एक आदिम भय का कुबूलनामा - PART - II

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प्रियहरि ने सोचा यूं तो वनमाला उखड़ी-उखड़ी रहती है, बात तक करने से बेरुखी, हमेशा जड़ें खोदती है इसलिए भला क्यों मैं इस बेरुख उपहार से अपने को उपकृत करूं ? उसके लिए वनमाला के प्यार और संबंध की कामना इन औपचारिकताओं से अधिक थी । बाद में फिर शायद इनमें बातें हुई हों । प्राचार्य की पहल पर प्रयास यह हुआ कि बाकायदा उनकी उपस्थिति में ही प्रियहरि को वह सम्मान दिया जाए । वनमाला अपनी आलमारी से एक पैकेट निकाल ले आई थी । पीछे उसका विभागीय सहयोगी रहा था । वनमाला ने उपहार प्रियहरि को सौंपने अपने हाथ आगे बढ़ाये । प्रियहरि के मन में कटु स्मृतियां थी । यह वही चेहरा था जो उसे अपमानित करने में आनंद उठाता था । प्रियहरि ने मना कर दिया ।
उसने वनमाला से कहा -'' मैने अपना काम किया । मुझे पुरस्कार की कोई जरूरत नहीं । पुरस्कार से बड़ी चीज सद्‌भावना है । वह बनी रहे यही बहुत है ।''
विराग ने ठीक इसी वक्त वहां प्रवेश किया था। वनमाला के जाने के बाद जब उसने प्रियहरि को अकेला पाया तो कहा - '' वनमाला जैसी है, वैसी है । पर आप ने अच्छा नहीं किया । आप से सरोकार कुछ तो होगा, जो वनमाला आप की परवाह करती है ? लोक के भय से वह यूं ही अपने में सहमी-सिमटी होती है। अब जब वह यूं खुली तो आप ने आग्रह टाल औरों के सामने उसे यह बतलाने बेइज्जत कर दिया कि आप को उससे कोई मतलब नहीं । अपना अहंकार तो आप ने प्रदर्शित कर दिया पर अब जरा यह भी सोचियेगा कि वनमाला को भला आप के व्यवहार से कैसा लगा होगा ?


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जलती हैं, साली सब झूठी हैं

''आप के पास आना मुश्किल है । कोई है ही नहीं । अकेले बैठे हैं, इसलिए आ गई । सोचा चलो बात करूं ।'' नेहा ने कहा ।
दुख के क्षणो में मरहम का काम करती नेहा की प्यारी आवाज को मैं सुन रहा था


मुझे नहीं मालूम कि वनमाला को कैसा लगा होगा ? मैं जानता था कि उसे मुझे प्रसन्न करने ही सामने किया गया था, लेकिन वैसी प्रसन्नता किस काम की थी, जिसके पीछे मन का मैल छिपा हो । मुझे अपने निर्णय पर कोई पश्चाताप न था ।
इन सब के बावजूद वनमाला और मेरा साथ हमारी चाहत भी थी और मजबूरी भी । पास रहकर भी दूर अनबोले रहे आते लेकिन जब भीड़ से परे और बाधारहित होते तब बात करने के बहाने और काम के मौके निकल आते थे । न जाने क्यों पास रहकर भी एक अदृश्य तनाव, भय हमारे बीच छाया रहता कि कब यह निकटता बाधित हो जाएगी और न जाने फिर कब बैठने, बात करने का मौका मिलेगा। सारा कुछ अनिश्चित होता जा रहा था । प्रियहरि का मन खुला था । वह करुणा और असहायता की पीड़ा से ग्रस्त रहता । प्रियहरि हमेशा वनमाला के उदास घबराए, पशोपेश भरे मन में झांकने की कोशिश करता पूछना चाहता कि आखिर उसका मन इतना रहस्यमय क्यों लेकिन जब यत्नपूर्वक हमारे बीच ऐसे क्षण विकसित होते, समय और भीड़ दस्तक देने लगती और हमें काम छोड़कर अलग होने की विवशता आ जाती । क्या वह मेरी अतिशय दयनीयता और समर्पित दीवानगी थी जो दुनियादारी की चिंताओं से ग्रसित और भयभीत वनमाला को मुझसे विरक्त कर रही थी ? वक्त बेवक्त वह यूं ताने देती और व्यंग्य करती जैसे जितनी भी गलतियॉं हैं, मेरी ही हैं। दुर्दशा के हालात मेरे थे, चिताएं मेरी थीं, वनमाला तो अपनी छबि को साफ रखने औरों पर अपना रुतबा बरकरार रखने निकल पड़ती थी । होना यह चाहिये था कि तब मैं अलग-थलग पड़ जाता और वह लोकप्रिय नायिका की तरह स्वीकार की जाती, लेकिन नहीं । वैसा नहीं हो रहा था । वनमाला का प्रदर्शन उसकी छबि को और खराब करता रहा । दुचित्ता, सनकी, झगड़ालू काम-टालू और अहंकारी औरत के रूप में ही उसकी पहचान बनती गई । इस बार युवा-उत्सव के साहित्यिक सांस्कृतिक कार्य क्रम में उसे कलाकार छैला के रूप में लोकप्रिय कानन और अनुराधा के साथ रखा गया था । कलाकार कानन अपने बाहर के नाम, मान-सम्मानस, पैसे की उम्मीद में संस्था के कामों को तुच्छ और बटुकीय समझता था । वह काम इन पर टाल देता और राजाबाबू की तरह पेश आता था । कॉलेज में उसकी यह वृत्ति आम थी । परीक्षाओं में वह कमरे में घूमने-फिरने और जिम्मेदारियॉं निभाने की बजाय घंटों इस-उस कमरे या बाहर गप्पें लड़ाने में बिताता और साथी महिला या पुरुष खीझकर उसे कोसता रहता । फाइलें और कागज इधर से उधर खिसकते और युवा उत्सव धरा रह गया । ऐसे में जब तलब होती तो तीनों दोष एक-दूसरे पर डालते ।
स्टाफ में रचनात्मक रुझान और योग्यता वाले ऐसे ही न थे । जो दो चार थे, उनमें मैं ही ऐसा था जो हाथ में लिए काम पर दिन-रात मेहनत करता और कराता बेहतर और अनोखे ढंग से संपन्न करने की कोशिश करता । मुझमें ऐसा आत्मविश्वास और बड़प्पन था कि सारा काम खुद कर डालता, लेकिन श्रेय अपने साथियों नीलांजना, वनमाला या और कोई भी हो को देता था । साथी की यह भावना और वृत्ति अन्य में दुर्लभ थी । मुझे आश्चर्य है कि वैसा होने औरविशेषत:वनमाला को आगे बढ़ाने और उसकी तरक्की की प्रेरणा और कामना के बावजूद वह मुझे ही रौंदना चाहती थी । इसके विपरीत काम हो न हो, भाड़ में जाए की वृत्ति के साथ मजा लेने वाले चित्रकार व्यास को वे अपने वश में न कर पाती थीं । मौका मिलने पर भी वनमाला उसे मनाने के जतन करती थी । अपना सूजा मुंह और खीझ लिए बस कागज पलटाती और नोटिस निकलती नजर आती । काम जब न हुआ तो वनमाला ने चित्रकार व्यास पर आरोप मढ़ दिया कि सारे कागज फाइल वे धरे रहते थे, जिम्मेदारी उनकी थी पर काम नहीं किया । उधर चित्रकार व्यास कहता कि मैंने सब समझाया, किया, दिया । पर खुद ही ये अयोग्य थी तो क्या करती । अनुराधा के पीठ पीछे वनमाला खुन्नस निकालती कहती कि ये तो कॉलेज से गायब रहती हैं । कभी एकाध घंटे सूरत दिखी, बातें की और फिर इसका पता नहीं कब खिसक लेती है। वनमाला का आरोप होता कि छात्र-छात्राओं को खुद वह प्रेरित करती है और अनुराधा कुछ नहीं करती । इधर अनुराधा कहती कि वनमाला झूठ बोलती है । वनमाला को कुछ आता-जाता नहीं है, जबकि वह खुद दिन-दिन भर कॉलेज के बाहर में छात्रों के घर नृत्य का रिहर्सल कराती रही है ।
वनमाला का जवाब होता - '' साली झूठ बोलती है । मैने लड़कों-लड़कियों से पूछा है । न कहीं गई थी और न कुछ कराया है। ''
वहां क्या चल रहा था इसे मैं मौन देखता । मैं चाहता तो मदद कर सकता था, लेकिन नहीं वह मेरा क्षेत्र नहीं था । मुझे केवल वनमाला की दयनीयता पर तरस आता कि देखो, मैं तो उसे इतना महत्व देता हूं, उससे मेरे निजी संबंध हैं, उस पर जान देता हूं और जब भी हम मिलते हैं पूरी अन्तरंग लय के साथ । एक दूसरे में चित्त और हृदय से ऐसा काम करते हैं, जो दूसरों से संभव न हो, लेकिन यह वनमाला है कि वह शुभचिन्तक और प्रिय की अवमानना करती झगड़ा करती है और बाहर शुभचिन्तक ढूंढ़ती फिरती है । वनमाला खुद भी ठोकरें खाने के बाद इसे महसूस करती । नियति की मार कि जहाज के पंछी की तरह ठिकाना उसका फिर मेरे पास ही हो जाना था । एकांत के क्षणों में ही दिलों की जलन निकलती थी । हर हालत में मै वनमाला का पक्षधर ही होता था ।
वनमाला के विवादास्पद और चिड़चिड़े चेहरे के बरअक्स मैं सदैव निर्विवाद और विनम्र सहयोगी पूरे स्टाफ के बीच बना रहा । नीलांजना, मंजरी, रीमा, नई विभगीय लड़कियां सब की सब वनमाला की आलोचक थीं । उससे बात करना ही किसी को भी पसंद न था । उल्टे जब सुबह आने वाली नई महिलाएं मुझसे बातें करती प्रभावित होती निकट आती दीखतीं तो वनमाला की नाक और चढ़ जाती थी । न जाने उसके अंदर क्या था कि कोई उसे पूछता ना था और जो एक मैं उसके अंदर छिपी-दबी-लाचार वनमाला से प्यार करता था, उसे उसकी संभावनाओं तक पहुँचाने के स्वप्न देखता, उससे वह घमंड भरी जब-तब खराब तरह से पेश आती । बल्कि वैसा नहीं, अपने को पेश आता दिखाती प्रचारित करती थी । उसे समझना मुश्किल था कि वह क्या है ।
इस बार भी कालेज की पत्रिका का काम मुझे और वनमाला को ही दे दिया गया था। अपनी हताशा के कारण या किसी और झगड़े के बाद व्यंग्य, शिकायत, रूठना और मनाना छोटे-छोटे क्षणों में हम दोनों के बीच चलता रहा था । अक्सर मैं उसे घर में फोन कर बैठता। दोनो की उपस्थिति के परम एकांत में कभी आंखों की भाषा में, और कभी मौन के जुबान की भाषा में हमारी बातें होतीं।
औरतों की ईर्ष्या की परवाह वनमाला को कम थी। वह उन्हे तुच्छ और उपेक्षणीय समझती थी । इसीलिए औरतों में भी हमारे पीठ पीछे वनमाला की बिला-वजह अकड़ और उस जैसी उपेक्षणीया के प्रति मेरी दीवानगी को लेकर चर्चाएं चला करती थीं । वनमाला उनके परवाह के दायरे से बाहर थी। चिन्ता उन्हें मेरी हुआ करती जो वनमाला के चक्कर में व्यर्थ ही उससे पिसा जा रहा था। कुछ महिला-साथी स्पष्टतः कह भी जाती थीं । जैसे रीमा ने एक बार मुंह बिचकाकर कहा था कि इन बंगालियों से तो बच के ही रहना चाहिए । टोना-टोटका करती हैं । आप तो उसके चक्कर में मत पड़िए । शायद मेरे फोन से उत्पन्न घर के झगड़े या फिर संस्था में अपवाद के चर्चे वनमाला के मन में मेरे लिये उसकी खीझ और नफरत के कारण रहे होंगे । वनमाला को रूठा छोड़कर मेरा बाकी सब महिलाओं के साथ उठना बैठना भी शायद उसके भड़कने और भड़काए जाने का कारण रहा होगा । दुविधा के ऐसे ही अनबोले क्षणों में एक दिन मैं और वनमाला अकेले-अकेले बैठे थे । हमें नेहा ने उस तरह अनबोला उदास देख लिया था। एकांत में उसी हालत में छोड़ वह लौटने को उद्यत हुई, तो वनमाला उस खास दिन तुरंत उठ खड़ी हुई और साथ हो ली । दोनों महिलाओं की जैसी मुद्रा थी, उसने मुझे आहत किया । बेचारगी की निगाह से मुझे अकेला और उदास छोड़ वे चली गई थीं।
दूसरे दिन नेहा मौका निकाल मेरे पास घुस आई । तब मै संभवत कार्यालय-प्रमुख के चार्ज मे था और प्रिसिंपल के चेम्बर में बैठा था । गोरी-चिट्‌टी, नेहा अपने भरे-चौड़े चेहरे पर लहराते काले घने बाल और अपनी चंचल अदाओं के साथ चहकती उस वक्त मुझे लुभा रही थी । उसे पहली बार तब मैंने निकटता मे पाया था जब वह शुरू में आई-आई ही थी । मुझसे छोटी कद काठी थी पर संभाले न जाने वाले भारी नितंब को धारण किए उसकी जंघाएं पुष्ट थीं । वक्ष जबरदस्त विशाल, रस भरे, और नुकीली चूचियाँ छाती से बाहर आने को थी । अंदर जाती मेरी रस भरी आंख से जब आंखें टकराईं तो मेरे अंदर का कुछ उसमें भी बहने लगा था ।
उस दिन नेहा से मैने जब कहा- ''आह, आज तो तुम्हारी खूबसूरती मारे डाल रही है,'' तब उसने मेरी आंखों में झांकते कुछ लज्जा और ढ़ेर सी प्रसन्नता से चमकते चेहरे के साथ दोनों बाहें पीछे कर, छातियों को उभार ऐसी अंगडाई ली थी कि उसके आमंत्रण को तुरन्त स्वीकारने की चाहत जाग गई थी । नेहा बिन्दास थी और उन खुली जवानियों में थी, जिनसे मैं बेझिझक बतिया सकता था। वनमाला की याद दिला नेहा अपनी चंचलता में मुझे बहुत छेड़ा करती थी । वनमाला की चुगली करने में औरतों को संकोच होता था । उन्हे भय बना रहता था कि उनकी चुगली मेरे और वनमाला के अन्तरंग क्षणों में जिससे उन्हें स्पृहा थी, प्रकट न कर दी जाए । नेहा बिंदास और बेपरवाह थी। उसे किसी का भय नहीं था। नेहा ने बताया कि कल भी वह मेरे साथ बतियाने के मूड में आई थी लेकिन वनमाला को वहां पहले से मौजूद पा वह बैठने में संकोच कर गई थी। यह अलग बात थी कि वनमाला देवी उसके औपचारिक ''चलो न'' की दावत पर खुद ही उठकर तब उसके साथ चिपकी चली गई थीं।
''आप के पास आना मुश्किल है । कोई है ही नहीं । अकेले बैठे हैं, इसलिए आ गई । सोचा चलो बात करूं ।'' नेहा ने कहा ।
दुख के क्षणो में मरहम का काम करती नेहा की प्यारी आवाज को मैं सुन रहा था और उसके खूबसूरत चेहरे पर चमकती बड़ी काली आंखों में झांक रहा था । नेहा और मेरे बीच और वही क्यों, अन्य-स्त्रियों के साथ भी ऐसे क्षण सुलभ थे । नेहा तो नेहा ही थी। मुझसे दोस्त की तरह ज्यादा खुली हुई थी ।
''सुनाइये क्या हाल चाल है । आप तो हमेशा गंभीर और उदास लगते हैं न जाने कहां देखते रहते हैं । क्या सोचते रहते हैं । आना चाहती हूं लेकिन डर लगता है झिझकती हूं कि आप कुछ कह न दें।''
''प्यारी नेहा, तुम तो यार ताने न दो । मैने तो तुम्हें कभी रोका नहीं है । हमेशा करीब रही हो फिर काहे की झिझक ।''
''अरे आप नहीं जानते यहां कितने और कैसे-कैसे जलनखोर हैं ।'' चुप्पी के बाद नेहा ने फिर कहा- ''चलिए कुछ सुनाइये । क्या चल रहा है, क्या सोच रहे हैं । मेरे सामने तो आप इस कदर गंभीर न रहा कीजिये ।''
मैं उदास और अन्यमनस्क था । मेरी यही मुद्रा सामने वाले को मुझमें घुसने प्रेरित करती थी । बात करने की बात पर मैने कहा - ''मैं तो अकेला हूं, अलग-थलग रहता हूं । न जाने लोग क्या-क्या सोचते होंगे, बुराई करते होंगे ।'' एकदम व्यक्तिगत पर आकर मैने कह डाला-तुम्हीं बताओ मै तुम्हे कैसा लगता हूं, मै कितना अच्छा या बुरा हूं । आज मैं अपनी बुराइयां सुनना चाहता हूं । तुम्हारी ओर से कोई बात कहने को न हो तो यही कह डालो ।''
नेहा ने बड़ी अदा से चंचल आंखे मटकाते हुए लाड़ में कहा -''आप से बातें तो बहुत सी करना चाहती हूं लेकिन डर लगता है आप न जाने क्या समझें ?''
मैने नेहा को उकेरा ''कहो ना यार । जब मैने कह दिया तो क्यों नखरा करती हो । तुम्हारा मन खुला है, मेरे नजदीक हो इसलिए तो तुमसे कहा है। और तुम हो कि ऊँ-उूं की अदा से टाले जा रही हो ।'' उसने आश्वासन लिया कि मैं किसी से कहूंगा तो नहीं फिर हंसते हुए संकोच से कहा-''आप को मालूम है कि आप के पास अकेले बैठने से औरतें कतराती क्यों है ?''
मेरा चित्त वनमाला में डूबा था । मैं कह उठा-''शायद कुछ लोग भड़काते हों, या शायद इसलिए कि किसी को जलन होती हो कि मेरा अपना दूसरों के साथ क्यों बैठता बात करता है ।''
टोहने पर नेहा ने खुलासा किया-''कल जब मैं वनमाला को स्टाफ-रूम से अपने साथ बुलाकर ले गई तो वनमाला ने मुझे अन्य औरतों नीलांजना, अनुराधा वगैरह की उपस्थिति में धन्यवाद देते हुए कहा कि
''अच्छा किया रे तू मुझको वहां से उठा लाई । वहां बैठने से मुझे घुटन होती है । न जाने क्या-क्या बातें वो शुरू कर देते हैं ।''
नेहा ने बताया कि ''हां में हां मिलाती अनुराधा ने भी कहा था कि हां उनमें ये आदत तो हे, कभी-कभी ऐसा करने लगते हैं ।''
नेहा की सूचना से मैं स्तब्ध रह गया । मैने पूछा । ''तुम्हारा क्या कहना है ?'' नेहा ने कहा ''नहीं मेरे साथ ऐसी कोई बात नहीं । वैसा होता तो मैं आपके पास आती क्यों ?''
जिज्ञासावश बाद में नीलांजना से भी मैंने आत्मीय क्षणों में उस प्रसंग की टोह ली । उसने कहा –
''रहने दीजिए, सब जानते हैं कि वनमाला कैसी है । उसकी मत पूछिये उसकी तो आदत ही वैसी है ।
यह उसी वनमाला का उल्लेख था, जो बार-बार ''बाई गाड'' कह गला छूती मुझे यह आश्वस्त करती थी कि आप तो किसी की बातों पर न जाया कीजिये । जलती हैं, साली सब झूठी हैं ।
सच और झूठ के बीच वक्त गुजरता जा रहा था । वनमाला का मन वनमाला ही जान सकती थी। सहानुभूति बटोरने और अपने को बेदाग, बुद्धिमती, सुशीला सिद्ध करने की सारी चेष्टाओं के बाबजूद वह अलग-थलग ही की जाती रही । यूथ फेस्टिवल की जिम्मेदारियों के मामले में पारस्पिरिक आरोप-प्रत्यारोपों में अकर्मण्यता को लेकर कलाकार व्यास और अनुराधा वनमाला से खिन्न थे । दीगर औरतों से उसकी बोलबाल न के बराबर थी । पुरानी संगिनियों में एकाध को छोड़कर किसी ने भी शायद ही वनमाला की तारीफ की हो । उलटे इस दौरान मुझे फांसकर कभी अपना पुराना वेतन प्रकरण खुलवाने के बहाने पास मेरे निकट आ जाने और कभी मुझे औरों के हितों से काटते दूर कर रखने की वनमाला की मुहिम पर लोग उससे चिढ़ते थे ।

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'' काम करूंगी तो मैं इन्हीं के साथ, अन्यथा नहीं करूंगी ।
ये मेरे साथ रहें तो दुनिया का कोई काम नहीं जो मेरे लिए असंभव हो ।''


भोलाबाबू तो थे नहीं और सालाना जलसे के दिन पास थे । विश्वसनीय जानकर प्राचार्य ने मुझे उसकी योजना बनाने और काम करने अधिकृत कर दिया और वनमाला की रजामंदी से उसे कार्यक्रम प्रभारी बनाकर मुझसे जोड़ दिया। एक-दूसरे से चोट खाए होने के बाबजूद भी प्रियहरि और वनमाला को एक-दूसरे का सहारा था । मैं अपनी खुद की कमजोरी का मारा था ।
वनमाला से मैने कहा था- ''तुम मेरे साथ रहो । हम ऐसा काम करेंगे कि तुम्हारे सारे आलोचकों के मुंह बंद हो जाएं ।''
स्टाफ के रवैये से खीझी और अपने को अलग-थलग कर दिया महसूस करती वनमाला ने खुद भी प्राचार्य से कहा- '' काम करूंगी तो मैं इन्हीं के साथ, अन्यथा नहीं करूंगी । मुझे कोई नहीं चाहिए । ये मेरे साथ रहें तो दुनिया का कोई काम नहीं जो मेरे लिए असंभव हो ।'' वनमाला और मेरे बीच पहले ही एकान्तिक क्षणों में तय हो गया था कि काम करंगे तो हम दोनों साथ, अन्यथा करेंगे ही नहीं । हमने योजनाएं बनाई, सूचनाएं निकाली । विराग अधिकृत तौर पर छात्रसंघ का सहायक अधिकारी था । उसने देखा कि वनमाला को आगे किया जा रहा है तो बेहद नाराज हुआ ।
स्टाफ के और और लोगों की भी प्रतिक्रियाएं सुनने मिलीं । कलाकार व्यास और अनुराधा व्यवहारिक कामकाज और आयोजन में ज्यादा कुशल और निपुण थे । उन्होंने साफा तौर पर कह दिया कि वनमाला की हैसियत क्या थी कि उसके फरमान पर कोई काम करे ? अंततः हुआ यह कि मैं तो वरिष्ठ सलाहकार, योजनाकारों में शामिल हो गया और वनमाला को दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल बाहर कर सामान्य सहायकों के कामकाज उसे सौंपे जाने लगे ।
सब कुछ हो गया । कार्यक्रम संपन्न हुए । वनमाला अवमानित रही । रंगमंच पर कब्जा अनुराधा और कलाकार व्यास का रहा जिन्हें वाहवाही मिली । वनमाला परदे के पीछे कलाकार लड़कों-लड़कियों को व्यवस्थित करने के काम में धकेल दी गई थी ।
भले ही वे शब्द, वह कौल खीझ और हताशा में निकले हों वनमाला मुझे इन शब्दों की स्मृति में कि- ''ये अगर मेरा साथ दें तो मुझे किसी की जरूरत नहीं, दुनिया का कोई भी काम मेरे लिए असंभव नहीं'' हमेशा याद रही आई ।''
वे दिन और महीने वनमाला के साथ यूं ही बीते । अंदर क्या था जो उसे बेचैन हुए रहता था ? उसकी गहरी उदासी और अन्यमनस्कता का रहस्य क्या था ? उसकी सूनी आंखों में कौन सी शिकायत थी ? वे क्या कहना चाहती थीं ? क्यों वह नाराज होती और खीझती मुझसे बेरुख हो जाती थी ? क्यों वह उन्माद-ग्रस्त हो मुझसे झगड़ती और भला-बुरा कहती थी ? और क्यों अचानक मेरी पीड़ा को सहलाती वह मेरे दिल के एकदम करीब आ जाती थी ? इसका रहस्य हमेशा मुझमें रहस्य ही बना रहा आएगा । मैं समझ नहीं पाता कि उन दिनों जो हुआ और आगे होता रहा, उसे मैं वनमाला रूपी रहस्य का प्रकट होना मानूं या उसे और अधिक गहराना, अबूझ होना जानूं ।


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खोजी निगाहें

फिर सिर झुकाए धीरे से वह आगे बोली -
''आप को तो कोई कुछ कहता नहीं । लोगों को हमारा साथ-उठना बैठना बुरा लगता है ।''

पिछली सफलता से उत्साहित इस बार भी कालेज की पत्रिका का भार मुझ पर और वनमाला पर ही डाल दिया गया था । अपनी हताशा के कारण या किसी और वजह से खिन्न मन मैने प्रिंसपल से कहा था- मैं अब ऊब गया हूं । इतना प्रेरित प्रोत्साहित कर श्रेय वनमाला को देता हूं और वह कि ड्रामा करती नजर आती है । मैने और नाम सुझा दिये थे नीलांजना, चित्रकार व्यास, वनमाला, वगैरह । उन्होंने कहा था- ''छोड़िए सब को, आप दोनों ही बने रहिए क्यों बीच में सब को लाते हो ।''
मेरी दुविधा पर उन्होंने कहा - ''चलिए ठीक है। आप चाहते हैं तो रख लीजिए औरों को, पर आप को तो रहना ही है । चाहकर भी नीलांजना का नाम हटाकर मैने कामथ का रख दिया क्यों कि वनमाला नीलांजना के नाम से ही चिढ़ती थी वनमाला, उसका चहेता चित्रकार, और कामथ । मैने सोचा कि वह उस चित्रकार पर रुझान रखती है, करेंगे दोनों । लेकिन नहीं, वनमाला ऐसी थी कि उसकी उससे पटती ही न थी । चित्रकार की आंख अनुराधा पर रहती थी । उसके पीछे वह वैसे ही दुम हिलाता था, जैसा वनमाला के पीछे मैं ।
अनुराधा बद्‌तमीजी से तो पेश नहीं आती थी, लेकिन यदा-कदा कलाकार पर खीझती थी । कहती- ''वो बेकार हैं सर, कुछ कामधाम करते नहीं । घूमते रहते हैं और दूसरों पर रौब गॉंठते हैं ।''
कुछ भी हो टीम बनी । बातें यदा-कदा काम पर सभी से होतीं । मार्गदर्शन मैं सभी का करता, लेकिन वनमाला पहले की तरह ही नखरों के बाबजूद आत्मीय करीब रही थी, हालॉंकि पिछले सालों सा माहौल अब नहीं रहा था । मैं भी भरोसा उसी का करता था । उसके फेरामोन्स मुझे लुभाते थे । काम चलता रहा, लेकिन ना-ना करके झगड़ा हो ही गया । प्रतियोगिता में जो निबंध आए थे, उनमें पहले नंबर का लेख अंग्रेजी में था । मैने वनमाला से कह दिया कि वही उसे हिन्दी में संक्षेप में लिखे । जहां अनुवाद न बने या दीगर कठिनाई हो, मैं साथ बैठ लूंगा । वनमाला उसके लिये तैयार न हुई।
''मुझसे अकेले यह काम भला कैसे हो पाएगा ? मेरी अंग्रेजी उतनी अच्छी नहीं है। हम साथ बैठेंगे। आप अनुवाद करते हिन्दी में बोलते चलिए मैं लिखती हूं ।''-वनमाला बोली।
दो-चार रोज वैसा हुआ । कभी स्टाफ रूम में, कभी कहीं हम घंटे-दो घंटे बैठते देखे गए । जब तक खोजी ईर्ष्यालु निगाहें न होतीं काम चलता रहता, लेकिन ज्यों ही खोजी निगाहों वाले आते वनमाला असहज हो संकोच में पड़ती खीझ पड़ती ।
''मुझसे नहीं होता यह भारी काम । किसी और को पकड़ लीजिए या आप खुद कर सकते हैं कर डालिए ।'' - आखिर एक दिन वनमाला ने कह ही दिया।
मेरे सामने तो कोई कुछ न कहता लेकिन बाद में अवश्य उसे मेरे साथ को लेकर ताने दिये जाते रहे होंगे। मैं समझ रहा था कि वनमाला की खीझ इन दिनों के दरम्यान बिचकाए गए उसके मन की है । वनमाला ने कह दिया कि मेरा ही होना जरूरी क्यों हो ? किसी और को साथ बिठाकर आप अनुवाद लिखा दीजिये। बहुत बाद में मुझे इसका आभास हुआ कि वनमाला के उस तरह मेरे साथ होने पर उसे उसका वह विभागीय सहकर्मी चिढ़ता और ताने देता था जिसे जाने या अनजाने वनमाला ने अपने करीब आ जाने का मौका दिया था। वनमाला की मनमर्जी वाले सुझाव मुझे अवमानित करने वाले थे। अधीनस्थ और कमतर होती भी वह मानों मुझे निर्देशित कर रही थी। मैं भी नाराज हो उठा।
दो टूक शब्दों में वनमाला से मैंने कहा- ''ठीक है तुम नहीं करना चाहतीं तो मैं भी नहीं करने का। रही तीसरे की बात, तो समझ लो कि कोई तीसरा नहीं बैठेगा । विषय तुम्हारा है, जिम्मेदारी तुम्हारी है । मैं बैठूंगा तो तुम्हारे लिए और तुम्हारे साथ ही ।''
वहां और-और दो-चार लोग थे । जैसे इशारों से शिकायत की हो, वनमाला ने दिलचस्पी से तमाशा देखते वहां खड़े अपने विभाग के एक खास चतुर साथी की ओर अर्थपूर्ण नजरों से ताकते कहा -
''देखा न ? देख लीजिए । मेरे बिना इनका काम हो ही नहीं सकता । बड़ी अजीब बात है ।''
मैने कागज वहीं छोड़े, उठा, और बाहर यह कहता निकल गया कि तुम जानो और तुम्हारा काम जाने । सारी जिम्मेदारियाँ मेरी ही नहीं हैं । बड़े साहब के सामने हम बैठे और इस समस्या पर बात चली ।
इस जगह आकर वनमाला का असली स्वर खुला । वह बोली -''वहां अटपटा लगता है । स्टाफ रूम में सब अपने काज-काम करते बैठते हैं। लोग न जाने कैसा तकते बैठते हैं । वहां डिस्टर्ब होता है और मैं थक जाती हूं ।''
जाहिर है कि वनमाला का मन मुझे चाहने के बावजूद औरों से डरता था । वह न उन्हें नाराज करना चाहती थी, न मुझे । यहां जो उसने कहा उससे यह बात प्रकट हो गई थी ।
डॉ. नलिन ने हॅंसते हुए कहा ''कोई बात नहीं, यहां बैठ जाया कीजिए मेरे कमरे में । यहां कोई परेशानी नहीं है ।''
दूसरे दिन हम सुबह-सुबह कार्यालय शुरू होने से पहले से कार्य करने बैठे । उस दिन मैने वनमाला से कहा -''तुम्हे जो कहना है साफ क्यों नहीं कहती मुझसे। तुमने जिस तरह इशारेबाजों से मुझे कल चिढ़ाने की कोशिश की वह क्या हमारे संबंधों के बीच ठीक था ।''