एक आदिम भय का कुबूलनामा - PART - II

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A saga of play in intensive love and lust.
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एक आदिम भय का कुबूलनामा
( उपन्यास)
DEHRAG: CARNAL MELODY

(A Story of Passions In Play of Love and Lust)


BY - उन्मय

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Death is not the greatest loss in life
The greatest loss is what dies inside us while we live.

- Norman Cousins

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होली की आंच और बसन्त की बयार

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यह भी एक पृथ्वी है/जिस पर वह फिरती है/बर्फ की या कांच की?/स्मृति किसमें हिलती है?
–यह आकांक्षा समय नहीं/गगन गिल. 1997–98


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प्रेम आसान नहीं है,
उसमें इतनी निराशाएं होती रही हैं,
फिर भी वही एक उम्मीद है,
वही आग है,
वही लौ है,
वही अर्थ की दहलीज है ।
(–आसान नहीं/अशोक वाजपेयी/उम्मीद का दूसरा नाम/पृ. ३२)


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दर-असल हम जिसे प्रेम कहते हैं, वह किसी दूसरे व्यक्ति के साथ होता है
- उस दूसरे व्यक्ति के साथ जुड़ी अपनी परछाईं से.
हम उसके पास मोहाविष्ट से डोलते रहते हैं - ( जया जादवानी)


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ALFRED TENNYSON:
I hold it true, whate'er befall;
I feel it, when I sorrow most;
'Tis better to have loved and lost
Than never to have loved at all.
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The Eskimos have 52 words for snow because it is so special to them; there ought to be as many for love!
-Margaret Atwood


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बेचैन आदम उस नये जीव की तलाश में अपनी यात्रा पर था जिसे खुदा ने उसके शरीर से जुदा कर रच रखा था। बिना उसके वह अधूरा था।

रचती है
प्रेम की परिभाषा
सदियों से जिन्दगी
काल के अनंत बियाबान में

क्या वह भी नियति है
किसी अनंत के मन की ? - मौलिक

प्रियहरि भाग रहा था और भागता ही चला जा रहा था। लेकिन वह जितना ज्यादा भागता स्मृतियां और और करीब आ जा रही थीं। स्मृतियों से राहत पाने भटकता प्रियहरि ऊटकमंड के इस होटल के छज्जे की खिड़की पर हाथ टिकाए पर्वतों की चोटी पर जमे कोहरे की उस खूबसूरती को इस वक्त निहारना चाहता था. वह समूची वादी को समेटे उस एक सांवली औरत के चेहरे में तब्दील होती जा रहा थी जिसे वह भुलाना चाहता था। रात वह सो नहीं सका था। उसे नहीं मालूम कि वह अलस्सुबह की चिलकती ठंड थी या उसके अंदर बह रही लू का असर जिससे वह कांप रहा था। जिन पहाड़ी चोटियों पर उसकी निगाह थी, वे जैसे उसकी अपनी खुद की खोपड़ी में तब्दील हो चली थीं। अपनी सघनता से पर्वत-शिखरों को बोझिल करते बादलों के धुंध की तरह स्मृतियां उसपर छाई जा रही थीं। यह चित्त में गहराता धुंध था जिसमे सामने खड़े पर्वत खोए जा रहे थे। उनकी जगह एक चेहरा था, जो समूची वादी में फैलता प्रियहरि को उन्हीं भयावह अंधेरों में खींच रहा था, जिनसे वह निकल भागने के उपक्रम में भटकता रहा आया है। उसका चित्त अविराम तेजगति बह रहा था । उसके पास पहेलियां ही पहेलियां थीं। रहस्य से भरी पहेलियां, जो सुलझने का नाम ही नही लेती थीं । जितना वह सोचता उतना अधिक वे उलझाये जा रही थीं। उसके पांव स्थिर थे, शरीर जड़, लेकिन चित्त था कि सोचता चला जा रहा था।
यह औरत कौन थी ? इससे प्रियहरि का क्या संबंध था ? सिवाय दुख और अपार पीड़ा के प्रियहरि को उसने कुछ नहीं दिया। इतना-इतना कि पीड़ा के अंधकार में धकेलकर निरंतर उसे कुचलने, उसके प्राण लेने वह उद्यत रही। उद्यत मात्र नही रही, शायद सफल भी हो गई है। वह जानती थी कि वह प्रियहरि के प्राण ले रही है, लेकिन इतने पर भी उसे चैन कहां था ? प्रियहरि की हर पीड़ा, उसकी हर करुणा इस औरत को और प्रमुदित करती थी, जैसे उसका सारा सुख इसी में निहित हो। अपने रहस्यमय व्यक्तित्व और व्यवहार की तरह चीजों को हमेशा उसने जटिल बनाए रखा। प्रियहरि ने जितना सुलझाने की कोशिश की उतना वह और उलझता गया। वह कौन थी ? उसने वैसा क्यों किया ? सारा कुछ प्रियहरि के लिए एक अनबूझ पहेली रहा आयेगा। अगर ऐसा कोई स्तूप आप ढूंढ पाएं जिसमें सब कुछ प्रचंडता से भरा हो - प्रचण्ड अहंकार, प्रचण्ड ईर्ष्या, प्रचण्ड अपमान, उपेक्षा की भावना और इन सब के अलावा भी प्रचण्डता में बहुत कुछ जिसका वर्णन मुश्किल है तो वह उसी की काया हो सकती है। नाम तो था वनमाला, लेकिन वनमाला नही वह वनज्वाला की तरह थी।
स्त्री के विषय में आदिकाल से ही जितनी कोमल बातें कही गई हैं, जैसा स्वभाव बताया गया है, जो कुछ कल्पनाएं की जाती हैं वे प्रियहरि को अब झूठ लगती हैं। जो यथार्थ है उसका उसका शतांश भी लोग नही जान पाते। बाहर से जो देखा और जाना जाता है वह कितना झूठ होता है इसका अनुभव प्रियहरि अब कुछ ही कर सकता है। स्त्री को जिस रूप में लोग देखते हैं , वह उसका अन-उजागर रूप ही हुआ करता है। कुछ ऐसा ही जैसा किसी फूल की खूबसूरती को देखकर कोई यह नहीं जान सकता कि वह कितना विषैला और मारक है। उसकी गंध, उसका स्पर्श, उसका स्वाद किसी के प्राण भी ले सकता है।
यह जानते हुए भी कि वह स्त्री प्राणहारिणी है निपट क्रूर, प्रियहरि का ध्यान वनमाला पर ही टिका हुआ है। वह उसी को याद कर रहा है। याद एक भीषण दुःस्वप्न की, जिसमें प्रियहरि का सारा कुछ खो गया है। सारा कुछ यानी शान्ति, चैन, सुख, दुनियादारी, घर, प्रतिभा, जिन्दगी का सब कुछ। हो सकता है जिसे लोग प्यार करते हैं यह उस किस्म का यह अनुभव हो। लेकिन अब जी नही मानता। पहले प्रियहरि भ्रमित था, लेकिन यह शब्द उसे प्रसंग-बाहर प्रतीत होता है। वह कुछ भी हो सकता था लेकिन प्यार नहीं था। प्रियहरि को शुरू में ही जानना चाहिए था कि क्या अब तक भी उसे वह जान सका है ? अब अगर इसे प्यार कहा भी जाए तो वह प्रियहरि के लिए वनमाला को उसकी संपूर्ण रहस्यमयता के साथ जान लेने की जिज्ञासा मात्र से अधिक क्या था ?
प्रियहरि सोच में बहा जा रहा था। वह दुर्भाग्य ही था कि जितना अधिक उसने वनमाला को जानने की कोशिश की, उतना ही अधिक वह अपने को रहस्य के अवगुंठनों में छिपाती चली गई। अपने अभिनय से सारा कुछ वही रचती , ताकि प्रियहरि उसके पीछे और भागता चला आए। पूछने के लिए एक पल भी प्रियहरि को नहीं दिया उसने। मौके आते तो उसे उलझाकर, दरम्यानी पलों में रहस्य का और इजाफा करती वह मुस्कुराती निकल भागती। उसके गंभीर द्वंदग्रस्त चेहरे पर तैरती कुटिल मुस्कान में ऐसे वक्त प्रियहरि के लिए अघोषित संवाद यह हुआ करता कि 'मै तो चली, अब इसे भी हल करो।' सारी पहेलियों का साकार पुंज बनी वनमाला उसे उलझाए छोड़ जाती थी। यह एक अजीब चक्कर था जिसमें प्रियहरि की नियति भटकने की थी और नियति- नटी थी वनमाला, जिसके लिए प्रियहरि का भटकाव मनोरंजन मात्र की एक आनंदमयी क्रीड़ा थी ।
बार-बार के अनुभवों से तंग आकर उस दिन भी प्रियहरि मायूस अपने एकान्त में बैठा था । उसे ठीक-ठीक याद नहीं कि उस दिन और लोग आए थे या नहीं । ऐसा भी हो सकता है कि इक्का- दुक्का आकर बाहर अपने कामों में व्यस्त हो गए हों । कभी आलमारी खोलता, कभी फाइलों के बीच कागज पलटता प्रियहरि वहां पसरे मौन को काट रहा था । केवल वनमाला ही थी जो वहां बैठी रह गई थी । कहते हैं कि दूध का जला छाछ को भी फूंक-फूंक कर पीता है । वनमाला के मूड से प्रियहरि इन दिनों भयभीत रहता था । बात करो तो मुश्किल , न करो तो मुश्किल । गंभीर, बीमार चेहरा वनमाला भी उसी की तरह पर्स खोलती बंद करती, रजिस्टर पलटती बैठी तो थी लेकिन अन्यमनस्कता ही थी, जो उससे वह करा रही थी । दोनों ओर से बर्फ जमी थी । वनमाला से खिन्न प्रियहरि और वनमाला के बीच की चुप्पी से भरा वातावरण इन दोनों के पशोपेश को पढ़ रहा था। लेकिन बर्फ थी कि अपनी जगह अपनी अकड़ में थी । ऐसे माहौल में जहां प्रियहरि और वनमाला संयोग से अकेलेपन में साथ पड़ जाएं, दोनों के चित्त की धुकधुकी माहौल में जैसे पसर जाती हो ।
ठीक इसी माहौल में नीलांजना का प्रवेश हुआ । नीलांजना और वनमाला में बहुत फर्क है । ठीक वैसा जैसे जमीन और आसमान का फर्क हो । नीलांजना को प्यार में हरि ने नीलिमा, लीला नाम दिया हुआ था । लीला नाम भास्कराचार्य की विदुषी, गणितज्ञा कन्या लीलावती के नाम पर था । हां लीलावती वैसी ही रही होगी । नीलांजना सी शांत, सौम्य, विनम्र, उदारता से भरा प्यारा चौकोर चेहरा, पिंडलियों के नीचे तक झूलती लंबी काली चोटी, अनधिक गुराई का वैभव और सहज संकोच से भरी नतमस्तिका । यह विनम्र संकोच उसके सुंदर व्यक्तित्व का अंतरंग आभूषण था । नीलांजना का अतिरिक्त आकर्षण सरल दृष्टि लिए मासूमियत भरी उसकी खूबसूरत आंखों में था। उनमें चमकती गहरी काली पुतलियां अथाह शांत सागर की तरह मनमोहक थीं। नीलांजना जानती थी कि प्रियहरि की आंखें अक्सर उन पुतलियों में डूब जाया करती थीं । वह खुद उन आंखों का डूबना देखती और डूबती आंखों को निहारती प्रियहरि की आंखों की भाषा को पढ़ने की चेष्टा करती थी । आंखें चुराना उसकी आदत न थी ।
जहां कहीं भी परिदृश्य में अपने होने पर भय, तनाव, विवाद की आशंका हो, ऐसे अवसरों को टालती नीलांजना प्रतिक्रियाविहीन बनाए रखकर अपने अस्तित्व को सिकोड़ लेती थी । यह उसका स्वभाव था । वह नाक की सीध में चलता और जहां अवसर हो वहीं खुलता था । नीलांजना और वनमाला दो विपरीत ध्रुव थीं । वनमाला की नाक पर गुस्सा चढ़ा रहता था । उसे मनाने थक-हार जाना होता था । वह अपने आप ठंडी होती पछताती और प्रियहरि के पास आती थी । उसके बरअक्स हरिणी सी खूबसूरत आंखों वाली मासूम नीलांजना थी कि जिसके झगड़ने, नाराज होने और जिसे मनाने के अवसर जोहता प्रियहरि का मन तरस-तरस जाता था । कई बार प्रियहरि ने अपनी यह तमन्ना जाहिर की भी कि कभी तो नीलांजना उससे झगड़ा करे ताकि उसके चांद से मुखड़े को नई मुद्रा में निहारता उसकी गोरी सुडौल जंघाओं पर सर रख उसकी लटों से खेलता, गालों को सहलाता प्रियहरि उस रूठी को मनाए । लेकिन नहीं, नीलांजना बड़ी मासूमियत से प्रियहरि को जवाब देती - ''क्यों ? मैं आपसे भला क्यों झगड़ा करूं ? आपसे मुझे कोई शिकायत है ही नहीं । जिन्हें हो, उन्हें हो । आप ऐसा कुछ करते ही नहीं कि जिससे मैं झगड़ा करूं ?''
यह अगर तपती गर्मी में भी मन को राहत देती शीतल मंद बयार की एक लहर थी, तो वह ठंडे मौसम में भी अनायास आ धमकी प्रचंड लू का झोंका थी । नीलांजना का सान्निध्य प्रियहरि को अगर सारे तनावों से आत्मीय राहत देता था तो वनमाला का सामना उपस्थि़ति मात्र से उदास आशंका, बेचैनी और तनाव का माहौल रच देता था । नीलांजना की जुबान जितनी सरल और मीठी थी, वनमाला अपनी जुबान से उतनी ही कड़वी और कुटिल हुआ करती थी ।
प्रियहरि के संबंध दोनों से थे । प्यार की कुंडली से लक्षण मिलाएं तो मोहब्बत के संबंध प्रियहरि और नीलांजना के बीच सहज ही सधने वाले थे । पर वैसा क्यों कर होता ? होनी तो होनी ही है । मामला यह था कि प्रियहरि का दिल तपती गर्मी, प्रचंड लू का झोंका, अदृश्य भय, तनाव, बेचैनी और कुटिल, कड़वी जुबान की मुहर वाली वनमाला पर ही आसना था । यह और भी विचित्र था कि खुद वनमाला की निगाह में प्रियहरि जैसा भी रहा हो ,मरती वह प्रियहरि के प्यार पर थी । वनमाला के लिए प्रियहरि प्यार के उस सजीव पुतले की तरह था जिससे खेलने, जिसे तोड़ने या मिटा डालने का हक केवल उसका था । किसी भी औरत जात का उस पुतले को छूना तो दूर, उस पर निगाह डालना तक वनमाला को सखत नापसन्द था । किसी औरत का वनमाला से टकराना अपने लिए खुद मुसीबत को दावत देने जैसा था ।
नीलांजना उर्फ नीला उस वक्त फुरसत निकालकर आई थी । प्रियहरि से उसने कहा - 'चलिए अभी मैं फुरसत में हूँ । सुबह का समय अच्छा है । अपना जो काम पड़ा है उसे निबटा लेते हैं'
'तुम्हें समय है?'- प्रियहरि ने पूछा ।
'हां इसीलिए तो आई हूँ । कोई काम पड़ा रहे मुझे अच्छा नहीं लगता । आप को तो कहीं जाना नहीं है न ।'
प्रियहरि ने चाबियां नीलांजना को सौंप दी । आलमारी पीछे ही थी । नीला ने फाइलें निकाली, कागज फैलाए और प्रियहरि से पूछती बात करती काम में व्यस्त हो गई । काम तो प्रियहरि भी नीला के साथ कर रहा था, लेकिन अन्यमनस्कता रही आने से दिल न लग रहा था । प्रियहरि और नीला दोनों मुंडियां जोड़े अगल-बगल बैठे टेबिल पर झुके थे । रस्मी बातें हो रही थीं ,लेकिन वनमाला की उपस्थिति के बोझ ने जुबानों की सहज स्वतंत्रता छीन ली थी ।
मूडी वनमाला जिसने अरसे से उस तरह प्रियहरि के साथ बैठना बंद कर दिया था ,बड़े गौर से प्रियहरि और नीलांजना को लक्ष्य कर रही थी - यूं कि देखते भी देखना दिखाई न पड़े । उसकी आंखों में एक तरह की व्यंग्य भरी शिकायत ने तैरना शुरू कर दिया था । उसके चेहरे पर अचानक कई हाव-भाव एक साथ आ और जा रहे थे । प्रियहरि ने गौर किया कि साथ बैठी नीलांजना का मन भी इसे महसूस कर रहा था । दोनों के बीच की तरंगें इधर से उधर संक्रमित हो रही थीं । अपना काम करते हुए भी नीलांजना और प्रियहरि उस निस्तब्धता में एक अदृश्य संकोच से भरे हुए थे । बातों में सामने पड़े काम को रखते हुए भी ऐसी भयावह संकोच की छाया थी जैसे वे चोरी कर रहे हों और निगाहों से वे देखे जा रहे हों ।
दूर बैठी वनमाला के होठों पर एक तरह की मुस्कान उभरने लगी थी । अब वह स्तब्ध, बोझिल एकांत उसके धैर्य से बाहर होने लगा था । वह देख रही थी कि कुर्सियों में सटे बैठे नीलांजना और प्रियहरि के सिर तल्लीनता से झुके हुए हैं । दोनों की वाणियां बुदबुदाने के लहजे में एक दूसरे से संवादरत थीं । दोनों की आंखें कागजों पर फिसलती कोण बनाती एक-दूसरे से टकरा रही थीं । दोनों उसे देखकर भी अनदेखा कर रहे थे जैसे वनमाला की उपस्थिति का अहसास ही उन्हें न हो ।
अचानक एक स्वर लहराया - ''मे आई डिस्टर्ब यू सर ?''
आखिर वही हुआ जिसका भय उन्हें सालता है। वे दोनो चुप्पी में सिहर गए। नीलांजना की मासूम आंखें प्रियहरि की आँखों से टकराईं। वे मानों पूछ रही हों कि यह क्या होने जा रहा है ? उन्होंने पाया कि अपनी पुस्तक और पर्स उठाये वनमाला उनकी तरफ देख रही है जैसे इसी की प्रतीक्षा में वह हो। वह अपनी जगह खड़ी थी और कुटिल मुस्कान में तैरता उसका ''डिस्टर्ब'' अनायास प्रियहरि और नीलांजना को विचलित कर रहा था। वनमाला अपना समान समेटे चलकर उन दोनो की कुर्सियों के सामने आकर ठिठक गई। उसने नीलान्जना से कहा -
''माफ करना मैडम, मैने आप लोगों को डिस्टर्ब किया।''
प्रियहरि की ओर मुखातिब हो इसने कहा -''आपको मालूम है न कि मेरी तनखाह का पुराना मामला रुका हुआ है।'' इस बार आप कमेटी मे हैं इसलिए कह रही हूं। मेरा काम भी आप इस बार कर देंगे क्या ? अभी हो जाएगा तो हो जाएगा, अन्यथा तो कोई उम्मीद नही है।''
प्रियहरि का मन वनमाला के ''आप दोनो'' के उच्चारण की भंगिमा से कांप उठा था। वनमाला ने उसे जैसे चोरी करते पकड़ लिया हो। उसने काम बताकर एक साथ ही अपने दो-तीन काम निपटा दिए थे। मासूम आवाज में निहायत मीठेपन से उच्चरित वनमाला के ''डिस्टर्ब'' के मायने क्या हैं ,यह प्रियहरि भी समझता था, और नीलान्जना भी समझ रही थी। एक अदृश्य घबराहट से इस जोड़े का मन भयभीत हो गया। वनमाला खुद ही कटी-कटी रहती है। बात करो तो काटती है। सबके सामने यूं बर्ताव करती है जैसे प्रियहरि से उसका लेना-देना नही। इस तरह कि मानो केवल प्रियहरि ही उसके पीछे पड़ा है। मायूसी और अवसाद के घेरे में प्रियहरि को वह खुद ठेल कर धकेल जाती है । और अब उसका यह व्यंग्य ! प्रियहरि के लिए वनमाला को समझना मुश्किल है। लेकिन फिर बस इतना ही उसका ऐसा मरहम प्रियहरि को मेमना बना जाता है। उसे जवाब दिया -
''मैने तो कभी मना नहीं किया। बस आप एक चिट्‌ठी उस मामले पर विचार करने के लिए अपने अफसर से मार्क करा दें फिर मै देख लूंगा।''
वनमाला के साथ का ''तुम'' उसकी खुद बनाई दूरी में प्रियहरि के लिए भी ''आप'' हो जाता था। इस बारे में दो-चार औपचारिक बातें प्रियहरि और वनमाला के बीच हुईं और चेहरे पर छाई अपनी उदास मासूमियत के साथ वनमाला चली गई। जिसे तिलांजलि देने पर संकल्प प्रियहरि ने बार-बार किया है, उसे कंपाते वह चली गई। इस कंपन को क्या नीलांजना ने नहीं देखा ? प्रियहरि ने चाहा कि नीलांजना उसे बचा ले लेकिन नीलांजना खुद भाग जाना चाहती है। क्यों, वनमाला का इतना आतंक क्यों ? हां, कहीं मन मे कोई चोर था। प्रियहरि नहीं जानता कि वनमाला कैसा महसूस करती थी? लेकिन उसे यह स्वीकार करने में कोई हिचक नही कि वनमाला उसे बेहद प्रिय थी। जीनत नहीं जाती तो शायद तकदीर की वे दुर्घटनाएं उजागर नही हुई होतीं, जो बाद में उसके और वनमाला के बीच इतिहास बनाकर चली गईं।
अदन के बाग का निषिद्ध फल चखने की अब यही सजा थी। बेचैन आदम उस नये जीव की तलाश में अपनी यात्रा पर था जिसे खुदा ने उसके शरीर से जुदा कर रच रखा था। बिना उसके वह अधूरा था।

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जीनत


चम्पक के फूल में अगर गुलाब की आभा भर दी जाए तो वह जीनत का रंग होगा।

अगर किसी स्त्री के बारे में सोच-सोच कर हृदय, बुद्धि, संस्कृति और कला की सारी खूबसूरती इकट्‌ठी कर ली जाएं तो उन सब का मेल जीनत ही हो सकती थी। यूं नही कि दुनिया में वह अकेली ही ऐसी होगी, मगर यह कि प्रियहरि के अनुभवों का ताल्लुक जहां तक था, वहां तक जीनत को ही उसने वैसा पाया।
जीनत को उसने कभी नाराज होता नहीं देखा। यदा-कदा वैसे अवसर आये भी हों तो वह व्यक्तिगत शिकायत जैसी बातों में ही आए रहे होंगे। जीनत से प्रियहरि की बात होती और सारी गलतफहमियां दूर हो जातीं। जीनत का हदय निर्मल था। वह बला की खुबसूरत थी। अण्डाकार चेहरे को आप अगर जरा सुतवां ढाल में देखें तो वह जीनत का चेहरा बनेगा। चम्पक के फूल में अगर गुलाब की आभा भर दी जाए तो वह जीनत का रंग होगा। नाप तौलकर बनी समानुपातिक अंगो के साथ लहराती उसकी छरहरी काया को देखकर किसी कोमल मरूलता की कल्पना जागती थी, जिसमें आंखों को उजला बना देने वाली सुन्दरता और हृदय को शीतलता प्रदान करने वाली सहजता थी। प्रियहरि ने कभी उसे यत्नपूर्वक सज्जा के भड़कीले वस्त्रों और प्रसाधनों में नहीं देखा। जीनत के अन्दर ही ऐसा कुछ था कि वस्त्रों का उसका चुनाव बड़ा सलीकेदार होता। सलवार और कुर्ती के अपने आम पहनावे में वह फबती थी, लेकिन जब कभी वह हल्की कढ़ाई वाली बादामी या दूध सी झक्क सफेद साड़ी पहनती, जीनत साक्षात सुन्दरता की कल्पित यूनानी देवी वीनस दिखाई पड़ती थी। चाल-ढाल कपड़ों, बातों, व्यवहार, कामकाज - किसी में कभी कोई बनावटी अतिरंजना उसमे प्रियहरि ने नहीं देखी। उसके अन्दर और बाहर के सहज सन्तुलन ने ऐसी खूबसूरती उसे दी थी कि उसकी झलक मात्र तनाव भरे वातावरण को खुशनुमा रंगीनियत में बदल देती थी। उसके बारीक गुलाबी होंठो पर फैली तबस्सुम, मृगी सी शीतल स्निग्ध दृष्टि वाली उसकी बोलती आंखें जिनमें बिना काजल के कजराई थी, उसकी नजाकत से तरासी गई देह-यष्टि की और इन सब में धार चढ़ाती उसकी जुकामियां पुटवाली सेक्सी स्वर लहरी जिस पर बड़े सलीके से स्पष्ट उच्चारण के साथ अपनी नर्माहट और चिकनाई में भाषा खेलती थी। सब इतने सम्मोहक कि कोई भी जीनत के जादुई आकर्षण से अछूता नहीं रह सकता था। विषय चाहे उसका साइंस हो, लेकिन कला और सुन्दरता की साक्षात प्रतिमा वह थी। इतनी उजली कि छूने की कल्पना में भी यह भय होता कि कहीं जीनत मैली न हो जाए। प्रियहरि नहीं जानता कि ईश्वर किसे कहते हैं ? लेकिन यह जानता है कि कुदरत ने जी भरकर इतनी खूबसूरती जीनत को दी थी कि हर कोई उस पर मर मिटे। ईरानी कला और सुन्दरता की भरपूर झलक जीनत में थी। सौंदर्य-बोध, अभिरूचियों, और प्रतिभा का उसमें अदभुत तालमेल था। साहित्य संस्कृति, कला,दर्शन, भावना, संवेदना की अदभुत सूझ और प्रतिभा जीनत में थी। औरों की तरह प्रियहरि ने कभी कल्पना न की थी कि जीनत उसकी पहुंच में आ भी सकती है। साधारण मुलाकातें, हंसना, बोलना और माहौल को खुशनुमा खूबसूरती से भर देने वाली जीनत की सहज अदायें - यही थे जिन्हे पाकर वह प्रसन्न था। क्या वैसा हो सकता था ? लेकिन वैसा हुआ।

प्रियहरि ने वनमाला को उस साल जुलाई के पहले हफ्‌ते में तब देखा था जब वह नई-नई वहां आई थी। साथ में उसका आदमी और कंधे पर चिपका हुआ एक नन्हा सा बच्चा। निहायत साधारण शक्लो-सूरत वाला खुरदुरी काया का सांवला पुरुष और निहायत घरू साड़ी में लिपटी खुले सांवली रंगत की उसकी पत्नी। उसकी रस्मी बातचीत और अन्दाज़ अधिक दिलचस्पी न होने पर भी प्रियहरि को दिलचस्प लगे थे।
उस समय कामकाज के बोझ में बुरी तरह दबा होने के कारण इस वनमाला से प्रियहरि का संबंध वैसा ही था जैसा साधारण कर्मियों के साथ हुआ करता था। बाद के सालों में झंझटों से तंग आकर उसने विचित्र परिस्थितियों में बड़ी जिम्मेदारियां खुद ही छोड़ दी थीं। इसी दौरान वनमाला से उसका परिचय बढ़ा था। कुछ समान बातें थी जो उन्हें एक-दूसरे से जोड़ती थीं। दोनो ही एकान्तिक स्वभाव के थे। आसपास की संगत और वातावरण न तो वनमाला को प्रभावित करते थे, और न प्रियहरि को। घर से वनमाला उदासीन और बेजान लगती थी। ऐसा ही कुछ हाल प्रियहरि के साथ भी था। दोनों को ही गम्भीरता और सूत्रात्मक बातों से लगाव था। गप्पीपन से दोनों को नफरत थी। वनमाला चाहे एकदम साधारण और उपेक्षणिया रही हो लेकिन शुरू से ही उसमें गजब का आत्माभिमान था। लोग-बाग उसकी अकड़ का मजाक उड़ाया करते थे। अगर किसी ने उससे सहानुभूति दिखाई, तो वह प्रियहरि ही था। प्रियहरि से वह अक्सर कहा करती थी 'न मुझे फालतू बातें पसंद हैं, और न फालतू लोग।' सारी चीजों के बावजूद पुराना और अपने क्षेत्र में जाना-माना मेधावी होने के कारण प्रियहरि का अपना मान था। उसकी हैसियत बहुत ऊंची थी। इसके ठीक उल्टे वनमाला की उन दिनों न तो कोई पूछ-परख थी, न ही उसमे किसी की कोई दिलचस्पी थी। ऐसे में सुबह के माहौल में एक-दूसरे के करीब आते प्रियहरि और वनमाला ने एक दूसरे को जाना। तब पहली बार प्रियहरि ने यह महसूस करना शुरू किया कि अपने आप में कुंठित और उदास दिखाई पड़ने वाली यह औरत, जो काम निबटाकर आपने मर्द की आज्ञाकारिता और बच्चे की चिंता के दबाव में जल्दी भागने को उद्‌यत रहती है, उतनी साधारण नहीं है, जितनी लोग उसे समझते थे। थी तो वह श्यामा बंगाल की, लेकिन उसकी भाषा, लिखावट और चीजों की समझ हिन्दी में ऐसी थी कि इस इलाके में पैदा हुए लोगों में नही देखी जाती। आपसी समझ और प्रसंशा का बढ़ता संबंध कभी उसके प्रति मारक चाहत और लगाव में बदल सकता है, इसकी कल्पना भी प्रियहरि को नहीं थी।
तब इर्द-गिर्द उसके होने के बावजूद कुछ ऐसे संबंध थे जिनका ज्यादा असर प्रियहरि पर था। खास कर खूबसूरत तरासी हुई देह-यष्टि के साथ नफासत की समझ, संस्कृति, बुद्धि, और भावना वाली जीनत की उपस्थिति वहां ऐसी थी, जिसके सामने किसी और औरत का व्यक्तित्व कहीं ठहर ही नहीं सकता था। साहित्य की अपनी समझ और कविता की रोमानियत जैसी हृदय वाली जीनत तब प्रियहरि के बहुत ज्यादा करीब आ रही थी। सारे लोगों के होते हुए भी प्रियहरि पर जीनत का खास लगाव था। जीनत उसके साथ धूप में अकसर बैठ जाती और कविता पर, जिन्दगी पर, उसके फलसफे पर चन्द लमहों में ही सही, तसल्लीबख्श बातें हो जाती थीं। प्रियहरि ने कविताएं लिखी थीं और लगातार लिख रहा था। उसके लेख रिसालों में छपते और इन सब पर जीनत से बहुत बारीक बातें होतीं। प्रियहरि की तब-तक की कविताएं जीनत ने मांगकर कर पढ़ ली थीं। इधर छिपाकर संकोच से पहली बार सौंपी गयीं जीनत की कविताएं प्रियहरि ने पढ़ ली थीं। प्रियहरि की कविताओं में छिपा रोमांस जीनत को अच्छा लगता था। उर्दू की एक लम्बी नज़्म जिसमें मोहब्बत की तड़प और विरह की पीड़ा थी, उसे खूब पसंद आयी थी। अंग्रेजी और हिन्दी में लिखे प्रकृति के कुछ बिम्बों की उसने तारीफ की थी। जीनत को इस बात का अहसास था कि उस पर जान देने वालों में प्रियहरि भी है। उससे आगे भी यह कि उस अहसास के बावजूद वह प्रियहरि के क्रमश: ज्यादा निकट आती गई थी। जब भी मौका मिलता और तीसरा बीच में न होता दरबार हाल में या जीनत के कमरे में दोनो इस तरह एक दूसरे प्रति चाहत भरी प्रशंसा से बतियाते कि जैसे बरसों से उनका परिचय और कुदरती संबंध हो। यह एक ऐसा सहज आकर्षण था, जो पूरी औरत और पूरे आदमी के बीच अपनी आकांक्षाओं में परस्पर होता है। ये संबंध शायद और रंग लाते अगर जीनत तबादले पर कहीं और न चली गई होती।

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