एक आदिम भय का कुबूलनामा - PART - II

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वनमाला फोन पर जवाब देती एक दम मुझपर बरस पड़ी-'' बेकार फोन क्यों किया ? मैं कुछ सुनना नहीं चाहती पुरुषों से मित्रता में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं '',वगैरह ।
कालेज आती तो मेरे खीझे हुए मायूस चेहरे को उसकी आंखें शिकायत से घूरतीं । तुम ऐसी मूर्खता क्यों करते हो ? मेरे लिए मुसीबत क्यों खड़ी करते हो, मुझसे दूर क्यों नहीं हो जाते ? फिर दो-चार रोज में चीजें सामान्य हो जाती । संबंध यूं हो जाते कि जैसे कुछ हुआ ही न था ।

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नीलांजना ने फोन उठाया । कहा कि वनमाला मैडम आप को पूछ रही हैं, आप बात कीजिए ।
उस दिन मन में क्षीण सी इच्छा जागने पर भी मैने वनमाला से बात नहीं की ।

मेरी आकांक्षा थी कि वनमाला की कविता की शक्ल में बसी यादें मैं उसे सौंप दूं ताकि हमेशा वह याद रखे कि मैं उससे कितना प्यार करता हूं और उसने मुझे कितना तरसाया है । संग्रह तैयार हो छप चुका था उसका विमोचन विधिवत्‌ होना था । कालेज से बाहर जाकर मन बहले यह सोचकर रिसर्च के एक विशेष प्रोजेक्ट के बहाने इलाहाबाद जाने का मैने जुगाड़ कर किया था । इसलिए संकल्पपूर्वक मैं सुबह कालेज पहुंचा । ज्यों ही मिला, मैने वनमाला को कविताओं की वह पुस्तक सौंप दी । मैने उसे बता दिया कि यह तुम्हारी ही पुस्तक है- तुम्हारे लिए, जिसमें तुम ही हो । यह कि उसका विमाचन पहले मूलतः वह कच्ची पुस्तक के रूप में कर चुकी है और यह कि विधिवत विमोचन बाद में होगा । मैने उससे कहा कि यह मेरे प्यार का उपहार है । उसके नाम कविताओं की पहली प्रति है, जो सब से पहले मैं उसे ही अर्पित कर रहा हूं। पुस्तक में मैने चाहने के बाबजूद भेंट और प्यार के शब्द जानबूझकर नहीं लिखे थे क्यों कि तब उसे घर में पता चलने पर परेशा नी हो सकती थी । भूमिका सहित सारा कुछ ऐसे संकेतों में व्यक्त था जिसे वनमाला बखूबी समझती थी । हमारी आंखें मिलीं । उसके होठ खिले और एक झलक देखकर खुशी-खुशी वनमाला ने मेरा संग्रह अपने बड़े पर्स के हवाले कर दिया । उस दिन वह खुश थी । मैं अक्सर बड़े साहब की जगह प्रशासन के चार्ज में रहा करता था । शायद उस दिन भी ऐसा ही था । दो मिनट बाद भोला ने प्रवेश किया था । वनमाला ने एकाध वाक्य में उससे कामकाजी बात की होगी, लेकिन भोला को टालकर वह फिर बहानों से मुझसे बातों में मुखातिब हो गई थी । उसकी खुशी, उसके खिले चेहरे, उसके तृप्त मन से मैं रोमांचित भी था और दुखी भी । देर तक मैं सोचता रहा कि वनमाला के किस रूप पर मैं मुग्ध होऊँ और किस रूप पर दुखी ।
वनमाला के साथ प्यार और विग्रह, रूठने और मनाने का खेल बाधाओं के बावजूद चलता रहा था। फिर भी न जाने क्यों वनमाला का खिंचाव, उसका अप्रत्याशित चिड़चिड़ापन मुझमें मलाल पैदा कर रहा था। मेरे सारे गुणों, सारी अभिरुचियॉं, घरू संस्कारों के अकृत्रिम बीज उसी में हैं और वही मेरी संगिनी हो सकती है । फिर भी जब वह खुलकर सामने नहीं आ रही है, साथ देने तैयार नहीं होती तो क्यों न मैं भी उससे दूर रह अपनी पीड़ाओं से मुक्ति पा लूं ? मैं अक्सर सोचा करता कि प्यास मुझे उनकी ओर खींचती थी, लेकिन वनमाला हमेशा बीच में आ जाती थी । हम दोनों के भावनात्मक संबंध लगभग वैसे ही बन चले थे जैसे पति और पत्नी के होते हैं । हम सब- कुछ करेंगे- एक-दूसरे से नफरत, प्यार, झगड़ा, रूठना, मनाना लेकिन एक दूसरे पर अधिकार नहीं छोड़ेंगे, फिर चाहे कोई और कितने ही बीच में क्यों न आ जाएं । यह एक विचित्र बंधन था जो हमें बांधे था और जिसने हमेशा बांधे रखा था ।

संयोगवश उस खास अवसर पर मैं फिर प्रशासन के चार्ज में था जब की यह बात है । दूसरे दिन भादों के शुक्ल पक्ष की तीज का त्यौहार था। नीलांजना उस वक्त मेरे पास ठंडी बयार का सुख देती खड़ी थी । वनमाला का साथ जहां हमेशा उत्तेजना और बेचैनी छोड़ जाता था, वही नीलांजना का पास होना ओस की उन शीतल बूंदों का अहसास जगाता था जो दिल और दिमाग को राहत देती थी । नीलांजना से मेरा कभी पल भर के लिए भी मन मुटाव न हुआ । ऐसी बाल-सुलभ सरलता, ऐसा सहज खुलापन कि भावना और प्रेम के देखे-अदेखे संदेश भरी बातों के बावजूद कभी न उसे, और न मुझे यह अहसास हो पाता था कि हम एक-दूसरे को आकर्षित करने की चेष्टा में लगे हैं । इतनी सहज और अकृत्रिम चाहत जिसमें तनाव का कोसों दूर तक काम न था । हमने फोन पर न जाने जब-तब कितनी कैसी और कितनी देर तक बातें की होंगी । आटो रिक्शा में साथ-साथ चिपके बातें करते दूरियां तय की होंगी । भीड़ भारी बस की बोनट पर साथ चिपके और बतियाते रहे, कालेज में साथ बैठे घंटों काम किया, लेकिन हमेशा दिल और दिमाग को राहत देने वाली तसल्ली वहां हुआ करती थी । इसके विपरीत जिसे मैं दिल में बसाए था वह वनमाला प्रिया हमेशा न जाने क्यों मुझे केवल परेशान करती थी । वनमाला के मन को कभी मैं ठीक-ठीक नहीं पढ सका। उसे नीलांजना से भयंकर चिढ़ थी । पसंद तो वह किसी का भी मेरे पास फटकना नहीं करती थी लेकिन नीलांजना का मेरे साथ होना उसके लिए बर्दाश्त से बाहर था ।
उस दिन मेरे चैम्बर में भीड़-भाड़ नहीं थी । नीलांजना और मैं सहज नाम-मनुहार भरी बातें कर रहे थे । नीलांजना की बातों में ऐसी कशिश होती इतना सहज मनुहार होता कि अधिकार जैसा झगड़ा गायब हुआ करता था । उसका अनुरोध मैं या मेरा अनुरोध वह मान जाए या दिक्कतों के कारण नहीं माना जाए, तब भी ऐसी तसल्ली से चीजें खत्म होती कि न तो मैं रूठता था और न वह । अचानक फोन की घंटी बजी । नीलांजना से मैने कहा कि तुम ही फोन उठा लो । नीलांजना ने फोन उठाया । कहा कि वनमाला मैडम आप को पूछ रही हैं, आप बात कीजिए । उस दिन मन में क्षीण सी इच्छा जागने पर भी मैने वनमाला से बात नहीं की । मेरे मन ने कहा कि यूं सामान्य भी बात करना चाहूं तो सब के बीच वनमाला मुझे अनसुना कर देती है और अब फोन पर बात करने की अचानक सहज पहल ? मैने आश्चर्य प्रकट करते यह बात नीलांजना से साफ-साफ उजागर कर भी दी । उससे कहा कि तुम्हीं पूछ लो क्या बात है । नीलांजना के चेहरे पर झिझक आई । लेकिन मेरे इशारे पर उसी ने बात की । नीलांजना ने बताया कि वे पूछ रही है कि कल छुट्‌टी दे रहे हैं क्या ? उस समय बेरुखी दिखाता जवाब देना भी मैं टाल गया । मेरे मन को यह अनुभव कर राहत मिली कि मेरे निकट नीलांजना की कल्पना कर और मेरी तरफ से उसे फोन पर सुनकर जरुर वनमाला को ईर्ष्या हुई होगी । उसे यह अहसास होना चाहिए कि मैं उतना उपेक्षणीय नहीं हूं जितना वह समझती है । यह कि वनमाला नहीं तो क्या उसके अलावा मेरे साथ के लिए और भी हैं । वह अवसर इसका भी था कि नीलांजना पर यह प्रकट हो जाए कि वनमाला से मैं उतना बंधा नहीं हूं जैसा उसे लगता होगा ।
वनमाला के इरादे मेरे मन में न जाने क्यों संदेह भर रहे थे । मैं तब अक्सर सोचा करता और अब भी सोचता हूं कि यह कैसा खेल था, जिसमें एक दूसरे पर अधिकार की दावेदारी तो थी- लेकिन वह दावेदारी मेरी ओर से जहां प्यार और मनुहार में प्रकट होती थी, वहां वनमाला थी कि हमेशा विग्रह, रोष और ईर्ष्या से मुझे चोट पहुंचाकर तसल्ली पाती प्रकट करती थी । स्टाफ के बीच हमेशा मुझसे तो वह अबोली रहती , लेकिन सेवकों से प्रोफेसरों तक सभी से बातचीत में सहज और निर्द्वन्द हुआ करती थी ? वह इस तरह हुआ करता कि मेरे लिए उसकी प्रकट उपेक्षा और मुझसे संबंधों में उसकी कड़वाहट सारी भीड़ की नजरों में रही आती थी । संबंधों में मेधा में, विचारों और भावनाओं में वह सब से करीब मेरे थी, लेकिन मेरे सामने आकर खड़ी होती और छोटी-छोटी बात पर राय किसी और से लेती थी । मकसद ऐसा दिखाई पड़ता जैसे वह जानबूझकर लोगों पर प्रकट करना चाहती है कि इस आदमी से मुझे नफरत है, इससे मेरा कोई संबंध नहीं है, यह मेरे लिए उपेक्षणीय है । यह विचित्र बात है कि वनमाला ने कभी न सोचा कि उसके ऐसे बर्ताव से मेरे दिलो- दिमाग पर क्या गुजरती थी । उसके लिए में खिलौना था । जब चाहा खेला, जब चाहा तोड़ दिया । इन हालातों में अक्सर मेरे मन की कड़वाहट और ईर्ष्या अचानक जाग पड़ती थी । ऐसा ही उस दिन भी हुआ था। बाधाओं के बावजूद आंखों और भावनाओं के अदेखे-देखे संकेत समझौते की जो भाषा हममें बन रही थी वह अचानक और अनचाहे मेरी गलती से मेरे और वनमाला के बीच उग्र कटुता में बदल गई थी ।


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आप को तो बस हमेशा यूं ही डर लगा रहता है

क्या वनमाला का व्यंग्य उस उपेक्षा का प्रतिशोध था
जो पिछले दिनों पर बा-रास्ते नीलांजना फोन की डोरियों से वनमाला को भेज दी थी ?

हां, उस रोज गलती मैने ही की थी । परीक्षाएं चल रही थीं । मार्च का महीना था । यदा-कदा जहां अवकाश निकले सुबह के लोगों को शाम की परीक्षाओं में बुलाने की नीति बनी थी । सुबह वनमाला की एक झलक देखने का भी अवसर भी दुष्कर था । वह सुबह आती, मैं दोपहर को बाद में पहुंचता । यूं ही ड्‌यूटियों में यदा-कदा शाम उसकी झलक देखकर भी मेरे मन को राहत पहुंचती थी । उस दिन दोपहर बाद वह आई और मुझे अनदेखा कर मेरे सहायकों से मनुहार में लग गई कि अगले दिनों में उसकी शाम की ड्‌यूटी काटकर बदल दी जाए । वनमाला लोकभय से इतना सहमती थी कि बाधा समझे जाने वाले किसी गैर के सामने मुझसे आंख तक नहीं मिलाती थी फिर बात की बात तो दूर रही । पर न जाने क्यों तब मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो चली थी ?
मैं उस वक्त परीक्षा का सर्वोपरि अधिकारी था । मुझे अनदेखा कर, अबोला रख भोला और सत्यजित के सामने गिड़ागिड़ाकर वनमाला को अपनी जगह किसी जूनियर काम-चलाऊ लड़की का नाम रख देने का आग्रह उनसे करता पाकर मेरा अहंकार जाग उठा । हां, दरअसल वह मेरी उपेक्षा ही थी । भोला और सत्यजित उसे तसल्ली देते उससे सहानुभूति दर्शाते राजी हो ही रहे थे कि मैं बरस पड़ा । नाराजगी दिखाते हुए मैने कहा कि अधीक्षक मैं हूं और आश्वासन देते सहानुभूति बटोरनेवाले, ड्‌यूटी बदलने वाले बीच के ठेकेदार अन्य बन गए हैं । सीनियर की अपनी गारिमा है ड्‌यूटी सोच समझकर लगाई गई है । तुम क्यों नहीं आ सकतीं ? मैने कहा- तुम्हारे होने का अपना महत्व है, वह लड़की तुम्हारी जगह कैसे आएगी ?
मेरे बरसने में भी वनमाला के लिए प्रशंसा का भाव कायम था, लेकिन वनमाला के मन में तो कुछ और ही था । सहायकों की आंख में झांकती व्यंग्यपूर्वक उसने मुझ पर चोट किया ''गरिमामय उपस्थिति ! अच्छा ?'' मेरी ओर लक्ष्य कर उसने कहा ''मेरी ही उपस्थिति पर लोगों का ध्यान क्यों रहता है ? औरों पर क्यों नहीं ? यहां तो हमेशा ड्‌यूटियां दसों साल से बदली जाती हैं । मेरे साथ ही नई बात क्या हो गई ?''
क्षोभ से तिलमिला कर मैने भी व्यंगयपूर्वक पलटवार किया- ''हां हैं कुछ लोग जिनके कारण ही तो सारी व्यवस्था चौपट हो गई है । वही तो तुम्हारे शुभचिन्तक और परामर्शदाता हैं, मैं तो मूर्ख ही रहा आया।''
संकेतों में बेवफाई और चालूपन का मेरा ताना वनमाला को जा लगा । उसने मेरी ओर देखा । उसकी आंखों में शिकायत और आंसू की बूंदे थी । मेरे गुस्से ने सारा माहौल खराब कर दिया था । वनमाला की उपस्थ्ति पर मेरे आग्रह का अर्थ प्रकट हो चुका था । फिर किसी ने कुछ न कहा और वनमाला उसी तरह नम आंख के साथ यह कहती चली गई कि न जाने मेरे ही मामले में ये सब बातें क्यों उठती हैं ? सारा कुछ गुजर जाने के बाद मैं यह सोचता रहा कि क्या वनमाला का व्यंग्य उस उपेक्षा का प्रतिशोध था जो पिछले दिनों पर बा-रास्ते नीलांजना फोन की डोरियों से वनमाला को भेज दी थी ?


उन गर्मियों में परीक्षा के बाद फिर बड़े साहब के छुट्‌टी पर जाने पर मैं उनकी जगह काम करता रहा । बाहर मेरे काम से, व्यवहार से, कहीं भी यह प्रकट न होता था कि मेरा मन कितना टूटा हुआ है और दुखी है । पुरुष हों या स्त्रियॉं स्टाफ में मेरी छबि मिहनत और लगन से काम करने वाले की थी । एक-दो को छोड़ मुझसे सभी के संबंध अच्छे थे । वनमाला ही थी जिसके व्यवहार और जिसकी मुद्राओं से, उसकी उपस्थिति से मैं अचानक सब से कटा और अवमाननित महसूस करता था । निश्चयतः हमारे संबंधों के बीच उठती-गिरती तरंगों को लोग भी पढ़ और देख रहे थे, लेकिन वह शायद मर्यादा ही थी जो लोगों को मुझसे सीधे इस बारे में बात करने से रोकती थी । जून के आखिर में मेरा इरादा चंद लोगों को उनकी छुटि्‌टयों से पहले बुलाने का था ताकि नए सत्र में छात्रों की प्रवेश संबंधी कुछ तैयारियां पूरी हो जाएं । संभावित चंद लोगों में वनमाला मेरे ध्यान में सर्वोपरि थी । उससे मेरे संबंध पारस्परिक अधिकार-भावना और प्यार से जुड़े थे । सार्वजनिक रूप में जो घटता था, वह निजी एकांतिक मुलाकातों में बेहद आत्मीय और व्यक्तिगत में बदल जाता था । मैं चाहता था कि हफ्ते दो हफ्ते सही हम निर्विघ्न भयमुक्त होकर साथ बैठें और प्यार की बातों से झगड़ों की भरपाई करें । वनमाला से इन दिनों कभी मैने यह बात कह भी दी थी । अचानक एक दिन फोन की वह खास घंटी बजी जिसके लिए मैं तरसता था । दोपहर का समय था । वनमाला की आवाज में संकोच रहित खनक थी । जरूर मूड अच्छा रहा होगा और फोन पर लाइन क्लीयर थी । उसने पूछा- ''आप ने छुट्‌टी से एक हफ्ता पहले बुलाने की बात कही थी । आज मैं आप के बुलावे का इंतजार कर रही थी, लेकिन आप की तरफ से न कोई संकेत न सूचना । बुला रहे हैं ना ?''
मैने कहा- ''हां, मैं चाहता था कि अपने विश्वास के खास एक दो लोगों को बुलाऊँ जो वनमाला और मेरे बीच बाधा न बने । बेमतलब की भीड़ का मैं क्या करूंगा ? लेकिन फिर डर लगता है कि खास तौर पर तुम्हें मेरे साथ पाकर लोगों की उंगली न उठे ।''
''आप को तो बस हमेशा यूं ही डर लगा रहता है'', वनमाला ने कहा ।
मैने वनमाला को सुझाया- ''तुम तो ऐसे ही किसी बहाने यहां आ जाओ । तुरन्त आदेश बना लिया जाएगा और छुट्‌टी का लाभ मिल जाएगा ।''
नखरों का जखीरा वनमाला के पास था । मुझे प्रतीत होता है कि इन तत्वों का पुरुषों को खीचने में अपना महत्व होता है । शायद इसीलिए मैं वनमाला के प्यार की डोर से बंध गया था। ऐसा नहीं कि नीलांजना यह जानती नहीं थी । उसे अच्छी तरह आभास था कि मैं उसका साथ चाहता हूं, उससे प्यार करता हूं । लेकिन वह थी कि बजाय मुझसे रुठने, झगड़ने, मुंह फुलाने के खुद ही मैदान छोड़कर मुझे वनमाला की ओर ढकेलकर भाग जाती थी । अक्सर अपने और मेरे बीच दखल देती रोष भरी आंखों से धमकाती वनमाला को अनेक अवसरों पर नीलांजना ने देखा है- लेकिन एक विवश, मौन उदासी के अलावा जो क्षणिक हुआ करती थी, नीलांजना ने कभी चेष्टा नहीं कि वह अपने वर्षों साथ निभाते पुराने खिचड़ी-पार्टनर को छीन ले । नीलांजना की इस सहज समर्पित सरलता पर मुझे अफसोस रहा है और हमेशा रहा आएगा । अगर वह अपनी शिकायत को स्वर दे सकती तो शायद यह कहानी न बनती जो मेरे लिए दर्द की दास्तान बन गई ।
वनमाला के साथ दिल की डोर इस कदर बंध गई थी की उसकी गांठ को खोल पाना मेरे लिए असंभव था और हमेशा रहेगा । उसके पीछे का कारण यह था कि एक दूसरे के दिलों में चाहत की भाषा हम दोनों में बाकायदा संवाद बन चुकी थी । निम्न-मध्यवर्ग की पारिवारिक पृष्ठभूमि, घर के संबंधों की टीस, दिल और दिमाग में अद्‌भुत समानता, प्रतिभा का मिलन और फिर प्रथम दृष्टि से ही बंधे प्रेम और साथ की यादें ऐसे पुल का काम करती थी जो परिस्थितियों और चित्त में छाई घनघोर घटा के बीच बिजली की तरह कौंध-कौंध कर हमें जगा देती थीं । यही वह रहस्य है जिसने विपरीत परिस्थितियों और कड़वाहट के बीच भी प्यार ही प्यास हममें जगाए रखी है । मैं जानता हूं कि जब दिलों पर छुपी यह गाथा कागज पर उतर रही है, तब भी वनमाला के मन की तरंगों को वह उसी तरह उद्वेलित कर रही है जिस तरह मैं उन्हें प्रतिपल संजोए हुए हूं । बहरहाल होनी में जो लिखा था, वह हुआ । मैं निरंतर देख रहा था कि वनमाला के मुझसे संबंधों में वह गरमी नजर नहीं आती थी जो तब थी, जब हम दोने झगड़ कर अलग हुए थे । दोनों में अद्‌भुत अपार स्वाभिमान कि न वह झुकेगी और न मैं झुकूंगा, भले हम टूट क्यों न जाएं । दोनों को यह आभास कि भौतिक दूरियों के बावजूद हमारे दिल एक-दूसरे को छोड़कर नहीं जा सकते । उसे मालूम था कि हमारे साथ का, खासकर मेरे लिए उसके साथ का विकल्प कोई और हो ही नहीं सकता । फर्क केवल इतना कि वह निःशर्त समर्पण और एकाधिकार चाहती थी और मैं था कि उसे सहज समर्पित था । उसमें इस बात को लेकर गहरी ईर्ष्या थी कि मैं औरों के आकर्षण और प्रशंसा का केन्द्र क्यों कर बन जाता हूं ? औरों को मेरे निकट आता देख वह अपनी वितृष्णा, अपना गुस्सा कभी न छिपा पाई । उसे इस बात का विश्वास कभी नहीं रहा कि मैं उसी का और केवल उसी का हूं ।
बावजूद इसके कि सुबह के दौरे से अलग हुए लंबा अरसा बीत चला था और मैने बहुत देर से पहुंचना शुरू कर दिया था, मैं बस से रोज इसी उम्मीद से ग्यारह बजे कॉलेज पहुंचता कि दूरी के संबंध सही, अपनी प्रिया की एक झलक देखकर ही मेरा दिन कृतार्थ हो जाएगा । वैसा होता भी । दोनों की रहस्यमयी नजरें उठतीं, मिलतीं और गिनतीं, लेकिन होठ सिले रहते । फिर मैने पाया कि धीरे-धीरे उनमें कहीं शिकायत, रोष और वितृष्णाकी छाया भी शामिल होने लगी हैं । वह यूं मुह बनाती कि जैसे उससे मुझे कोई मतलब नहीं है । अक्सर यूं होता कि समुदाय में अकेले चहचहाने के बीच यदि हममे से दूसरा पहुंच जाता तो होंठों पर चुप्पी के उदास ताले लग जाते थे । वनमाला के रुख मे इस कदर बदलाव की कल्पना भी मेरे लिये दुष्कर थी। मैं विस्मित था।

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मेरे और भी दीवाने हैं, कद्रदां हैं । अपना प्रेम लेकर तुम बैठे रहो


मेरे मन में होलिका, तेरे दिल में रंग।
मेरी आंखें ग़मजदा, तुझमें भरा उमंग॥
सांस तरसती चीखती, मुझे लगा लो अंग ।
जानम तुम्हें पुकारता जनम-जनम का संग ॥ -मौलिक


अचानक वह दिन आया जब मैंने जाना कि क्या हो गया हैं वे नये साल में परीक्षाओं के दिन थे । फरवरी का अंतिम सप्ताह था । परीक्षाएं हौले-हौले आरंभ हो चुकी थीं, लेकिन होली के कारण दो-तीन दिन छुटि्‌यों जैसे माहौल के थे क्योंकि उन दिनों परीक्षाएं नहीं थीं । शनिवार का दिन था और दूसरे रोज होली जलनी थी । रंग, गुलाल और फिर धड़ल्ले से बिकती शराब के बदरंग माहौल के भय से लोग खासकर स्त्रियॉं अघोषित छुटि्‌यॉं मार लेती थी । घर में मेरा मन न लगता था और कालेज मेरे लिए वनमाला का पर्याय था । इस ना-उम्मीद संभावना से कि शायद वनमाला आए, मैं अपने समय से कालेज पहुंच गया । वनमाला की यादों में मैं दिन-रात खोया रहता था । अदृश्य ईश्वर से मैं मनाया करता कि उससे एकांत में मुलाकात के अवसर मुहय्या कराये ताकि दिल की बातें तफसील में हो सकें । मेरी उदास आंखें विस्मित चमक से भर उठीं जब मैने पाया कि उस दिन शिक्षकों में अकेली वनमाला पहुंच बंद खिड़कियों की अधनीम रौशनी में वनमाला बैठी हुई हैं । उसने मुझे आता देखा, मुझसे नजरें मिली और एक हल्की सी मुस्कुराहट उसके होठों के एक कोने पर उभरी । उस दिन मैने लक्ष्य किया कि उस मुस्कुराहट में स्वागत का उल्लास नहीं था, केवल एक विद्रूप भाव था । मैने बातों की पहल की ही थी कि वह ‘हां-हूं’ करती अपने बड़े काले पर्स से कपियों के लाइन वाला दोपन्ना निकालकर नजरें दौड़ाने लगी । उसकी आंखों में वह चमक और मुस्काराहट अब मैने देखी जिसकी पहले मैने ख्वाहिश की थी ।
मैने पूछ ''क्या पढ़ रही हो ? कुछ विशेष है क्या ?
''कुछ नहीं बस यूं ही''- उसने कहा ।
जैसे इस भय से कि मैं उसे बातों में न लगा लूं, अचानक उसने वे पन्ने पर्स में डाले और पर्स उठा दफ्तर में जाकर बैठ गई । आहत मन अपनी तकदीर को उसकी बेरुखाई पर कोसता किं-कर्तव्यविमूढ़ अकेला बैठा रहा । मुझे उम्मीद थी कि शायद कोई छोटा-मोटा काम हो और वह यहां लौट आएगी । लेकिन नहीं, दफ्तर में मजबूरी में पहुंचे दो-तीन बाबू-चपरासियों और एकाध अन्य के बीच तकरीबन आधा घंटा बैठकर वनमाला लौटी । मैने बाहर निगाह डाली तो पाया कि उसके विषय का सहकर्मी विपुल अपने बच्चे को साथ लिए स्कूटर से उतरा था । उसने मुझे देखकर भी जैसे न देखा था। वनमाला से औपचारिक एक-दो, न करने के बराबर बातें की और जैसे आंखों के संकेत हुए, बच्चे को अपनी अंगुली थमाए विपुल और अपना पर्स उठाए उसके पीछे-पीछे वनमाला चल चली । कैम्पस के बाहरी गेट तक के सौ कदम स्कूटर ठेलते विपुल और उसके विपुल पीछे चलती वनमाला ने तय किए । सड़क पर आकर पहले स्कूटर यूं मुड़ा जैसे विपुल पीछे अपने घर लौटने को हो । लेकिन नहीं, अचानक स्कूटर ने पल तकरीबन आधा घंटा कर वनमाला की राह की दिशा में रुख कर लिया। सामने बच्चे को खड़ा किए, पीछे वनमाला को बिठाए विपुल का स्कूटर फुर्र हो गया था। वनमाला की बेरुखी का रहस्य मेरे सामने उजागर हो गया था । उसकी आंखों में लाचार उदासी में बोलती वफादारी अब बेशर्म बेवफाई में बदल गई थी । मेरी आंखों में अतीत के दृश्य एक-एक कर आए और चले गए । यह वही आदमी था, जिसे अपने घर और मेरे प्यार के बीच पशोपेश में फंसी वनमाला ने भय से विश्वास में लेकर मेरे दीवानगी भरे फोन की बात कह दी थी । यह वही आदमी था जिसने नीलांजना के प्रसंग में वनमाला से मेरी झूठी शिकायत कर भड़काया था । यह वही आदमी था, जो सुबह का दौर छोड़ने से पहले ही वनमाला के मन में इस बात से जहर भर रहा था कि मेरा वनमाला से तआल्लुक दिखावा है और दरअसल तो मैं नीलांजना और दीगर औरतों के चक्कर में पड़़ा रहता हूं । यह वही आदमी था, जो वनमाला को यह पढ़ा रहा था कि उसे मुझसे कैसे दूर रहना चाहिए ? यह कि वनमाला मेरी ओर देखना किस तरह टाल दे ? यह कि जहां मैं रहूं वहां से उठकर वह किस तरह चली जाए ? यह कि मेरे साथ वह काम न करे । यह कि जहां मेरे रहने की संभावना भी हो, वह कामों से कैसे मुंह मोड़ जाए या ड्‌यूटियाँ बदलवा लें । यह वही था जिसने मेरे और वनमाला के बीच दरार पैदा करने की मुहिम चलाई और बाकायदा मुझे काम की सुबह की पाली छोड़ने बाध्य किया था । मुझे अनुराधा की कही बात भी याद आई कि आप इन्हें जानते नहीं। ये लोग खुाद हम कला-संकाय वालों की बुराई करते हैं और लड़कों-लड़कियों को अपनी कक्षाओं के बाद भगा देते हैं । यही वह था, जो वनमाला के ही नहीं छात्रों के मन में भी मेरे विरुद्ध जहर भरा करता था। उस दिन यह साबित हो गया कि वह अपना काम कर चुका था । वनमाला के मन में मेरे विरुद्ध जहर भरने का उसका मकसद पूरा हो चुका था । मुझे भयानक सदमा लगा । यह वही आदमी था, जिसे वनमाला नाकाबिल और चालू किस्म का व्यापारी दिमाग वाला समझ जिसकी बुराइयाँ करती, उसके खिलाफ मुझसे सलाह मॉंगा करती थी ।
उस रोज मुझे अनदेखा करती वनमालां बेझिझक उठकर, उस आदमी के पीछे इस तरह चली गई थी, जैसे अब तक उसी की प्रतीक्षा में वह बैठी रही आई थी। सब-कुछ जैसे पूर्व नियत था । यह वही वनमाला थी, जिसकी आंखें हजारों झगड़ों और घर के संकटों से उभरे रोष और नाराजगी के बावजूद मुझसे मिलते ही उदास संकोच और शिकायत से टकराया करती थी और भारी भीड़ के बावजूद मुझसे बातें करती थी । उस दिन उन आंखों में संकोच और पशोपेश की वजह बेहयाई और घमंड था । मानों उनमें अलिखित संदेश छिपा था-
''तुम अपने आप को समझते क्या हो ? तुम्हें पूछता कौन है ?'' उस दिन मेरी पीड़ा का मजा लेती उन आंखों में मानो खास तौर पर ईर्ष्या भरा अहंकार छिपा था, जो कह रहा था- '' अच्छी तरह देख लो कि मेरे और भी दीवाने हैं, कद्रदां हैं । अपना प्रेम लेकर तुम बैठे रहो ।''
उस खास दिन जब मैं चुटकी भर चूड़ी (होली का लाल रंग) रंग ले गया था कि अगर मौका मिला तो वनमाला की मांग में आज उसे इस तरह बिखेर दूंगा कि नहाने के वक्त उसका पूरा शरीर मेरे प्यार के रंग से रंग जाए । मैं उससे साफ तौर पर कहूंगा कि रुठी रानी, मेरे प्यार का रंग अब भी वैसा है, तुम बेरुख क्यों हो ? तुम्हारे सारे संदेह बेबुनियाद हैं और यह कि मेरे दिल की रानी तुम्हीं हो, तुम्हारे रंग के सिवा मेरी आंखों में किसी का रंग नहीं चढ़ता-लेकिन नहीं, उस दिन उस रंग को प्रिया वनमाला मेरे प्यार की होली की राख बनाकर छोड़ चली थी ।
मुझसे निगाह फेरती निगाहों में उस दिन मानों प्रतिशोध में विजय का गर्व छिपा था, जिसमें यह संदेश था कि देख लो, अब मुझे प्यार के सहारे की जरुरत ही नहीं है । मैं तुम्हारे बगैर अकेली नहीं हूं । दूसरा सहारा खुद मुझे ढूंढ़ता चला आया है । मैं कम नहीं, कमजोर नहीं । यह संदेश था कि अब तुम अतीत पर आंसू बहाते अपनी आकांक्षाओं की राख मले मेरी प्रतीक्षा करते बैठे रहो, मैं चली और अब लौटकर नहीं आने वाली हंी । भयावह उपेक्षा, निराशा और अवसाद से मेरे चित्त में उठती तरंगों में अतीत की स्मृतियों के अनेक रंग एकबारगी उठते-मिलते-मिटते गड्‌डमगड्‌ड हो रहे थे । अब यह तय हो गया था कि जो दुर्घटनाएं मेरे साथ घट रही थी, उनमें केवल उस विपुल का हाथ ही नहीं था, उसके साथ वनमाला की प्रेरणा और इच्छाएं भी जुड़ी थीं ।