एक आदिम भय का कुबूलनामा - PART - II

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दर्शाने वाला था कि यह संसार चाहे जितना बेमानी दीख पड़े लेकिन इसी से गुजरकर वहां जाया जा सकता है जो अदृश्य और लोकातीत है। वह सपने सा झूठ होगा भी तो उस जादूगर के लिये जिसने उसे रचा है। उसके सपने का हिस्सा बने इस जगत और उसके बासिन्दों के लिये तो यह संसार ही जमीनी सचाई है। बुदि्‌धमती जीनत बहुत उदार विचारों वाली और संकीर्णताओं से कोसों दूर थी । मुसलमान कही जाती भी सुरुचि-संपन्नता, स्वभाव और संस्कृति में हजारों-हज़ार हिन्दू स्त्रियों से वह बेहतर थी । इतनी कि उसे पाकर मुझ सा कोई भी हिन्दू अपने को गर्वोन्नत समझता । उस दिन पिकनिक की गाड़ी को लौटते बहुत रात हो गई थी । वह दिन मेरे लिए मादक बेहोशी का था । वह रात मेरे लिए और शायद जीनत के लिए भी गुदगुदाते स्वप्नों की थी ।
उस दिन नीलांजना भी साथ रही आई थी -सरल, सौम्य और विनीत । लंबी, छरहरी सुंदर काया जिसकी आंखों की घनी काली पुतलियॉं इतनी आकर्षक थीं कि कालिमा भी उससे फिसल कर छिटक पड़े । लेकिन नीलांजना से पारस्परिक अकृत्रिम-आकर्षण और संबंधों के बावजूद वह दिन और रात जीनत के थे । साथ के उन क्षणों में जीनत और मैं यूं जुड़े कि उसके बाद हम एक-दूसरे से जुड़ते ही चले गए थे। मेरी आंखों के सामने दो छबियां थीं। कहां जीनत थी और कहां यह कहां वनमाला ? एक इतनी साफ और सरल कि जिसे समझने की उलझन ही न थी। दूसरी यह जिसे उलझनों के बीच से गुजरकर भी समझना मुश्किल है।

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वह तसल्ली प्रियहरि का केवल भ्रम था

वितृष्णा और रोष से वह भीड के बीच चिल्लाये जा रही थी - ''जिस साली को धन्यवाद तक ज्ञापित करना नहीं आता, दो शब्द अपने मन से लिख नहीं सकती, उसे आप बीच में ले आए ?''

कुछ एक कमेटियों में खासकर अकादमिक, साहित्यिक कमेटियों में वनमाला का नाम दोनों की अघोषित रजामंदी से प्रियहरि के नाम के साथ जुड़ा था । वह खुद कला, विज्ञान और वाणिज्य की परिषदों का समन्वयक और परामर्शक था । रीमा, नीलांजना और वनमाला इन परिषदों की कार्यकारी प्रभारी थीं । औरों से प्रियहरि के संबंध व्यक्तिगत और ऊपर थे। बातें होती, विचार विमर्श होता। अदाओं के साथ सहज चुहल होती और वे मिलते बैठते थे लेकिन वनमाला की आदतों से तंग प्रियहरि उससे बात करने की अब कोशिश भी नहीं करता था। बैठकों की सूचना कागज से या फिर और किसी के जरिये भिजवा दी जाती थी।
उस एक दिन बॉस के खाली एकांत चैम्बर में सुबह साढ़े नौ बजे नीलांजना, रीमा और प्रियहरि एकत्रित थे। वनमाला को तो सुबह ही अपनी कक्षा के समय आ जाना था पर वह नहीं आई थी। वहां मौजूद सब के बीच सब-कुछ सहज चल रहा था। नीलांजना प्रियहरि के और प्रियहरि नीलांजना के साथ हमेशा सहज और प्रसन्न रहे हैं। दोनों की हर मुलाकात एक आत्मिक शांति के साथ खत्म होती थी। दोनों के कामकाजी संबंध, जो धीरे-धीरे निजी हो चले थे बगैर किसी तनाव का एहसास कराये मजे में बीतते थे। किसी भी कमेटी में नीलांजना को साथ रखा जाना वनमाला को सखत नापसंद था। इन दिनों भी वनमाला का मूड प्रियहरि की तरफ बेरुखी का इजहार करते यही दिखाने का था। वनमाला जैसे जानबूझकर देर से आई थी।
नीलांजना को कागज-कलम सौंप प्रियहरि रूपरेखा लिखवाने में व्यस्त था। बीच-बीच में आपसी बातें भी उनमे जारी थीं। दोनों की निगाहें जब-तब टकरा जाती थीं। सब कुछ ठीक चल रहा था। अचानक वनमाला प्रकट हुई। आदत के मुताबिक उसने देर से आने, बैठक की सूचना के बारे में, और इसी तरह कुछ एक बातों पर उसने आते ही टिप्पणी की थी। नीलांजना और रीमा दोनों की आंखों ने कौतुक से नाराज वनमाला की अदाएं देखीं। जैसे वे कह रही हों कि लीजिए, अब ये आ गई और अब शांति गई।
वनमाला के पूछने पर कि क्या चल रहा है, उसी की शैली में उसने जलाने निहायत तटस्थ भाव और कुछ बेरुखी लिए प्रियहरि ने उसे संक्षेप में समझा दिया। नीलांजना की ओर उसने देखा जिसकी आंखें उसे मिलीं। प्रियहरि ने कहा - ''नीला, चलो समय नष्ट न करो, आगे लिखो।''
वनमाला ने शिकायत भरी प्रश्न करती नाराज आंखों से पहले घूरकर प्रियहरि को देखा फिर वितृष्णा और उपेक्षा से नीलांजना के चेहरे पर नजर डालते उसके हाथ से रजिस्टर और कागज झटककर छीन लिए। वनमाला जैसे हुक्म दे रही हो प्रियहरि से बोली - ''आप बोलिए, मै लिखूंगी।'' उसकी वाणी में दृढ़ संकल्प था। उसकी मुद्रा अदभुत आत्मविश्वास से भरी थी। किसी में हिम्मत न हुई कि उसे चुनौती दे सके।
इस अचानक दखल से रीमा की आंखें आश्चर्य से फैल गई थीं। नीलांजना की आंखे जिनमे लाचारी भरी थी प्रियहरि की आंखों से पल भर को टकराईं। उसकी सुन्दर बड़ी-बड़ी आंखों की गहरी मायावी पुतलियों में शिकायत थी कि मेरे साथ ऐसा क्यों होता है। नीलांजना जानती थी कि उसके साथ होकर भी प्रियहरि वनमाला का था। इधर प्रियहरि नीलांजना को चाहता और उसका साथ देना चाह कर भी साथ न दे पा रहा था। वनमाला के अप्रत्याशित आतंक से सभी आतंकित और स्तब्ध थे। प्रियहरि कुछ न कह सका था क्योंकि उसके दिल ने वनमाला के दिल का गुस्सा पढ़ लिया था, जिसमें लिखा था - ''इस नीलांजना की यह हिम्मत कि हमारी अनबन में मौका देख यह बीच में सेंध मार जाये ? और प्रियहरि तुम! याद रखो, तुम पर अधिकार मेरा है। चार दिन बात क्या बंद हो गई, तुमने इसे लिफ्ट दे दी।'' जो कहना था वनमाला ने बगैर बोले प्रियहरि से कह दिया। वातावरण की असहजता के बावजूद प्रियहरि को दिली तसल्ली हुई। यानी यह कि वनमाला पर प्रियहरि ही नहीं जान देता, वह भी उस मरती है। इतना कि किसी और का उसके पास भटकना भी उसे नापसंद है।
उस बैठक के बाद फिर बैठकों की जरूरत ही न हुई। नीलांजना को वनमाला और प्रियहरि के बीच के रिश्तों का एहसास था। नीलांजना न जाने किस मिट्‌टी की बनी थी। कभी उसकी ईर्ष्या प्रगट हुई, न शिकायत। चुपचाप वह सारा कुछ देखती, सहती और अपने को पीछे खींच लेती थी। पीछे खीच लेने के बावजूद संबंध, वाणी की मधुरता, व्यवहार में कुछ बदलाव न होता हालांकि उसकी मासूम खूबसूरत आंखों में पास आने का वह पशोपेश प्रश्न की तरह अवश्य होता जो प्रियहरि को शर्मिन्दा कर जाता था। प्रियहरि के मन में कामना होती कि कभी नीलांजना भी विद्रोह कर मन में उसके प्रति छिपे उस अपनापे को प्रगट करे, जो उसके मन में था। लेकिन नहीं, वह नीलांजना के स्वभाव में भी नहीं था।
वनमाला के साथ फिर दो-तीन दिन तक बैठना-बतियाना चलता रहा और कार्यक्रमों की रूपरेखा बनती रही। प्रियहरि और वनमाला के बीच से अब रीमा और नीलांजना गायब पाई जा रही थीं। वनमाला चाहती थी कि समन्वित उद्‌घाटन होने पर भी चूंकि विभाग और विषय उसका था, वह ही मंच पर प्रियहरि के साथ रहे। शेष दोनों महिलाओं की भूमिका वहां न रहे। प्रियहरि उसे समझाता रहा कि चूंकि यह आयोजन समन्वित है, नीलांजना और रीमा की भी भागीदारी वहां रहने चाहिए। उसने समझाया कि या तो विषय का प्रतिपादन वनमाला करे और संचालन नीलांजना करे - या फिर संचालन खुद वनमाला करे, और विषय का प्रतिपादन नीलांजना को सौंप दे। वनमाला इससे रूष्ट और असहमत थी लेकिन प्रियहरि की खातिर वह मान गई थी। दोनों के बीच एक बार फिर आत्मीयता और विश्वास का रिश्ता जीवित हो चला था। उससे प्रियहरि को तसल्ली थी। लेकिन कहां ? वह तसल्ली प्रियहरि का केवल भ्रम था।


अगले दिन सुबह दस बजे प्रियहरि अपने मित्र व साथी लेकिन अफसर नलिनजी के पास कार्यक्रम की रूपरेखा और तैयारी के बारे में चर्चा करने बैठा था। वनमाला अपनी क्लास में थी लेकिन नीलांजना प्रियहरि के साथ बैठी थी। नलिनजी ने सब देखा - सुना फिर कागज पर एक जगह इशारा करते हुए कहा - ''इसे काटिए, संचालन वनमाला नहीं करेगी, आप करेंगे।''
प्रियहरि ने समझाया कि वनमाला की सहमति से यह रूपरेखा बनी है। वह अच्छी है, योग्य है इसलिए अवसर उसे ही दें और उसका ही नाम रहने दें। लेकिन नलिनजी माने नहीं। उन्होंने कहा - ''आपसे बेहतर यहां कोई नहीं है। आप नहीं काटते तो मैं ही अपनी कलम से काट देता हूँ।''
नलिनजी वनमाला के मिजाज से अच्छी तरह वाकिफ थे। बोले - ''वह कुछ न कहेगी, मैं उसे समझा दूंगा। वह कहे तो कह दीजिएगा कि नलिनजी ने ऐसा किया है।''
इस बीच वनमाला का नया शुभचिंतक यार विपुल भी आ पहुंचा था। उसकी ओर किसी ने तवज्जुह देने की जरूरत न समझी। अपने को उपेक्षित पा इधर-उधर झांकती अपनी जिज्ञासा लिए वह दो मिनट में ही वहां से चलता बना था। नलिनजी के कमरे से निकलकर प्रियहरि स्टॉफ-रूम में गया तो पाया कि तब-तक कला संकाय के लोगों की भीड़ वहां जम गई थी। वनमाला के बगल में कुर्सी जमाए विपुल बैठा हुआ था। प्रियहरि ने वनमाला से मुखातिब हो प्रशंसा के कुछ शब्द कहे थे। नलिनजी से चर्चा के दौरान वनमाला के न होने का उपालंभ प्रियहरि ने उससे किया। वनमाला को यह सूचना प्रियहरि ने दी कि खुद उसकी असहमति के बावजूद नलिनजी ने आग्रहपूर्वक संचालन से वनमाला का नाम काटकर उसका अपना नाम रख दिया है। वनमाला से उसने कहा कि - ''अब जाओ तुम ही बात कर लो और समझाओ ।''
वनमाला प्रतिक्रियाविहीन स्थिति में प्रियहरि की ओर घूरती देख रही थी। इससे पहले कि वनवाला जवाब दे, उसकी बगल में बैठा विपुल चिल्ला उठा - ''रहने दीजिए जनाब, यहां तो आप मैडम के तारीफों के आप पुल बांध रहे है, और वहां ? वहां मैं बैठा था। मेरे सामने आपने खुद इनका नाम कटवा दिया है और यहां आकर बातें बना रहे हैं।'' जाहिर था कि विपुल का मकसद प्रियहरि को झूठा और मक्कार सिद्ध करना था। विपुल के झूठ पर प्रियहरि नाराज हो उठा। उसकी चालाकियां वह समझता था। उसने विपुल को जोर से डांटा कि वह झूठ बोल रहा है। वनमाला की ओर मुखातिब हो उसने बताया कि नीलांजना वहां मौजूद थी। उससे वनमाला पूछ सकती है कि क्या बातें हुईं।
प्रियहरि की कुर्सी के पीछे नीलांजना आ खड़ी हुई थी। उसने मुंडी हिलाई और अपनी सहज विनम्रता मे कहा कि 'हां प्रियहरि ठीक कह रहे हैं।'
शायद नीलांजना की कक्षा रही होगी। वह बाहर चली गई थी। यह संयोग ही था कि बचाते-बचाते भी नीलांजना हर बार वनमाला और प्रियहरि के बीच उपस्थित हुई जा रही थी। वनमाला को अचानक गुस्से का दौरा पड़ा। नीला का होना तो क्या उसका नामोल्लेख तक वनमाला के तन-बदन को जलाकर रख देता था। हालांकि वह वनमाला का भ्रम था, लेकिन निश्चय ही ऐसा संदेह उसमें आग की तरह भड़क उठा था कि ज़रूर नीला और प्रियहरि के बीच कुछ ऐसा था जिसके चलते जानबूझकर उसके खिलाफ साज़िश रची गई थी । ऐसे में इस वक्त नीलांजना का जिक्र वनमाला के प्रति निष्ठा की भावना के साक्ष्य और सफाई के लिए प्रियहरि करे यह उसकी सहन-सीमा के बाहर था। वनमाला क्रोध से बेकाबू हो चली थी। पूरे उन्माद से वह चीख पड़ी - ''रहने दीजिए, मैं क्या कुछ नहीं समझती प्रियहरि। कार्यक्रम का सारा बोझ मुझ पर डाल रहे हैं और मेरा ही नाम आपने कटवा दिया? काम आप मुझसे कराते हैं, मीठी-मीठी तारीफ करते हैं और पक्ष दूसरों का लेते हैं। मैं सब समझती हूं अगर वे इतनी ही काबिल हैं तो इन्हीं से ही सारा काम क्यों नहीं करा लेते ?''
प्रियहरि स्तब्ध और लाचार दिखाई पड़ा। वह वनमाला को ही चाहता था, उसका पक्ष लेता था, लेकिन वनमाला की गलतफहमी उस वक्त वह दूर न कर सका। जाहिर था कि माकूल मौका देख वनमाला को किसी और ने भी खूब भड़का रखा था। उसके मन में यह धारणा बो दी गई थी कि प्रियहरि उसे बेवकूफ बनाता है - दरअसल चाहता वह वनमाला को नहीं, नीलांजना को है। ईर्ष्या से भरी वनमाला का स्वर बहुत ऊँचा था। उसे जैसे उन्माद का दौरा पड़ा हो। वितृष्णा और रोष से वह भीड़ के बीच चिल्लाये जा रही थी - ''जिस साली को धन्यवाद तक ज्ञापित करना नहीं आता, दो शब्द अपने मन से लिख नहीं सकती, उसे आप बीच में ले आए ?'' वनमाला आपे से बाहर थी बीच में आपसी संबंधों के क्षणों का संकेत करती वह चीख-चीखकर प्रियहरि की कमजोरियां उजागर करने उतारू थी। वैसा करने में कुछ क्षण संबंधों की सारी मर्यादाएं उसने दरकिनार कर दी। वह चिल्ला रही थी - ''अकेले में यही प्रियहरि मेरी तारीफ करते हैं, चापलूसी करते हैं और बाहर ? देख लो, यही मेरा ही पत्ता काटते हैं। उस साली नीलांजना में ऐसा क्या रखा है जो ये उसका पक्ष लेते है।''
वनमाला के ठंडा होने की आशा में अब तक प्रियहरि चुपचाप धीरज रखे था लेकिन न थम रही वनमाला की अनर्गल बातों, आरोपों से फिर वह भी उत्तेजित और आक्रामक हो उठा था। उसने समझाना चाहा था कि वनमाला समझने की कोशिश क्यों नहीं करती। विपुल झूठ बोल रहा है और उसे व्यर्थ ही भड़का रहा है। प्रियहरि ने उसे समझाना चाहा कि वह चीख क्यों रही है ? चीखती हुई औरों को गाली देती अपमानित क्यों कर रही है ? आखिर वे भी सह-योजकों में हैं। उन्हें गाली देना और कोसना ठीक नहीं है। रीमा वहां मौजूद थी। उसने प्रियहरि के कथन की तसदीक करते हुए कहा कि प्रियहरि ठीक तो कह रहे हैं। इन्होंने कुछ नहीं किया है। जिन्होंने किया है, जो कहना है उनसे जाकर कहा जाए।
वनमाला को न कुछ सुनना था और न उसने किसी की सुनी। गुस्से में उबलती वह प्रियहरि को ही कोसती, प्रताड़ित करती उससे झगड़ती रही। यह खयाल करके कि यह वही स्त्री है जिसे मैं चाहता हूँ, जिसका पक्ष लेता हूँ और तारीफ किया करता हूँ, प्रियहरि का मन पीड़ा से भर उठा। वनमाला का स्वभाव ऐसा ही था। उसे समझाने की कोशिश करता प्रियहरि वहीं अपने को अपमानित होता देख आत्मग्लानि से पीड़ित होता सुबककर रो उठा था। इस बीच नीलांजना फिर लौट आई थी। वनमाला के रोष और प्रियहरि की लाचार दयनीयता को वह मौन देख रही थी। प्रियहरि को वह सांत्वना देती ढाढस बंधा रही थी।
प्रियहरि को इस बात का भी अफसोस था कि ढेर से लोग मौजूद थे, लेकिन ऐसी अवस्था में उसका पक्ष ले वनमाला को समझाने कोई आगे न आया। यह ठीक है कि वनमाला से प्रियहरि के संबंध कुछ और थे लेकिन तब भी अपने ही उन साथी सदस्यों का अपमान, जो उसे बेहद चाहते थे। प्रियहरि को क्षोभ से भर रहा था। प्रियहरि नीला से, रीमा से और वहां मौजूद अन्य मित्रों से यह कहता सहानुभूति की उम्मीद था कि वे खुद सोचें कि वनमाला के लिए उस प्रकार की उग्रता, गाली देना, तथा अभ्रदता का व्यवहार क्या उचित था ? कुछ देर बाद यह देख कर कि सचमुच उसके व्यवहार ने प्रियहरि को दुखी और सभी को स्तब्ध कर दिया है, वनमाला का रुख अचानक पलट गया।
उसने सफाई दी - ''मैने कोई गलती नहीं की, वैसा कुछ नहीं कहा।''
अपने को झूठा ठहराया जाता देख प्रियहरि ने वनमाला को इस बात के लिए धिक्कारा कि एक तो वह झूठ कह रही है, दूसरे वह सच को ईमानदारी से स्वीकार करते हुए गलती मानने से कतरा रही है। उसने वनमाला की आराध्या काली माता की दुहाई देते हुए पूछा कि वह सच बताए कि क्या उसने नीलांजना के लिए 'जिस साली को' जैसे फूहड़ शब्द कहे या नहीं ? अब वनमाला सिकुड़ने लगी थी और बचाव चाहती थी। बजाय विनम्रता से सच को स्वीकारने और सुनने की बजाय वह इसी बात पर फिर झगड़ पड़ी। छोटी सी बात में प्रियहरि देवी देवताओं की तो साक्ष्य में क्यों लाना चाहता है ? उसने इसी बात पर फिर प्रियहरि की खूब लानत-मलामत कर डाली। अंदर की बात यह कि एक तो नीलांजना को साथ लेना ही वनमाला पर भारी था, दूसरे नीलांजना के चक्कर में वनमाला का महत्व घटना वनमाला के रोष का कारण था। इस पर भी यह कि प्रियहरि अब भी बजाय वनमाला को समझ पाने के नीलांजना का पक्ष लेता वनमाला से लड़ रहा था।
वनमाला का स्वभाव सभी जानते हैं। कोई उससे न उलझा। यह बात अलग है कि उसके जाने के बाद सभी ने उसकी आलोचना की। प्रियहरि क्षुब्ध था। वनमाला को अपने पर अधिकार देने का ही एक कुफल यह अपमान था। प्रियहरि से हमेशा की तरह लोगों ने कहा -''आप बेकार ही उसकी तारीफ करते हैं, महत्व देते है, अब देख लिया न ?''
उस दिन बाद में भयानक उदासी से घिरा प्रियहरि राहत पाने नीलांजना के कमरे में जाकर बैठा। वहां और कोई न था। नीलांजना की आंखों में झांकते प्रियहरि ने अपने आहत मन की पीड़ा उससे कही और वैसा करते-करते फिर रो पड़ा। नीलांजना ने उसे तसल्ली दी - ''छोड़िए न, भूल जाइए जो हुआ। उसका तो स्वभाव ही ऐसा है। सब जानते हैं उसे। आप भी तो समझते नहीं और मैं हूं कि शायद आपको समझाने लायक नहीं।''
प्रियहरि की उदासी से नीलांजना का मन भी उदास हो गया था। वह उसे प्रसन्न रखना चाहती थी लेकिन रखती तो रखती कैसे ? वह वनमाला नहीं थी। वह पूरा दिन प्रियहरि के लिए भयानक अवसाद का था। रह-रहकर उसके चित्त में वनमाला के साथ की स्मृतियां हरी हो उठती थीं। उसे अफसोस था कि वनमाला उसे क्यों नहीं समझ पाती ? उसका जी करता था कि वनमाला से संबंधों के प्रायश्चित में वह अपनी व्यथा को साथ लिए प्राण दे-दे। यह विचित्र था कि उस तरह अपमानित होने पर भी उसका मन वनमाला को ही याद कर रहा था। वह उसके सामने ही रो कर उसे पिघलाने की उम्मीद रखता था और उसे मनाना चाहता था। वह चाहता था कि नीलांजना को लेकर वनमाला के मन में जागी ईर्ष्या और संदेह को वह ठंडा कर सके। उसका मन बेचैन था, पीड़ा और छटपटाहट से भरा हुआ था।


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'' मुझे इनसे कोई शिकायत नहीं है ।
बस इनसे इतना कह दीजिए कि फोन करें तो समय देखकर किया करें।''


जमा करते हो क्यों रकीबों को
ये तमाशा हुआ गिला न हुआ।
दर्द मिन्न्तकसे दुआ न हुआ
मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ॥ - ग़ालिब


उस रात इसी प्रयास में प्रियहरि ने फोन पर वनमाला से अपनी पीड़ा कहनी चाही। वह कुछ न सुनना चाहती थी। दोबारा फिर फोन पर कुछ बातें हुईं। वनमाला ने कहा था - ''ठीक है, आपने कहा मैंने सुन लिया। आपने सारा कुछ सुबह कह तो दिया था। अब क्यों बार-बार फोन कर रहे हैं ?'' वनमाला भयभीत थी कि बार-बार की घंटी कहीं उसके पति के जो संयोग से इस वक्त घर मे नहीं था और बच्चों के मन में संदेह न पैदा कर दे। फोन को लेकर उसके घर पहले भी बवाल हो चुका था। इधर प्रियहरि का मन अधीर था कि वह वनमाला से खूब लंबी बात करे। उतनी जब-तक उसकी बातें वनमाला के मन का मैल दूर न कर दें। बाहर जाकर उसने तीसरा फोन किया। कहा - ''वनमाला तुम्हें मेरी बात सुननी होगी। तुम नहीं जानतीं कि मेरे मन पर क्या बीत रही है । क्या मैं जान दे दूं तभी तुम्हें तसल्ली होगी ?'' उसने शिकायत की कि वनमाला ने उसकी बात पर विश्वास क्यों नहीं किया? उसने बताया कि वनमाला का नाम उसके विरोध के बावजूद नलिनजी ने अपनी कलम से काटा था। उसने समझाना चाहा कि विपुल ने झूठ बोलकर उसे भड़काया था ।
वनमाला भी शायद सुबह की घटना से तनावग्रस्त और क्षुब्ध थी। वनमाला के तसल्ली देने के बावजूद कि ''जो हुआ, वह हुआ। उसे भूल जाइए। आप कह रहे है तो मान लेती हूँ। मुझे कोई शिकायत नहीं है। अब फोन रख दीजिए।'' प्रियहरि उसे कह रहा था कि ''वनमाला, शायद कल मैं न आऊँ। शायद कभी तुम्हारे सामने न आऊँ। मुझे न जाने कैसा-कैसा लग रहा है। मैं अपनी आलमारी की चाबी भेज दूंगा। आगे की रूपरेखा अब तुम खुद बना लेना।''
वनमाला पर जो भी असर हुआ हो, प्रियहरि उस रात सो न सका था। उसका अवसाद-ग्रस्त चित्त रूठा रहा था। अगले दिन मन को संभालता न चाहते हुए भी वह अपने काम पर गया। जाने का कारण शायद काम उतना नहीं था, जितना उस स्त्री के चेहरे को देखना और उस चेहरे पर खुद के प्रति लौट आये कल्पित विश्वास की उम्मीद था। नलिनजी सुबह ही मिल गये प्रियहरि ने उन्हें बताया कि वनमाला का नाम काटना कितने अनर्थ बात कारण बन गया और उस पर क्या-क्या गुजरी। उसने आग्रहपूर्वक कहा कि अब बात तभी बन सकती है, जब वे खुद वनमाला को अकेले में बुलाएं और सच्चाई बताएं। प्रियहरि के बाहर जाते ही नलिनजी ने वनमाला को बुला भेजा होगा। कक्षा की ओर जाते हुए उसने गौर किया कि वनमाला ही नहीं, उसके साथ विपुल, अनुराधा, भोला, विराग वगैरह की टीम लिये नलिनजी के गिर्द उपस्थित थी। संभवतः नलिनजी द्वारा बुलाए जाने का मतलब भय में डूबी वनमाला ने यह लगाया होगा कि अवश्य प्रियहरि ने उसके कल के दुर्व्यवहार की शिकायत की होगी। यह केवल प्रियहरि जानता था कि वैसा नहीं था। वनमाला इसे नहीं जानती थी। इसीलिए वह स-संदेह अपना पक्ष मजबूत करने भीड़ के साथ गई थी। सहज रूप में प्रियहरि जा खड़ा हुआ था। उसे देखते ही वनमाला नाराज हो नलिनजी से बोली - ''देखिए, कल इतनी छोटी सी बात पर इन्होंने मुझसे झगड़ा किया। इतने बड़े विद्वान हैं, लेकिन जरा सी बात पर मुझसे काली माता के साक्ष्य पर उतर आए और मुझे लज्जित करना चाहा। आप ही बताइए कि क्या यह इन्हें शोभा देता है।''
वहां पर पहले से ही जमा भीड़ देखकर और अपने खिलाफ वातावरण की संभावना पाकर प्रियहरि उस समय उल्टे कदम लौट आया था। और-सबों के बाहर निकल जाने के बाद फिर से नलिनजी ने उसे बुलाया था। प्रियहरि को एहसास था कि भीड़ लेकर वनमाला ने जरूर अपने को बचाने प्रियहरि की उल्टी-सीधी शिकायत की होगी। उसके व्यवहार के चलते पहले से ही वह बेहद व्यथित और आहत था। इससे पहले कि नलिनजी कुछ कहते प्रियहरि ने अपना दुखी मन उनके सामने, बल्कि उनके बहाने वहां उस समय बैठी वनमाला के सामने खोल दिया। प्रियहरि ने कहा - ''मेरे पास कहने को अब कुछ नहीं है। वनमाला पर मेरा विश्वास है। ये जो भी कहती हैं, उसे मेरी तरफ से भी सच मान लिया जाय। इनकी सारी शिकायतें आप मान लें और मुझे जो चाहे सजा दें। मैं ही झूठा और दोषी हूँ।''
नलिनजी हंसे। बोले - ''अरे वैसी कोई बात नहीं। मैंने सब समझ लिया है और समझा दिया है। कोई गलतफहमी अब नहीं है। आप लोग निश्चिन्त रूप से मिल-जुलकर काम कीजिए।''
भीड़ में कुछ और नजर आती वनमाला प्रियहरि के पहुंचते ही तब मानो पच्च्याताप और लज्जाशील नारी के संकोच की मुद्रा में थी। उसके ठीक बगल वह बैठ गया था। वनमाला कुछ न बोली। दोनों संकोच में गड़े जा रहे चुप थे। दोनों को लग रहा था कि कहीं कुछ गलती उन्होंने खुद ही की है, जिसका पछतावा लिये इस तरह वे यहां बैठे हैं। बाद में नलिनजी से ही प्रियहरि को मालूम हुआ कि उस सुबह विपुल ने ही उनसे शिकायत की थी कि रात में प्रियहरि ने मैडम को फोन कर - करके परेशान कर डाला था। प्रियहरि समझ गया कि उसका दीवानगी से भरा क्षोभ, उसका अवसाद वनमाला को भयभीत कर गया होगा कि कहीं उसका प्रियहरि सचमुच कुछ कर न बैठे। इसीलिए वनमाला ने शायद विपुल को गवाह बनाने की गरज से रात या सुबह अपने भय और फोन की बात बता दी होगी।
नलिनजी ने बताया कि वनमाला को बुलाकर उन्होंने फोन के मामले में खुलासा करने कहा था। वनमाला ने जवाब दिया था कि उनके - मेरे बीच जब यहां की बात साफ हो गई थी तो प्रियहरि ने रात में उसे फोन क्यों किया? नलिनजी के अनुसार वनमाला को उससे कोई शिकायत नहीं थी। नलिनजी के यह पूछने पर कि क्या फोन पर कोई गलत या आपत्तिजनक बातें की गई थीं, वनमाला ने कहा था कि आपत्ति-जनक कुछ न था। केवल यह कि बार-बार अफसोस जाहिर कर रहे थे और नाम नहीं कटवाने पर अपनी सफाई दे रहे थे। रहस्य की बात जो नलिनजी ने उजागर की, वह यह थी कि वनमाला रो रही थी। उसका कहना था कि प्रियहरि जब फोन करते हैं तो मेरे घर में पति को संदेह होता है कि मेरा इनसे प्रेम है और फोन पर मैं इनसे प्यार की बातें करती हूँ। उसने बताया था कि - ''मेरे पति शक्की हैं और मुझ पर व्यंग्य करते है । इसीलिए घर में मेरी मुसीबत हो जाती है। नलिनजी के सामने अंततः वनमाला ने प्रियहरि की आंखों में झांक कर यह कबूल किया था कि - '' मुझे इनसे कोई शिकायत नहीं है । बस इनसे इतना कह दीजिए कि फोन करें तो समय देखकर किया करें।''
नलिनजी वहां मौजूद जरूर थे लेकिन वनमाला जैसे यह बात उनसे नहीं प्रियहरि से कह रही हो। प्रियहरि को पास पाकर वह संकुचित थी लेकिन उसकी आंखें अफसोस भरी शिकायत से भरी हुई थीं। प्रियहरि का भी मन उस आत्मीय साथ में हल्का हो चला था। फिर भी मन ही मन वह सोच रहा था कि वनमाला दिल से चाहे जितनी साफ हो, संबंधों में विश्वसनीय नहीं है। घबराहट में वह आपा खो बैठती है और ''नहीं बताने की बातें'' उजागर कर जाती है। उसका मन बाद में निर्मल हो जाता है। वह अपने किये पर पछताती है। लेकिन उन दूसरे लोगों का क्या जो उसके गुस्से को नफरत में बदलने की चाहत रखते हैं ? वनमाला प्रियहरि की आंखों में यह सारा कुछ पढ़ रही थी। सारी पीड़ा के बावजूद प्रियहरि का मन वनमाला की वफादारी और तारीफ से भी भर उठा था।

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