मैंने, दो लबों को फिर बांधा मैंने,
अब चुंबन का प्रतिद्वंद हुआ, और मैं उसको स्वीकार हुआ,
उसने भी बढ़ चढ़ भाग लिया, मेरे होठों का रस जमकर के पिया!

फिर धीरे धीरे सब वस्त्र खुले, दो नंगे जिस्म आपस में मिले,
अब उसके ऊपर को मैं हुआ, और चूची को मैंने जो छुआ,
वो बोली अब बर्दाश्त नहीं, तुम पेलो अपना लंड अभी,
मैं बोला इसका भी रस लो, चूचों को मुंह में तुम डालो,

जम के उसको मैं चाट रहा, उसके अंगों को मैं काट रहा,
अब वो पूरा उन्मादित थी, पर चूत अभी भी बाकी थी!

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मैं थोड़ा नीचे सरका, और दिल उसका ज़ोरों धड़का,
बोली अब ना देर करो, मेरी बुर में अपना लंड भरो!

एक न उसकी मैंने सुनी, बुर की फाँकें फिर मैंने चुनी,
मैंने जीभ मेरा बुर पर फेरा और चूची पर था हाथ मेरा,
आहें अब उसकी तेज़ हुईं, जब जीभ मेरी दाने को छुई,
मैं जम के चूत को चूस रहा, अब जीभ भी अंदर ठूंस रहा,

जब जी भर के सब चूस लिया, फिर मैंने अपना स्थान लिया,
अब उसके ऊपर को आया, और लंड को बुर पे लहराया,

मैं भी पूरे जोश में था, और उसको भी कोई होश ना था,
मैंने भी न अब देर किया, एक झटके में बुर में पेल दिया!

लंड को जब बुर में ठेला, एक झटके में पूरा लौड़ा पेला,
जैसे ही उसने मेरा लंड लिया, पूरे बिस्तर को भींच लिया,
इतना कस के चिल्लाई वो, जैसे बुर उसकी अभी छोटी हो,
पर फिर भी मैं एक पल न रुका, जब तक मैं उसको चोद चुका,

पूरा कमरा था गूंज रहा, और बिस्तर पर था द्वंद हुआ,
कुछ ही पल में मेरा माल गिरा, बुर उसका जिससे था पूरा भरा,
अब उसका भी बाहर आया, था लौड़े पे मेरे छाया!

अब वो पूरी संतुष्ट हो चली और आँखें उसकी खिली खिली,
कुछ पल ऐसे हम लेटे थे, बाँहों में बाहें भेंटे थे,
वो बोली तुम अब मेरे हो, जब जी चाहे मुझको चोदो,
फिर मैंने ना कोई विलंब किया, एक बार और फिर से चोद दिया,
फिर लंड चूत का खेल हुआ, उसको अंगों को था नोच लिया,

अब वो पूरी आनंदित थी, बिलकुल उन्मुक्त विचारों सी,
हम दोनों भी अलग हुए, अपने घर को अब निकल लिए,
जब उसको जी भर के भोग लिया, लगा कि जग को जीत लिया,
यही सोचता मैं घर पहुचा, और बिस्तर से अपने लिपटा!

अब उससे कोई संपर्क नहीं, अब वो मुझसे भी गैर सही,
अब वो मुझसे ना मिलती है, ना सुनती है ना ही कुछ कहती है,
पर अब मुझको परवाह नहीं, वो नहीं तो कोई और सही,
बस यही सोच अपनाई है, एक दोस्त दूसरी पाई है…

odinchacha
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