दोहरी ज़िंदगी

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वो एक हफ़्ता तो रोज़ शाम को खूब दिल खोल के ऐय्याशी की लेकिन मेरे अम्मी और अब्बू के लौटने के बाद तो हर रोज़ शाम को इस तरह अपने स्टूडेंट्स से मिलना मुमकिन नहीं था। मुझे तो चुदवाने का शद्दीद चस्का लग चुका था। मैं स्कूल की बस से स्कूल जाने की बजाय अब फिर से अपनी स्कोरपियो ड्राइव करके जाने लगी। छुट्टी के बाद चारों लड़के मेरे साथ मेरी स्कोरपियो में घर जाते लेकिन उससे पहले रास्ते में हाइवे से एक सुनसान कच्चे रास्ते से होते हुए हम एक पुरानी खंडहर बनी फैक्ट्री के पीछे कार रोकते और कार में ही मैं नंगी होकर उनसे चुदवाती। हफ़्ते के पाँच दिन इस ज़ल्दबाज़ी की चुदाई के अलावा कोई चारा भी तो नहीं था। शाम को फोन पे उनके सैक्सी मेसेज आते तो मैं भी वैसे ही जवाब दे देती। रात को सोने से पहले इंटरनेट पे पोर्न वेबसाइट देखती या फोन पे उन चारों स्टूडेंट्स के साथ गरम-गरम शहवत-अंगेज़ बातें करते हुए मोटे केले या लंबे बैंगन से खुद-लज़्ज़ती का लुत्फ़ उठाती। उनकी टीचर होते हुए भी उन चारों नालायकों की इंगलिश तो मैं ज्यादा सुधार नहीं सकी लेकिन मैं उनसे गंदी-गंदी गालियाँ और फ़ाहिशी गंदी ज़ुबान ज़रूर सीख गयी। उनके साथ गंदे अल्फ़ाज़ों में बात करने में अजीब-सा लुत्फ़ महसूस होता था और फिर आहिस्ता-आहिस्ता मेरी ज़ुबान में भी गालियाँ और गंदे अल्फ़ाज़ इस तरह शामिल हो गये कि अब तो किसी से आमतौर पे बातचीत के दौरान मुझे एहतियात बरतनी पड़ती है।

हफ़्ते भर मैं फ्राइडे का बेसब्री से इंतज़ार करने लगी क्योंकि अगले दो दिन स्कूल की छुट्टी होती थी और फ्राइडे को हम पूरी रात ऐयाशी करते। मैंने अपने घर पे कह दिया था कि हर फ्राइडे को मैं अपनी एक सहेली के घर रुक कर एम-ए की पढ़ाई करती हूँ और वो चारों लड़के तो थे ही आवारा किस्म के। वो भी अपने घरों में कोई ना कोई बहाना बना देते थे। फिर हम संजय के खेत के उसी कमरे में या कुल्दीप के फार्म-हाउज़ पे जहाँ कहीं भी मुनासिब होता वहाँ रात गुज़ारते। मैं शराब पी कर नशे में बदमस्त होकर देर रात तक घंटों उनसे चुदवाती। इन मौकों पर वो मज़दूरों और दूसरे नौकरों को पहले ही फ़ारिग कर देते थे।

इतना चुदवाने के बावजूद मेरी हवस की आग दिन-ब-दिन और ज्यादा बुलंद होती जा रही थी। हर वक़्त मेरे ज़हन में फ़ाहिश और शहवत अंगेज़ तसव्वुरात रहने लगे। स्कूल में भी अपने कमरे में हर रोज़ एक-दो दफ़ा सलवार औए पैंटी नीचे खिसका कर उंगलियों या केले के ज़रिये खुद-लज़्ज़ती कर लेती। अब तब़स्सुम़ अखतर पहले वाली स्ट्रिक्ट टीचर नहीं थी और स्टूडेंट्स की पिटाई करना भी कम कर दिया था। उन चारों लड़कों के लिए तो अब मैं अख़तर मैडम से आमतौर पे भी तब्बू मैम हो गयी थी और अकेले में तो तब्बु जान के अलावा तब्ससुम रंडी... तब्बू डार्लिंग और भी बहोत कुछ नामों से बुलाई जाती। जब उन चारों लड़्कों की क्लास में जाती तो बाकी स्टूडेंट्स से छुपा कर उनके साथ इशारेबाजी करती और दोहरे माइने वाले अल्फाज़ों के ज़रिये उनके साथ मज़ाक और छेड़छाड़ करती थी। आहिस्ता-आहिस्ता मेरी हिम्मत बढ़ने लगी तो बाज़ दफ़ा जब अपनी चुदास पे काबू नहीं रहता तो स्कूल में ही उन चारों में से किसी एक को अपने कमरे में बुला कर चुदवाने का खतरा भी लेना शुरू कर दिया।

अगले दो-ढाई महीने तो ये ही सिलसिला चला। फिर मुझे एक तदबीर नज़र आयी जिससे मैं रोज़ अपने घर में भी शाम को इन लड़कों के साथ चुदाई का मज़ा ले सकूँ। मैंने घर में बताया कि मैं पढ़ाई में कमज़ोर तीन-चार स्टूडेंट्स की मदद करने के लिये उन्हें शाम को घर पे एक-दो घंटे मुफ़्त में ट्यूशन देना चाहती हूँ तो उम्मीद के मुताबिक मेरे अम्मी और अब्बू ने कोई ऐतराज़ नहीं किया और खुशी-खुशी मंज़ूरी दे दी। हमारा बंगला काफी बड़ा है और घर के पीछे वाले लॉन के एक तरफ़ एक छोटा सा बिल्कुल फर्निश्ड गेस्ट-हाऊज़ भी है जिसमें हॉल और एक बेडरूम और अटैचड बाथरूम भी है। ये गेस्ट हॉऊज़ ज्यादातर बंद रहता है और उस तरफ़ कोई जाता भी नहीं है इसलिये अपने स्टूडेंट्स के साथ बिला-परेशानी ऐयाशी करने के लिये वो गेस्ट हाऊज़ सबसे मुनासिब जगह थी।

शाम को चार से छः बजे के बीच में मैं उन चारों लड़्कों को हर रोज़ ट्यूशन पढ़ाने के बहाने घर पे बुलाने लगी। उस वक़्त आम-तौर पे मेरे वाल्दैन घर पे मौजूद भी नहीं होते हैं और वैसे भी वो मेरे साथ बिल्कुल भी दखल अंदाज़ी नहीं करते हैं। एहतियात के तौर पे नौकरों को भी मैंने हिदायत दे दी कि उस वक़्त कोई मुझे गेस्ट हाऊज़ में डिस्टर्ब ना करे। अब हर रोज़ किसी सुनसान जगह पे कार में जल्दबाज़ी में चुदवाना नहीं पड़ता था और उस गेस्ट-हाऊज़ में मैं उन चारों से हर रोज़ तसल्ली से चुदवाने लगी।

एक दिन स्कूल में सुहाना और फ़ातिमा मेरे कमरे में आयी और बोलीं, "तब़्बू मैडम हमें आपसे शिकायत करनी है!" मैंने तंज़िया अंदाज़ में उन्हें कहा, "अब ये कौनसा नया नाटक है तुम दोनों का... मुझे सब खबर है तुम दोनों क्या-क्या गुल खिलाती हो!"

फ़ातिमा बेबाकी से बोली, "आप भी तो वही सब गुल खिला रही हो तब्बस्सुम मैडम! और हम आपके पास आपकी ही शिकायत ले कर आयी हैं!" फात़िमा का उल्टा तंज़िया जवाब कर सुनकर मेरे गाल सुर्ख हो गये लेकिन मैंने फिर कड़कते हुए पूछा, "तमीज़ में रहो तुम दोनों और अपने काम से काम रखो! जो भी मसला है जल्दी बोलो... मेरे पास वक़्त नहीं है ज्यादा!"

सुहाना बोली, "मैडम मसला ये है कि इन दिनों आपके पास उन लड़कों के लिये कुछ ज्यादा ही वक़्त है... पता नहीं आपने उन पर क्या जादू कर दिया है कि हमें तो तवज्जो ही नहीं देते वो चारों!"

मैं तुनकते हुए बोली, "तो मैं इसमें क्या कर सकती हूँ? मुझसे क्या चाहती हो तुम दोनों!" इस दौरान दोनों लड़कियाँ जो मेज के दूसरी तरफ़ खड़ी थीं अब मेरी कुर्सी के करीब आ गयी थीं। फति़मा झुक कर मेरे कान के नीचे चूमते हुए बोली, "हमें भी अपने साथ शामिल कर लो ना त़बस्सूम मैडम! आप अकेली ही उन चारों के लौड़ों से चुदवा कर ऐश करती हो... ये तो गलत बात है ना!" दूसरी तरफ़ से सुह़ाना भी मेरा गाल चूमते हुए बोली, "हाँ तब़्बु मैडम! मिल कर चुदाई करेंगे तो ज्यादा मज़ा आयेगा और हमारा दिल तो आप पर भी आ गया है... यू आर सो सैक्सी!" उसने मेरे कान को हल्के से अपने दाँतों से कुतरते हुए मेरे मम्मे को अपने हाथ में भरके दबाया तो मेरे होंठों से सिसकी निकल गयी।

आहिस्ता-आहिस्ता दोनों लड़कियाँ जबरदस्ती मेरे होंठ और गर्दन चूमती हुई मेरे कपड़ों के ऊपर से ही मेरा जिस्म मसलने लगीं। उनकी हरकतों से मुझ पे भी हवस का नशा छाने लगा और मैं उन्हें रोकने की कोई कोशिश नहीं की। उन दोनों ने मेरे कपड़े उतार दिये और खुद भी अपनी यूनिफॉर्म उतार कर नंगी हो गयी और फ़ातिमा नीचे बैठ कर मेरी चूत चूमने और चाटने लगी और सुहाना मेरे मम्मों को मसलते हुए उन्हें चूमने लगी। अगले आधे घंटे उन दोनों लड़कियों ने लेस्बियन चुदाई के मुखतलिफ़ और बेइंतेहा लुत्फ़ से वाकिफ़ करवाया। उस दिन के बाद सुह़ाना और फातिमा भी हफ़्ते में एक-आध दफ़ा मेरे साथ मिलकर उन लड़कों से चुदवाने लगी। इसके अलावा उनके साथ लेस्बियन चुदाई में भी मुझे बेहद मज़ा आता था।

इससे पहले मैंने हमेशा इन दोनों को स्कूल युनिफॉर्म में ही देखा था लेकिन जब वो स्कूल के बाहर फेशनेबल कपड़े और सैंडल पहन के और मेक-अप करके आती तो बेहद सैक्सी और ज्यादा मच्योर भी नज़र आती थी। दोनों अमीर घरानों की बेहद बिगड़ी हुई लड़कियाँ थीं और उन से ही मुझे पता चला कि दोनों का एक-एक दफ़ा अबॉर्शन तक हो चुका था। अब तो वो मेरी स्टूडेंट्स कम और सहेलियाँ और मेरी राज़दार ज्यादा बन गयी थीं।

मेरी हवस और चुदाई-परस्ती में रोज़-बरोज़ इज़ाफ़ा होता चला गया। हालत ये हो गयी कि हर वक़्त लुत्फ़े-चुदाई की मुस्तक़िल तलब रहने लगी और मैं निहायत सैक्साहोलिक बन गयी। चुदाई से मेरा दिल ही नहीं भरता और हर वक़्त ज़हन में और जिस्म पे शहूत सवार रहने लगी। कुछ ही महीनों में मेरी ऐय्याशियों का दायरा भी तेज़ी से बढ़ने लगा। उन चारों लड़कों ने स्कूल में और दुसरे तीन-चार जूनियर स्टूडेंट्स से मेरी जान-पहचान करवायी जिन्हें पहले चुदाई का तजुर्बा भी नहीं था। इन लड़कों को चुदाई का सबक सिखा कर उनके कुंवारे वर्जिन लौड़ों से चुदने में इस कदर बे-इंतेहा मज़ा आया कि मैं बयान नहीं कर सकती।

फिर वो चारों लुच्चे लड़के और वो दोनों चुदैल लड़कियाँ भी साल भर पहले मेरी नाजायज़ मदद से जैसे तैसे बारहवीं क्लास पास कर ही गये। उसके बाद अपने सबसे अज़ीज़ इन चारों लड़कों से रोज़-रोज़ चुदवाने का सिलसिला खतम हो गया। सन्जय और कुलद़ीप ने तो करीब ही गाज़ियाबाद के एक प्राइवेट आर्ट्स कॉलेज में दाखिला ले लिया जिस वजह से रोज़-रोज़ ना सही लेकिन कमज़-कम हर फ्राईडे को तो पहले की तरह उनके खेत या फिर फार्महाउज़ पे सारी-सारी रात उन दोनों के साथ चुदाई और ऐय्याशियाँ ज़ारी रही। बाकी दोनों लड़कों में से एक रोहतक और दूसरा कानपूर चला गया इसलिये इन दोनों से चुदवाने का सबब तो तभी हो पाता है जब कभी ये किसी वीकेन्ड या छुट्टियों में घर आते हैं। फ़तिमा और सुह़ाना से तो ताल्लुकात बिल्कुल खतम हो गये क्योंकि एक भोपाल में है और दूसरी बरेली में।

खैर मैं तो निहायत लंडखोर बन चुकी थी तो मैंने दसवीं से बारहवीं क्लास के नये-नये लड़कों को अपने हुस्न और अदाओं से फुसला कर उनके वर्जिन लौड़ों से चुदवाना शुरू कर दिया। शुरू-शुरू में तो नये लड़कों को यकीन ही नहीं होता कि ऊपर से इतनी शरीफ और मुतमद्दिन या सफिस्टिकेटिड नज़र आने वाली उनकी इंगलिश की टीचर 'तबस्सुम अखतर' हकीकत में दो टके की रंडियों की तरह गंदी-गंदी गालियाँ बकने वाली और बेहद फ़ाहिश ज़ुबान में बोलने वाली पियक्कड़ और बेहद ऐय्याश और चुदक्कड़ औरत है। वक़्त के साथ-साथ मैं नये-नये लड़्कों को फुसला कर उन्हें इब्तेदायी शर्म और खौफ़ या झिझक से निज़ात दिलाने में भी बेहद माहिर हो गयी।

उन चार लड़कों के अलावा अब तक करीब पच्चीस-छब्बीस वर्जिन स्टूडेंट्स को मैं हवस का शिकार बना कर अपने हुस्न का गुलाम बना चुकी हूँ। इन सभी नौजवान लड़कों को उनकी ज़िंदगी में चुदाई के लुत्फ़ से मैंने ही वाकिफ़ करवाया है। एक किस्म से मैंने इन स्टूडेंट्स के ज़रिये अपने लिये पर्सनल हरम बना रखा है और किसी मल्लिका की तरह मैं अपनी बेइम्तेहा जिन्सी हवस की तस्कीन के लिये इन लड़कों का हर तरह से इस्तेमाल करती हूँ। इन लड़कों पे मेरा पूरा इख्तियार है और मैं जब और जहाँ और जैसे भी चाहती हूँ ये मेरे हुक्म की तामिल करते हुए मुझे चोदने के लिये तैयार रहते हैं।

अब तो आमतौर पे दिन भर में कईं - कईं लड़कों से चुदवाये बगैर मुझे करार नहीं होता। स्कूल में जो मेरे तीन-चार खाली पीरियड्स होते हैं और लंच टाइम में भी मैं हमेशा अपने कमरे में किसी ना किसी स्टूडेंट से अपनी चूत या गाँड चुदवाना शुरू कर दिया। फिर स्कूल की छुट्टी के बाद भी किसी मुनासिब सुनसान जगह पे अपनी स्कोर्पियो की पिछली सीट पे एक-दो स्टूडेंट्स से चुदवाने के बाद ही घर जाने लगी। फिर हर रोज़ शाम को मैं पाँच-छः लड़कों के ग्रुप को ट्यूशन के बहाने घर पे बुलाकर उनसे गेस्ट हाऊज़ में दो-दो घंटे चुदवाने का सिलसिला शुरू हो गया। इन में से किसी भी लड़के का लंड जसामत में तो उन चारों के लौड़ों के मुकाबले का नहीं है लेकिन ये कमी इन कम्सिन लड़कों की तादाद और इनके जोश-ओ-जुनून से पूरी हो जाती है। हर रोज़ मुख्तलिफ पाँच-छः स्टूडेंट्स का एक ग्रुप मुझसे चुदाई की ट्यूशन पढ़ने आता है। घर के पीछे वो गेस्ट हाऊज़ मेरी ऐय्याशियों का अड्डा... मेरी ऐश-गाह ही बन गया है जहाँ मैं बिला रोकटोक के शराब पी कर खूब मस्ती में इन लड़कों से ग्रुप में चुदवाती हूँ। इस दौरान पिछले दस-बारह महीनों से मेरे अब्बू की पॉलीटिक्स में मसरूफ़ियत ज्यादा बढ़ने की वजह से अब्बू और अम्मी का लखनऊ आना-जाना काफी बढ़ गया है जिससे अब मैं अक्सर घर पे अकेली होती हूँ। ।

प्रेग्नेन्सी से बचने के लिये शुरू-शुरू में तो पिल्स लेती थी लेकिन अब दिल्ली में अपनी गाइनकालजिस्ट से हर तीसरे महीने कोन्ट्रासेप्टिव का इंजेक्शन लगवा लेती हूँ। इस इंजेक्शन का एक और अहम फायदा ये भी हुआ कि अब पीरियड्स हर महीने की जगह साल में तीन-चार दफ़ा ही आते हैं। इंजेक्शन लगवाने के साथ-साथ गाइनकालजिस्ट से बाकी चेक अप भी बाकायदा हो जाता है जिस वजह से उन्हें भी मेरी गैर-मामूली तौर पे फआल चुदास ज़िंदगी का इल्म है।

फति़मा और सुह़ाना की खासतौर पे कमी महसूस होती है क्योंकि उनके जाने के बाद लेस्बियन लज़्ज़त का मुनासिब और माकूल ज़रिया मुझे नहीं मिला। बारहवीं क्लास की जवान और बड़ी दिखनी वाली दो-तीन खूबसूरत लड़कियों को अपने रौब के दम पर उन्हें फुसला कर उनके साथ तीन-चार दफ़ा लेस्बियान चुदाई की तो सही लेकिन मुझे वैसी लज़्ज़त महसूस नहीं हुई जैसी फात़िमा और सूहाना के साथ लेस्बियन चुदाई में होती थी। एक तो इन लड़कियों में कुछ खास जोशो-खरोश नहीं था और मुझे महसूस हुआ कि जैसे ये लड़कियाँ महज़ मेरे दबाव में मेरे साथ लेस्बियन चुदाई में शरीक हुई थीं। दूसरे ये कि मुझे खुद को भी ज़रा मच्योर और पुर-शबाब लड़कियाँ ज्यादा पसंद हैं जबकि लड़कों के मामले में इससे मुख्तलिफ़ मैं कम्सिन लड़कों की दिवानी हूँ। खैर अपनी लेस्बियन हसरतें पूरी करने के लिये फिलहाल मैंने दूसरा ज़रिया ढूँढ लिया है। हर महीने एक-आध मर्तबा जब भी शॉपिंग वगैरह के लिये मैं दिल्ली जाती हूँ तो वहाँ की एक एस्कॉर्ट एजन्सी के ज़रिये होटल के कमरे में रात भर लेस्बियन कॉल गर्ल्स के साथ ऐयाशी कर लेती हूँ। दस से बीस हज़र रुपये में रात भर के लिये देसी या परदेसी हाई-क्लॉस कॉल गर्ल्स मिल जाती हैं।

शराब सिगरेट भी खूब पीने लगी हूँ। दिन भर में छुपछुपा के स्कूल में और अपने घर में भी कमज़ कम पंद्रह सिगरेट और रोज़ाना शाम को दो-तीन घंटों में लड़कों के साथ चुदाई के दौरान एक पव्वा तो अमूमन पी जाती हूँ। दरसल मुझे नशा जल्दी चढ़ जाता है लेकिन एक पव्वे में बदमस्त सी खुमारी के बावजूद भी मैं इतने होशो हवास में तो रहती हूँ कि ऊपर से नॉर्मल नज़र आती हूँ। वैसे जब मैं फ्राइडे रात को घर से बाहर ऐयाशी करती हूँ या फिर कईं दफ़ा जब कभी अम्मी और अब्बू शहर से बाहर होते हैं तो जरूर दिल खोल के खूब शराब पीती हूँ। ऐसे मौकों पे ज्यादा शराब पी कर कईं दफ़ा तो बेहद टुन्न भी हो जाती हूँ और कईं दफ़ा अगले दिन सुबह सिर भी दुखता है लेकिन मेरी एक खासियत ये है कि मैं कितनी भी शराब पी लूँ लेकिन अल्लाह़ का फज़ल है कि उसकी वजह से कभी भी उल्टी वगैरह आज तक नहीं हुई।

सैक्साहोलिक होने के साथ-साथ मैं बेहद पर्वर्टिड भी हो गयी हूँ। हर मुख्तलिफ़ किस्म की वाहियात और फ़ासिद चुदाई का लुत्फ़ आज़माने के लिये हमेशा तैयार रहती हूँ। मिसाल के तौर पे शराब पी कर एक साथ कईं-कईं लड़कों के साथ ग्रुप-सेक्स करना और अपनी चूत और गाँड में एक साथ दो-दो लौड़ों से चुदते हुए तीसरा लंड मुँह में लेकर चूसना या आम खुली पब्लिक जगहों पे चुदाई करना और चुदाई के दौरान अलग-अलग किस्म के किरदार निभाना (रोल-प्ले करना) और लड़कों के साथ अपने गुलामों जैसा सुलूक करना और उनसे अपने सैंडल चटवाने जैसी हरकतों के अलावा लड़कों के पेशाब में भीगना और उनका पेशाब पीना, लड़कों की गंदी गाँड चाटना वगैरह मेरी बदकारियों के बेहद मामूली और अदना से अक़साम हैं। दर असल मैं जिन्सी बेराहरवियों में इस कदर हद से ज्यादा मुब्तिला हो चुकी हूँ कि अब तो मैं जानवरों तक से बाकायदा चुदवाने लगी हूँ और पिछले एक साल से मैं कुत्ते, बकरे, गधे, बैल और घोड़ों से चुदवाने का शदीद मज़ा ले रही हूँ।

करीब एक साल पहले का वाकिया है। मैं हफ़्ता-वार फ्राइडे रात को कुलद़ीप के आलीशान फ़ार्महाउज़ पे उन ही चारों लुच्चे लड़कों के साथ खूब ऐयाशी कर रही थी। इत्तेफ़ाक से उस दिन संजेय की सालगिरह भी थी। आधी रात तक मैं उन चारों के लौड़ों को कमज़-कम तीन-तीन दफ़ा अपनी चूत या मुँह या गाँड में बिल्कुल निचोड़ कर उन्हें पस्त कर चुकी थी और मज़ीद एक-दो घंटे तो उनसे चुदाई की कोई उम्मीद नहीं थी। मैं खुद भी उनसे चुदाई के दौरान ना मालूम कितनी दफ़ा झड़ते हुए लुत्फ़ अंदोज़ हो चुकी थी लेकिन मेरी शहूत कम नहीं हुई थी और मेरी बदकार चूत मज़ीद चुदाई की मुशताक़ थी। वो चारों लडके बड़े हॉल में ही एक तरफ़ सोफ़े पे आधे नंगे बैठे टीवी पे कोई मैच देखने लगे जबकि मैं कालीन पे महज़ ऊँची पेन्सिल हील के सैंडल पहने बिल्कुल नंगी पसरी हुई उन लड़कों के लौड़े जल्दी ताज़ादम होने की उम्मीद में अपनी चूत सहला रही थी। मैं शराब के नशे में भी बेहद मस्त थी और मदहोशी और हवस के आलम में मुझे अपनी शहूत पूरी करने के अलावा किसी बात का होश या फ़िक्र नही थी। बस ये ही आरज़ू थी कि फिर से मेरी चुदाई शुरू हो जाये और मैं तमाम रात मुसलसल चुदती रहूँ। इसी फ्रस्ट्रेशन और तड़प में मैं अपनी चूत सहलाती हुई उन नामुराद स्टूडेंट्स को बीच-बीच में बड़बड़ा कर ताने और गालियाँ बक देती थी लेकिन उन नामाकूलों को मेरी हालत पे ज़रा भी तरस नहीं आ रहा था। बल्कि वो तो हंसते हुए बोले कि, "अरे चूतमरानी तब़्बू मैडम! साली तेरा दिल कभी चुदाई से भरता है कि नहीं है... हमें क्या चुदाई की मशीन समझ रखा है... थोड़ी देर सब्र कर चुदासी कुत्तिया... खूब चोदेंगे तुझे तब़्बू जान लेकिन दम तो लेने दे हमें!"

"भाड़ में जाओ साले मादरचोदों!" मैंने भी ज़रा चिढ़ते हुए उन्हें गाली दी और अपनी बेकरार चूत के लुत्फ़ो-सुकून के लिये मुश्त ज़नी ज़ारी रखी। इसी तरह एक हाथ से अपने फूले हुए बाज़र (क्लिट) को इश्तिआल करती हुई मैं मस्ती में दूसरे हाथ की दो उंगलियाँ अपनी चूत में ज़ोर से अंदर-बाहर कर रही थी और झड़ने के करीब ही थी जब मुझे अपने नज़दीक कुछ हरकत महसूस हुई। मैंने आँखें खोल के देखा तो कुळदीप का पालतू डॉबरमैन कुत़्ता, प्रिंस मेरे इर्द गिर्द मंडरा रहा था। मुझे उससे कोई खौफ़ नहीं था क्योंकि वो अक्सर फार्महाउज़ पे मौजूद होता था और वो भी मुझसे वाक़िफ़ था। उसकी मौजूदगी को नज़र-अंदाज़ करते हुए मैंने खुद-लज़्ज़ती ज़ारी रखी लेकिन कुछ ही लम्हों में मुझे अपनी चूत पे उसकी गरम साँसें महसूस हुई तो मैंने फिर आँखें खोल के उसे देखा। "या अल़्लाह! इस कुत्ते को भी मेरी चूत चहिये क्या!" मैंने मज़ाक में अपने दिल में सोचा लेकिन अगले ही पल जो हुआ उसने तो मुझे बेहद चुदक्कड़ और हवस-परस्त होने के बावजूद भी बदहवास कर दिया। उस कुत्ते़ ने अपनी लंबी सी ज़ुबान मेरी चूत के लबों पे फिरा दी। उसकी ज़ुबान का लम्स महसूस करते ही एक पल के लिये तो मेरी साँस ही रुक गयी... किसी खौफ़ या नफ़रत की वजह से नहीं बल्कि इसलिये कि ये बेहद लुत्फ़ अंदोज़ एहसास था। उसने फिर से अपनी ज़ुबान तीन-चार मर्तबा मेरी चूत पे फिरायी तो मेरी चूत ने वहीं पानी छोड़ दिया।

प्रिंस ने मेरी चूत चाटना ज़ारी रखा और मेरी चूत उसके एहसास से बिलबिलाने लगी। नशे और मस्ती में मेरी टाँगें खुद-ब-खुद उसकी काबिल ज़ुबान का और ज्यादा मज़ा लेने की तलब में फैल गयीं। वो भी अब पूरे जोश में अपनी ज़ुबान मेरी चूत में घुसा-घुसा कर चाटने लगा। उसकी ज़ुबान की लम्बाई का मुकाबला किसी मर्द के लिये मुमकिन नहीं था। उस कुत्ते की ज़ुबान मेरी चूत के अंदर उन हिस्सों तक दाखिल हो रही थी जहाँ पहले कभी किसी भी ज़ुबान का लम्स नहीं हुआ था। मैं बेहद मुश्तैल हो चुकी थी और मेरी साँसें बे-रब्त होने लगी। जब उसकी ज़ुबान खून से लबालब फुले हुए मेरे बाज़र पे सरकती तो साँस हलक़ में अटक जाती। थोड़ी सी देर में मेरी चूत इस कदर लुत्फ़-अंदोज़ हो के झड़ने लगी कि मैं बयान नहीं कर सकती। मैं इतनी ज़ोर से चींखी कि मेरे चारों स्टूडेंट्स मैच छोड़ कर हैरत से मेरी जानिब देखने लगे।

चारों लड़के दूर सोफ़े से उठ कर मेरे नज़दीक आ गये और मेरा मज़ाक बनाने लगे। "वाह तब़स्सुम मैडम जी! और कोई तरीका नहीं मिला जो कुत्ते से ही चूत चटवाने का मज़ा लेने लगी!" "साली ठरकी तब़्बू मैडम... तुमने तो हद ही कर दी!" "कमाल की चुदक्कड़ी छिनाल है हमारी मैडम!" वो कुत्ता अभी भी मेरी चूत चाटने में लगा हुआ था और मैं कालीन पे टाँगें फैलाये नंगी पसरी हुई झड़ने की बेखुदी के एहसास का मज़ा ले रही थी। मैंने अपने स्टूडेंट्स की तंज़िया बातों का ज़रा भी बुरा नही मनाया। मेरा उनसे रिश्ता था ही ऐसा कि आपस में इस तरह के मज़ाक और गंदी गालियाँ आम बात थी। मुझे सिर्फ़ उनकी कभी-कभार मज़हबी गालियाँ पसंद नहीं थी। मैंने भी पलट कर जवाबे-तल्ख दिया, "भोसड़ी के चूतियों... साले तुम मादरचोदों से तो ये कुत्ता बेहतर है... हारामखोरों... तुम चारों लौड़ू तो बीच में ही मैदान छोड़ कर भाग गये मुझे तड़पते हुए छोड़ के... तब इस कुत्ते ने मेरे अपनी ज़ुबान से मेरी चूत चाट कर मुझे बेइंतेहा लुत्फ़-अंदोज़ किया... ही इज़ द रियल स्टड!"

"इतना ही प्यार आ रहा है प्रिंस पर तो त़ब्बू मैडम जी इसी से चुदवा भी क्यों नहीं लेती!" कुलद़ीप मुझे ललकारते हुए बोला तो बाकी तीनों ने भी अपने दोस्त की हिमायत की। अब तक ये बात मेरे ज़हन में आयी नहीं थी। मैंने एक नज़र कुत्ते की जानिब देखा जो अभी भी मेरी चूत पे जीभ फिराते हुए उसमें से इखराज हुआ पानी चाट रहा था। पहली दफ़ा मेरी नज़र कुत्ते के लंड पे पड़ी। सुर्ख रंग की गाजर जैसा लंड काले खोल में से आधा निकला हुआ बेहद दिलकश और हवस अंगेज़ था। इतने में उन लड़कों ने फिर हंसते हुए कहा, "क्या हुआ भोंसड़ी की मादरजात मैडम... क्या सोच रही है... फट गयी ना गाँड... बोल है हिम्मत प्रिंस से चुदवाने की... उसकी कुत्तिया बनने की!"

शराब का नशा और शहूत मेरे ऊपर इस कदर परवान चढ़ी हुई थी कि उस वक़्त मैं किसी से भी चुदवाने को तैयार थी। मुझे तो लंड से मतलब था जो मुझे जम कर चोद सके... फिर वो चाहे इंसान का लंड हो या किसी जानवर का। वैसे भी मुझे इंटरनेट पे पोर्न वेबसाईट देखने का बेहद शौक लग चुका था जिसकी बदौलत मैंने जानवरों के साथ औरतों की चुदाई की तस्वीरें देख रखी थीं और किस्से-कहानियाँ भी पढ़ रखी थीं। कईं दफ़ा मैंने खुद-लज़्ज़ती के वक़्त जानवरों से चुदवाने का तसव्वुर भी किया था और आज तो खुदा ने मुझे हकीकत में ये नायाब वहशी चुदाई का बेहतरीन मौका बख्शा था तो इसे गंवाने का तो सवाल ही मुमकिन नहीं था। इसके अलावा मैं उन लड़कों को भी हैरत-अंगेज़ कर देना चाहती थी। अपनी टीचर की कुत्ते से चुदाई पर उनका क्या रद्दे-अमल होगा... ये ख्याल भी मेरी शहूत और ज्यादा बढ़ा रहा था।

"ऊँऊँहह हाँऽऽऽ भैन के लौड़ों.... आआहऽऽऽ देखो कैसे ये मेरी चूत चाटे जा रहा अपनी मस्त ज़ुबान से.... मैं तो बेकरार हूँ इसके लंड से चुदवाने को! देखो मादरचोदों ... तुम्हारी छिनाल चुदैल टीचर कैसे रात भर इस कुत्ते से चुदाई का मज़ा लेती है...!" ये बोलते हुए मैं नीचे हाथ बढ़ा कर प्रिंस का सिर सहलाने लगी।

"जोश-जोश में कोई काँड ना कर बैठना मैडम जी! सोच लो फिर से... हम तो मज़ाक कर रहे थे!" मुझे कुत्ते से चुदाई के लिये आमादा देख कर संज़य मुझे आगाह करते हुए बोला। चारों लड़कों को मुतरद्दिद हालत में देख कर मुझे बेहद मज़ा आया।

"क्यों मादरचोदों... फट गयी ना गाँड... लेकिन मैं तुम चूतियों की तरह मज़ाक नहीं कर रही... ऑय एम सीरियस... मैं इसका लंड भी चूसुँगी... और फिर इससे अपनी चूत भी चुदवाऊँगी... लेकिन पहले मुझे एक सिगरेट और पैग तो पिलाओ और फिर देखो कुत्ते से मेरी शानदार चुदाई के मस्त जलवे!"

एक लड़के ने गिलास में शराब और सोडा डाल कर तगड़ा पैग बना कर मुझे दिया और दूसरे ने सिगरेट दी। मैं दिवार के सहारे पीठ टिका कर बैठ के सिगरेट के कश लगाते हुए पैग पीने लगी। वो कुत्ता अभी भी कभी मेरी रानों के बीच में मुँह घुसेड़ कर भीगी चूत चाटने लगता तो कभी रिरियाते हुए मेरी टाँगों और सैंडलों को अपनी ज़ुबान से चाटने लगता। काले खोल में से लिपस्टिक की तरह निकले हुए उसके दिलफ़रेब नोकीले सुर्ख लंड को देख कर उससे चुदने की तवक्को में मेरे तमाम जिस्म में सिहरन सी दौड़ रही थी और चूत में भी चुलचुलाहट उठ रही थी। मैंने जल्दी से शराब और सिगरेट ख़तम की और आगे झुक कर बड़े प्यार से उसकी पीठ सहलाते हुए अपना हाथ नीचले हिस्से पे ले जाकर उसका पेट सहलाने लगी। वो चारों लड़के सामने सोफ़े और कुर्सियों पे बैठे अपनी टीचर को बदकारियों की तमाम हद्दें पार करते हुए देख रहे थे लेकिन मुझे इस वक़्त उनमें ज़रा भी दिल्चस्पी और गरज़ नहीं थी।

मैं अपने नर्म हाथों से उसके लंड के खोल को और उसमें से निकली हुई गाजर को आहिस्ता-आहिस्ता सहलाने लगी जिससे उसकी सुर्ख गजार ज्यादा लंबी और फूलने लगी। कुत्ते के लंड को इश्तिआल करते-करते मेरी खुद की चुदास भी परवान हुई जा रही थी। मैंने गौर किया कि उसके लंड को मुश्तैल करने से उसमें से मुसलसल लेसदार रक़ीक़ पानी निकल रहा था। मुझे एहसास था कि ये उसकी मज़ी है लेकिन उसकी मिक़दार से लग रहा था जैसे कि बे-मियादी सप्लाई हो। मैं जितना उसके लंड को मुश्तैल करती वो लंड उतना ही बड़ा होता जा रहा था। जल्दी ही वो करीब आठ-नौ इंच लंबा हो गया और उसकी जड़ में एक गोल गाँठ सी बनने लगी थी। कुत्ते के फूले हुए लंड में से अब भी लेसदार मज़ी निकल कर बह रही थी जिसे देख कर मेरे मुँह में पानी आ गया और मैंने नीचे झुक कर आहिस्ता से उसका लंड अपने मुँह में ले लिया। शायद अपनी फ़ितरत-ए-अमल की वजह से... लेकिन वो कुत्ता फ़ौरन अपना लंड मेरे मुँह में आगे-पीछे चोदने लगा। उसकी रक़ीक़ मज़ी मेरे मुँह में मुसलसल रिस रही थी जिसका तल्ख-शीरीन सा मुख्तलिफ़ ज़ायका बेहद लज़्ज़त-अमेज़ था।