पृकृति का रहस्य - एक प्राचीन कथा

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कृष्णावती और लशा अपने नेत्र खोलते है आज उन्हें सब कुछ बदला बदला सा लग रहा था उन्हें हर चीज आनंदित कर रही थी इससे से पहले उन्होंने जगत को इन नजरों से नहीं देखा था या यूँ कहें कि उनके पास ये दृष्टि ही नहीं थी | नहीं नहीं, दृष्टि उनके अन्दर ही थी पर इसकी कुंजी नहीं थी| क्या ये कुंजी दिमाग ने कुछ जानकारी पा कर खोल ली? ये तो संभव ही नही. है क्यूंकि दोनो के दिमाग बिलकुल शून्य हो चुके है| फिर क्या है, ये रहस्य? क्या मिला है उनको, कुछ बाहरी वस्तु? नही तो, क्या इसका मतलब ये हुआ कि ये आनंद सभी के भीतर छुपा हुआ है?

क्या इसे पाने के लिए दिमाग को शून्य करना जरुरी है? क्या दिमाग से ज्यादा बुद्धिमान भी कुछ है? या बुद्धिमत्ता ही इन सब दुःखों और असंस्कृत का कारण है? या बुद्धिमत्ता से संस्कृत बना जा सकता है?

लेखक मुद्दे से भटकने के लिए माफ़ी चाहता है अब कहानी पर वापस लौटते है कृष्णावती लशा का एक हाँथ लेके अपने गाल से लगा लेती है और उस गाल के तरफ अपनी गर्दन झुकाकर अपने नेत्र बंद कर लेती है लशा द्वारा उसके होंठ चूमे जाने से उसके नेत्र खुल जाते है अब दोनों भोजन के लिए आगे बढ़ते है आज दोपहर होने पर भी उनकी भूख ने तीव्रता नहीं पकड़ी थी लशा कृष्णावती के पीछे अपने हाँथ कमर में फंसाकर निताम्भो से सटकर चल रहा था अब वो अपनी ठुड्डी कृष्णावती के पीठ पे रखके नेत्र बंद कर लेते हुए "प्रिये! तुम ही मेरे नेत्र और सबकुछ हो", लशा ने भाव के साथ कहा

कृष्णावती अपना हाँथ अपने पीछे ले जाकर लशा के सिर को सहलाती हुयी अपनी मंजिल पे पहुँचती है वहां भुने हुए मांस का एक टुकड़ा भी ना था और बैकुंठी अभी लकड़ियाँ लेकर भी नहीं लौटी थी अजीब विडम्बना थी

कृष्णावती बहुत ही असहाय नजरों से लशा के तरफ देखती है लशा को कृष्णावती की चिंता होती है उसे तो भूखे रहने की आदत थी पर वो कृष्णावती को भूखा नहीं देख सकता है

उधर कृष्णावती भी इसी उधेड़बुन में थी उसे लशा पे तरस आता है "बेचारा आज भूखा रह गया",

कृष्णावती दोनों हांथों से लशा के गर्दन को पकड़कर अपने पास लाती है और अपने स्तन लशा के मुंह के अन्दर कर देती है लशा उनसे दूध दूध निकालता है और कृष्णावती के मुंह को खोलकर अपने मुंह से आधा दूध उढ़ेल देता है कृष्णावती के आँखों से आंशु निकल जाते है इस क्रिया के बाद दोनों चिपक कर बैठ जाते है दोनों के हाँथ एक दुसरे के पीठ को सहला रहे थे

तरुण लगभग झड़ने को होता है वो अपना लिंग निकाल लेता है और अपना वीर्य स्त्री के गुदा पे फैला देता है तरुण वीर्य को गुदा द्वार पर इकट्ठा करके उसके गुदा के आसपास की जगह को चिकना करने लगता है और अपने हांथों से अपने लिंग को सहलाता है स्त्री खड़ी हो जाती दोनों अब चुम्बन करने लगते है कुछ देर चुम्बन करने के बाद कान और गर्दन को चूमता हुआ स्तन की घुंडी के चारों ओर अपनी गरम जीभ फिराने लगता है स्त्री के हाँथ तरुण के लिंग पे चल रहे थे जब लिंग में जान आती है, स्त्री चित्त होकर लेट जाती है तरुण स्त्री के पैर अपने कंधे पे रखकर अपना लिंग गुदा पे रगड़कर वीर्य से चिकना करता है और लिंग का आठवां भाग गुदा में घुसा देता है, धीरे धीरे धक्कों से घर्षण की आवाज आने लगती है है स्त्री रोमांचित होकर झड़ने लगती है तरुण सारा रस अपने हांथों में ले लेता है और अपने लिंग और स्त्री के गुदा को और अच्छे से चिकना करता है और फिर से लिंग को गुदा में प्रवेश करा देता है इस बार आधा लिंग अन्दर गया था थोड़ी देर ऐसे ही धक्के लगाने के बाद तरुण अपने लिंग पर थूक जुटाके पूरे लिंग के साथ गुदा सम्भोग करने लगता है

बैकुंठी और तरुण ये देख रहे थे

बैकुंठी -- क्या गुदा में भी लिंग डाला जाता है

तरुण -- अभी योनी सम्भोग करने के बाद तुम्हारे साथ गुदा सम्भोग भी करूँगा

बैकुंठी को तरुण पे पूरा भरोसा था वो उसके साथ कुछ भी करने को तैयार थी तरुण फिर से बैकुंठी की योनी में लिंग डालकर अन्दर बाहर करना शुरू कर देता है अब वो थोड़ी तेजी से कर रहा था ताकि जल्दी झड़कर वीर्य से गुदा चिकनी करके फिर गुदा सम्भोग का कार्यक्रम शुरू कर सकें| बैकुंठी को ये नए अनुभव के अहसास से धक्कों में बदलाव अच्छा लग रहा था

बैकुंठी के पास से लकड़ियाँ लाने के लिए कबीले से दो तरुण भेजे जाते है दोनों तरुण नुकीले डंडे लेकर जंगल की तरफ बढ़ रहे थे हालाँकि दिन में कोई खतरा नहीं रहता था पर कभी कभी रात में, नदी के पास वाले जंगल से कोई खूंखार जानवर घूमता हुआ आ जाते था

लशा कुछ बैचेन सा लग रहा था कृष्णावती लशा की मनोदशा समझती हुयी पूंछती है प्रिये! क्या बात है

"अगले कुछ दिन जंगल नहीं जा पाउँगा", लशा ने उत्तर दिया

कृष्णावती कुछ भी कहे बिना वहां से उठकर चली जाती है और कुठरिया में पहुँचती है

अन्दर का माहौल देखके हैरान हो जाती है ये क्या है जामवती और भद्रा दोनों सो रहे थे भद्रा का एक हाँथ जामवती के योनी पे और दूसरा हाँथ स्तन पे था और जामवती अपनी मुट्ठी में भद्रा के लिंग को पकड़ें हुए थी

"कृष्णावती जामवती को हिलाकर कहती है कि वो बहुत दिनों से जंगल नहीं देखी है", किसीको साथ लेके जाना जामवती ने आधी नींद में ही उत्तर दिया

कृष्णावती -- लशा को ले जाउंगी

जामवती ये सोचकर मान जाती है कि कृष्णावती के साथ लशा कुछ शिकार करना सीखेगा

कृष्णावती अब लशा के पास आती है और समाचार देती है की अब जंगल जाया सकता है पर शर्त ये है मुझे साथ लेके जाना पड़ेगा लशा के चेहरे पे रौनक लौट आती है लशा को खुश देखकर जमावती की ख़ुशी दो गुनी हो जाती है आखिर सच्चे प्रेमी वहीँ होते है जो एक दुसरे के काम आए और एक दुसरे की ख़ुशी देखकर खुश होयें

कृष्णावती चलने की तयारी करने लगती है लशा किसी भी तरह के हथियार को साथ ले जाने से मना कर देता है, कृष्णावती को लशा की बात माननी पड़ती है

दोनों एक दुसरे को छेड़ते हुए आगे बढ़ने लगते है कभी कृष्णावती लशा को अपने पीठ पर लादकर चलती कभी लशा कृष्णावती को पीठ पे बैठाके चलता

ये किधर जा रहा है, कृष्णावती ने कहा

लशा, जंगल!

कृष्णावती, पर जंगल तो इधर है इशारा करती है

लशा, नदी के पास वाले जंगल की तरफ इशारा करता है

कृष्णावती, खौफ से उसमें तो बहुत ही खतरनाक जानवर रहते है हमारे पास कोई हथियार भी नहीं है

लशा, हथियार की क्या जरुरत है सभी प्राणी, जीव और पेड़ पौधे प्रेम के पात्र होते है

आखिर कृष्णावती को हार माननी पड़ती है और लशा के हाँ में हाँ मिलाने लगती है| और दूसरा कारण ये भी था कृष्णावती खुदसे ज्यादा लशा पे भरोसा करने लगी थी उसे विश्वास होने लगा था कि शायद लशा ठीक कह रहा पर उसके अचेतन मन में अभी भी उधेड़बिन चल रही थी जानवरों से प्रेम? जो देखेते देखते ही किसी भी मनुष्य के टुकड़े कर देते है| कितने ही जन उसके कबीले के जानवरों द्वारा मारे गये थे "पूर्वजों के समय में जब दीवारें नहीं थी, जानवर बच्चों पर भी रहम नहीं करते थे", ऐसा उसने अन्य लोगों से सुना था

प्रश्न उत्तर पर विराम लग गया था अब दोनों जंगल की तरफ थोड़ी तेजी से बढ़ रहे थे

लकड़ी लाने के लिए दोनों तरुण जंगल पहुँच जाते है उन्हें लकड़ी का ढेर दिखता है, "बैकुंठी कहाँ है", एक तरुण ने कहा

दोनों बैकुंठी को खोजने लगते है जंगल ज्यादा बड़ा नहीं था उन्हें एक ओर कुछ लोग मालूम पड़ते है दोनों वहां पहुँच जाते है वहां जो हो रहा था उसे देखकर दोनों गुस्से से तमतमा जाते है बैकुंठी के गुदा में एक तरुण लिंग अन्दर बाहर कर रहा था और वहां पे दो जन पैर पसारे बैठे हुए आसमान की तरफ देख रहे थे

उन दोनों में से एक संभोगरत तरुण को धक्का देता है और दूसरा बैकुंठी को घसीटकर चलने लगता है|

अब स्त्री दोनों तरुण के साथ लकडीयां लादकर चलने लगती है हालाँकि तरुण को बैकुंठी को छोड़ जाने का मन नहीं हो रहा था

उसकी माँ तरुण को समझा रही थी छोड़ उन्हें, देख नहीं रहा था? मनुष्य है फिर भी जानवरों की तरह जंगली थे| हमारी मुखिया सिखाती है सभी जीवों पे दया करो और मनुष्यों के साथ प्रेम से रहो हमे उनसे झगडा नहीं करना है

बैकुंठी तन व मन से खुद को समर्पित कर चुकी थी आज जितनी पूर्णता, उसने कभी महसूस नहीं की थी वो अपने हाँथ पैर झटक रही थी, छूटकर भागने के लिए पर तरुणों की पकड़ बहुत मजबूत थी दोनों साथ में कुछ लकड़ियाँ ले लेते है और कबीले की तरफ बढ़ते है

उधर वो स्त्री और तरुण नदी के किनारे पहुँचते है नदी का रुख देखकर स्त्री का दिल धड़कने लगता है नदी में पानी बहुत ही कम हो था स्त्री जानती थी की किसी भी वक्त पानी का स्तर बहुत तेजी से बढ़ सकता है हो सकता है की बाढ़ भी आ जाये वो भडभडाहट में तरुणों को सचेत करती है "अपना भार कम करके तेजी से चलों हम लोग खतरे में है, किसी भी वक्त जल खतरा बनके आ सकता है"

उधर लशा और कृष्णावती भी बहुत आगे निकल आए थे उनके दाहिने हाँथ पे आधा कोस दूर, नदी स्थित थी वो नदी के बहने की दिशा में जंगल की तरफ बढ़ रहे थे

कृष्णावती, "अच्छा, दौड़ लगाते है कौन पहले जंगल पहुँचता है"

लशा हामी भरता हुआ दौड़ना शुरू कर देता है

कुछ ही समय में सूर्यास्त होने वाला था बादलों में तेज गरजना हो रही थी उजाले की एक लकीर गुजरती है और बिजली जोरों से तड़क रही थी चारो तरफ सायें... सायें.. हवा की ध्वनि आ रही थी पेडो के तने लहरा रहे थे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे आज पेड़ों को स्वतंत्रता मिली है नृत्य करने की| हवा इतनी तेज थी की नदी के जल में हलकी हलकी तरंगे उठ रही थी

स्त्री और तरुणों के कमर में बंधे पत्ते फडफडाहट के साथ हवा का साथ दे रहे थे अब वो नदी पार करके दूसरी तरफ पहुँच जाते है| नदी की स्थिति के बारे में चिल्लाते हुए, अपने कबीले की तरफ लम्बे लम्बे कदम रखकर बढ़ते जा रहे थे नदी के इस पार जीवन ज्यादा सुगम था यहाँ बसने वालों के पूर्वज शायद अनुकूल वातावरण के खोजी रहे होंगे यहाँ नदी के दुसरे तरफ की तुलना में ज्यादा मनुष्य थे और चौड़ी और गहरी नदी जंगल के खूंखार जानवरों से बचाव के लिए ढाल का काम करती थी बहुत ही कम मनुष्यों को तैरना आता था

बैकुंठी और तरुण कबीले में पहुँच जाते है तरुण नए मनुष्य और आज की घटना के बारे में बताते है बुजुर्गों आने वाले संकट के परिणाम से शोर मचाने लगते है बैकुंठी के नियम तोड़ने से अब हमे प्रकोप से कोई नहीं बचा सकता है

क्या जरुरत थी एक "परदेशी" से सम्भोग करने की, एक बुजुर्ग ने कहा

अब यहाँ से रिश्तों की नीव पड़ना शुरू होती है

बैकुंठी चुपचाप सहमी हुयी बैठी थी एक बुढिया अपने पूर्वजो को याद करके दो कटोरे लाती है एक कटोरे से जानवर का रक्त लेके तरुणी के चेहरे पे पोत देती है और दुसरे कटोरे के दूध से उसकी योनी और गुदा को साफकर तरुणी को संस्कृत करती है एक बुजुर्ग इस प्रकोप से बचने का उपाय बताता है की कोई भी जन बैकुंठी से प्रेम नहीं करेगा और ना ही कोई इससे सम्भोग करेगा बैकुंठी रोटी हुयी वहीँ सो जाती है सभी जन उस बेचारी के साथ अछूत जैसा व्यवहार शुरू कर देते है नदी के इस तरफ के लोग' अपने पूर्वजों के सच्चे भक्त थे इससे उनके स्वाभाव व विचारों में जड़ता आ गयी थी हो सकता है इधर के मनुष्यों को नदी के उस पर सुगम जीवन की भनक लगी हो पर ये अपनी जड़ता से ना लड़ पाए हों और अपने पूर्वजों की भूमि को छोड़ने का विचार ना बना पाए हों

अब कबीले में शाम के भोजन की तयारी होने लगी थी जामवती और भद्रा एक ही आसन में, अपने पैरों को हांथों में भींचे हुए अपने घुटनों पे सिर रखके उदासी में बैठे थे उनका मन बैचैन था मन करोड़ों विचारों से भरा था एक ही विचार, एक क्षड में असंख्य बार आ रहा था कि अब ऐसा दोबारा नहीं करना है|

कृष्णावती और लशा जंगल में प्रवेश कर जाते है कृष्णावती का भय अब शून्य हो चूका था लशा को आता देखकर जानवर हरकत में आने लगे थे बन्दर अब पेड़ की डालियों पे उछलकूद करने लगे थे ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर, कभी ऊपर से ऊपर कभी नीचे से नीचे वाली डाली पे छलांग लगा रहे थे कभी एक डाली को पकडे हुए अपने शरीर का संतुलन बना के डाली की धुरी पे 360 डिग्री के कोण पर घूम जाते भेड़िया और चीते अपनी जगह पे कुला मुंडी खाने लगते है मानो सभी लशा का स्वागत कर रहे हों लशा जैसे दिव्य व्यक्ति के जंगल में कदम पड़ते ही सारी ही काया पलट गयी थी अब जानवरों में किसी तरह का भेद नहीं था तथा खूंखार जानवरों से छोटे जानवरों को भय की कोई गुंजाईश नहीं रही थी सभी प्रेम से एक दुसरे के साथ नृत्य कर रहे थे चिड़ियाँ एक जानवर से दुसरे जानवर पर फडफडाती हुयी मस्ती में मधुर संगीत सुना रही थी

अचानक जंगल का राजा, शेर आँख में लाल डोरे लाते हुए तेजी से कृष्णावती की ओर बढ़ता है जंगल में फिर से भय की आंधी चल जाती है ख़ुशी का प्रकाश एक घनी अन्धिरिया का रूप लेने लगती है सभी जानवर शांत होकर अपने बिल की तरफ भागने की तयारी में खड़े थे कृष्णावती के शरीर का अंग अंग आगे आने वाले संकट से काँप रहा था अब तो वो भाग भी नहीं सकती थी शेर कृष्णावती के मुंह के नीचे चित्त साधे हुए अपने विकराल जबड़ों को खोलकर तेजी के साथ बिल्कुल समीप आ रहा था कृष्णावती को पूरा यकीन था आज तो बच पाना मुमकिन ही नहीं है वो मन में सोचती है "लशा बेचारा तो अपरिपक्व है कम से कम उसे तो समझदारी से काम लेना चाहिए था" पर अब पछताने से, क्या कुछ हो सकता था? या कभी कुछ हुआ है? पिछले कुछ दिनों में बेचारी ने क्या क्या सपने सझाये थे वो हमेशा युहीं हंसती खेलती लशा के साथ जीवन गुजारेगी उसका प्रेमी मेरे कबीले को एक नई दिशा में ले जायेगा फिर सभी कितने खुश रहेंगे,

सभी इच्छाओं पे शंका के बादल मंडरा रहे थे अभी तो सिर्फ उसकी इतनी मात्र इच्छा थी कि वो बस अपनी और लशा की जान बचा सके| क्या इतने पराक्रमी चित्त के मनुष्य लशा को अपनी रक्षा के लिए किसी की आवश्यकता थी? या क्या कोई भी उन्हें इस परिस्थिति थे से निकल सकता था?

लशा बिना हिले ढूले सीधे खड़ा हुआ था उसके अन्दर जान का भय तो बहुत दूर, चिंता की एक लकीर तक ना थी वो तो खुले आसमान की तरफ गर्दन किये हुए मानो समाधि की अवस्था में खड़ा हो

कृष्णावती, कहाँ खो गया है? लशा शेर के इस रूप को देखके काँप गया उसने अपने जीवन में किसी जानवर का ये रूप नहीं देखा था शेर कृष्णावती को झपटने को ही था कि लशा अपनी पूरी ताकत से शेर की गर्दन को अपने हांथो में जकड लेता है, "प्रिय! भागो"

कृष्णावती -- अकेले नहीं जाउंगी

लशा - ये मुझे कुछ नहीं करेगा सिर्फ तुम्हे देख के बिजुक रहा है

कृष्णावती -- में यहाँ शेर के हांथो मर जाना पसंद करूंगी पर में अकेले नहीं जाउंगी

लशा, अब कृष्णावती के चेहरे पे चित्त लगाता है ताकि उसे समझाया जा सके

अचानक से उसकी नजर कृष्णावती के गर्दन पे पड़ती है, "प्रिय अपने गले में हड्डियों की माला को तोड़कर दूर फेंको ये तुम्हे अन्य जनों की तरह शिकारी समझ रहा है"

कृष्णावती, हांफती हुयी, अपने गले की रस्सी को तोडके फेंक देती है

लशा, इधर आओ!

कृष्णावती का एक हाँथ थामकर शेर के सिर पे फिराने लगता है शेर ज्यादा देर तक क्रोध नहीं साध पाता है

अब दोनों जमीं पे पिन्ती मार के खुद को सुविधाजनक आसन में लाते है और शेर को अपनी गोद में लिटा लेते है शेर की ठुड्डी लशा के जांघ पे रखी थी बाकी गर्दन का हिस्सा कृष्णावती के गोद में था

दोनों शेर के शरीर को सहला रहे थे शेर भी मस्ती में लौटने को तैयार था सारे जानवर फिर से अपनी अपनी कला दिखाकर जंगल को शुशोभित करने लगते है

दोनों के आनंद की कोई सीमा नहीं थी लशा एक हाँथ से कृष्णावती का हाँथ मसक देता है दोनों की नजरें मिलती है दोनों मंद मंद मुस्कराने लगते है

अब शेर मस्ता के कुलामुन्डी खा रहा था अपने राजा के इस कारनामे को देखकर सभी जंगल वासी दोगुनी उर्जा के साथ मस्ती में झूमने लगते है

काफी रात हो चुकी थी सभी खाने पीने के बाद प्रेमलीला में जुट गये थे पिछले दो दिन से असंस्कृत प्रेम कला के कारण भद्रा की बहुत उर्जा का क्षय हुआ था इस थकान के कारण भोजनौप्रान्त ही ही ढेर होकर सो जाता है

जामवती अपने बच्चों से प्रेम कर रही थी सभी मिलके खिलखिला रहे थे उनमे सबसे ज्येष्ठ तरुण मैथुन के नजरिये से जामवती पे हाँथ रखता है जामवती हाँथ हटा देती है तरुण समझ जाता है की ये आज प्रेम के रंग में नहीं है

जामवती आज बच्चों के बीच में ही लेट जाती है सबसे छोटा बच्चा जामवती के ऊपर पट हो जाता है

जामवती बच्चे का प्यारा सा नन्हा हाँथ अपने चेहरे पे रखकर कोमलता के अहसास में डूबके नींद में चली जाती है

बैकुंठी की आँखों में नींद नहीं थी उसका चेहरा आंसुओं से भीगा रखा था "हे इश्वर(पूर्वज) मुझे उस तरुण से मिला दे", "मेंने उसके साथ कुछ ऐसा अहसास किया है जिससे में पूरे जीवन बंचित रही", "वो अहसास जो मैंने आज तक किसी प्रेम संगत जोड़े में नहीं देखा"

"कितना प्यारा! कितना सरल! कितना सुबोध! कितना अच्छा प्रेमी था वो, में एक पल भी अब अकेले नहीं रहना चाहती हूँ", "जीत लूँगी में नदी के पार को"

पर नदी का पार है क्या? और ये मिलेगा कहाँ? में तो कभी शिकार पे भी नहीं गयी हूँ| लोग बोलते है की जहाँ शिकार करने जाते है वहां से लगभग दो कोस पे है, ये बात तो सब पूर्वजों से सुनते आए है पर कभी कोई गया क्यूँ नहीं वहां?

हूँ हम्म...करके अपने शरीर में अंगड़ाई लेके हाँथ और पैर में जकड़न लाती है

"ये पूर्वजों का आदेश! इसने तो ", पता नहीं कब तक चलेंगे ये आदेश और कब तक इस कबीले के लोग नियमों का पालन करेंगे, उस कबीले के लोगों को देखो कितने शालीन थे कितने खुश थे और सबसे बड़ी बात हमारे जैसे थोथे नियमी नहीं थे, "काश में कभी उनके साथ रह पाती!"

इस कबीले के लोगों से बस एक बात सुनो सुरक्षित रहो, सुरक्षित रहो, सुरक्षित रहो क्या खुश रहना आवश्यक नहीं?, उसने अपने मन से सवाल किया

पर कोन है जो मेरे कबीले को दृष्टि दे सकता है? कोन है वो जो मुझे मेरे तरुण से मिला सकता है?

बुढिया चिल्लाकर, क्या लशा और कृष्णावती अभी भी नहीं लौटे? ये दोनों भी धतूरे खाए हुए से रहते है, बुदबुदाती हुयी फिर से सो जाती है

बैकुंठी हाँ लशा, लशा नियमों को नहीं मानता है पर क्या वो मेरी मदद करेगा? वो तो कृष्णावती के सिवाय किसी से बात तक नहीं करता है, फिर कैसे?

वो कृष्णावती से कहेगी वो जरूर कुछ हल निकालेगी और फिर वो उसकी जन्मदाता भी तो है, वो इस अंतिम विचार के साथ नींद में ना चले जाने तक कुछ नही सोचती है

अब नदी अपने पूरे वेग पे थी बहुत ही भयानक दृश्य था छोटे मोटे जीव जो नदी में जल पी रहे थे नदी में डूबकर मरने से जल की उपरी सतह पर, नदी के वेग से , तैरते हुए प्रतीत हो रहे थे

बादलों में तेज गरजना हो रही थी हलकी हलकी बारिश की फुआरें पहले ही आरम्भ हो चुकी थी

जंगल, प्रेम और आनंद के प्रकाश से जगमगा रहा था लशा और कृष्णावती कभी भालू को देख के भालू की तरह कभी बंदरिया को देख के उसकी तरह नृत्य कर रहे थे

अब कृष्णावती लशा से छूटकर अकेले ही जंगल का अन्वेषण करने लगती है, उसके बड़े स्तन बाहर की तरफ उठे हुए नितंभ, सहेज सहेज के सावधानी में छोटे छोटे पग, लटाओं के माध्यम से कमर पे उतरता हुआ बारिश का जल, पूरा दृश्य ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे कुछी माह पहले पैदा हुयी हथनी जंगल में बारिश की क्रीड़ा के लिए निकली हो

कृष्णावती मन में, कितना आनंद है इस जंगल में? कितने प्यारे जीव! कितने सुन्दर वृक्ष! कितनी ठंडक का माहौल है यहाँ?,

"अगर जंगल का यही जीवन है तो अब लशा और में इस जंगल से कभी नहीं जायेंगे" , कृष्णावती निश्चय कर लेती है| हम क्यूँ जायें कबीले हम साथ मिलकर इकट्ठे, कबीले की बंदिशों में क्यूँ रहते है इन्ही जानवरों के वजह से, पर देखो तो सही ये कितने प्यारे है और खूंखार जानवर? वो तो भीतर से सबसे ज्यादा कोमल है देखो तो सही कैसे शेर और भेडीये बच्चों के तरह नटखटी खेल खेल रहे है

नदी के इस पार के लोगों ने काफी तरक्की कर ली थी, अपने शरीर को पत्ते और पेड़ की छालों से ढकते थे यहाँ नयी कलाओं का बहुत सम्मान था और कलाकारों को प्रोत्साहन भी मिलता था कलाकारों के अतिरिक्त बहुत सारे खोजी व दार्शनिक भी थे

यहाँ के समझदार लोगों ने भाषा भी विकसित कर ली थी नदी के उस ओर के कबीले के विपरीत यहाँ पे लोगों के पास अपने नाम थे यहाँ के कबीलों में समन्वय था सभी मिलके रहते थे खोजी, दार्शनिक व कलाकार कहीं भी जा के रह सकते थे उन्हें इस बात का पता था कि सिर्फ यही या इन्ही के तरह के लोग जीवन को श्रेष्ठ बना सकेगे यहाँ के पुरुष कुछ क्षेत्रों में महिलाओं से आगे थे पुरुष और महिलाओं दोनों की बुध्धि से लगातार खोजों पे खोजें हो रही थी एक तरुण इधर के सारे कबीलों में बहुत विख्यात था आज पूरे दिन लेटा हुआ असमान को देखता रहा रात होने पर भी आसमान की तरफ देखता हुआ कबीले में लौट रहा था

जंगल से लकड़ी लाने वाले स्त्री और तरुणों ने नदी की स्थिति के बारे में आगाह किया था पर लोगों ने गंभीरता से नहीं लिया, "हमारा कबीला नदी से बहुत दूर है वहां का पानी यहाँ तक नहीं आ पायेगा"

अब वो तरुण अपने कबीले में घुस आता है सारी तरुणी अपने अपने काम को छोड़कर उसे निहारने लगती है आपस में देख सखी "आंखे तरस गई थी क्रन्थ को देखने के लिए सुबह से अब दिखा"

"तेरा दिल तो नहीं आ गया कहीं क्रन्थ पे, बहुत अजीब व्यक्ति है"

"एक तरुणी इसके साथ नदी के पास गई थी उसने सोचा था शायद वहां इसका प्रेम मिल सके"

"जानती है इसने क्या किया? तरुणी को नदी में धकेल दिया वो मरने के करीब थी वो तो किसी तरह से बाहर निकल पाई"

दूसरी तरुणी, "पर वो नदी में चलना(तैरना) भी तो सीख गई थी उसकी वजह से| अपने कबीले में मुश्किल से 4-6 लोगों को ही तैरना आता है सोच उस तरुणी को कितना गर्व महसूस हुआ होगा सभी कितना सम्मान करते है उसका"

पहली तरुणी, "पर वो तरुणी अब क्रन्थ के पास भी नहीं भटकती उसे बहुत डर लगता इससे"

"कुछ भी हो मेरा तो उसपे दिल आ चूका है", "तो ठीक है मरने के लिए तैयार रह किसी भी वक्त", सखियाँ हंसने लगी

क्रन्थ, मस्ती में तरुणियों को छेड़ता हुआ अन्दर आ जाता है

मुखिया जोकि कबीले में सबसे ज्यादा उम्र की महिला थी यहाँ पर यही नियम था इनका जीवन शिकार पे निर्भर नहीं था

क्रन्थ, को देखके कबीले के अन्य बुद्धिमान जलते थे बल्कि नफरत करते थे इसके अनेकों कारण थे

एक तो सारे बुद्धिमान क्रन्थ से बड़े थे दूसरा क्रन्थ किसी का सम्मान नहीं करता था जबकि वो बुद्धिमान लोग कबीले के लोगों को सिखाते भी थे पर क्रन्थ उनके अपमान करने में कभी पीछे नहीं हटता था "वो मजाक उडाता था ये और इनके पुरखे दो पीड़ीयों से तैरने जैसे सामान्य काम सिखा रहे है फिर भी कबीले में आधे भी तैराक नहीं बन पाए जबकि उसने एक तरुणी को पहले ही दिन एक सबसे बहतरीन तैराक बना दिया"

क्रन्थ का मानना था ये लोग मेहनत नहीं करते है और हमेशा काम बाँटने में लगे रहते है और खुद भी किसी काम से बचते है ये कहकर ये काम किसी दुसरे का है

एक बार कबीलों की प्रतियोगिता में तो उसने सभी बुद्धिमानों की बेज्जती की थी यह कहके "ये मुझसे परतियोगिता करेंगे, कुछ है भी इनके पास एक ही ज्ञान को बटोर के रखे है कुछ भी नया किया इन्होने आज तक"

एक तरुण क्रन्थ को देखके उसको नदी का हाल बताता है, क्रन्थ अंदाजा लगाता है कि पानी यहाँ तक आ सकता है

क्रन्थ, सुनो! सुनो! सब गुस्साने लगते है अब ये क्या समस्या खड़ी करेगा

"हम लोग बहुत जल्द मरने वाले है इसलिए मरने के लिए तैयार रहो"

मरने का नाम सुनकर सब खड़े होकर उसकी बात गौर से सुनने लगते है

नदी में बाढ़ आने वाली है इसलिए जल्दी से औजार और रस्सियाँ लेके मेरे साथ चलो

जंगल में खुशियाँ छाई हुयी थी लशा, चलो कबीले वापस चलते है

कृष्णावती, हम लोग यहीं रहेंगे

लशा, यहाँ पर खायेंगे क्या?

कृष्णावती, उस दिन तू कुछ बता रहा था खाने के लिए जोकि मॉस नहीं था

"हाँ पर आज बंदरों के हाँथ में वो है ही नहीं, मुझे तेज भूख लगी है"

आखिर कृष्णावती को लशा की बात माननी पड़ती है दोनों कबीले को लौट पड़ते है

भद्रा के दिमाग में फिर से जामवती चलने लगती है सोते हुए ही उसके हाँथ अपने उत्तेजित लिंग पे चले जाते है

भद्रा मन में अपने विचारों से लड़ रहा होता है "नहीं बहुत दर्द हुआ था अब जामवती के साथ पहले जैसा सम्भोग नहीं करना है, मैंने उससे वायदा किया था कि उसके साथ करना ही नहीं है"