एक आदिम भय का कुबूलनामा - PART - II

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वनमाला के साथ की आदत इस कदर जिन्दगी को रास आ गई थी कि उसका चला जाने प्रियहरि को सूना छोड़ गया था उसे देखे और अनदेखे पांच दिन गुजर चले थे तभी बातें चली तो किसी ने व्यंग्य भरे स्वर में उसे बताया कि बॉस के खिलाफ स्टांफ के शिकायत पर जो पूछताछ हुई उसमें बॉस के पक्ष में हस्ताक्षर करने वालों में 'आप की' वनमाला भी तो शामिल थी। प्रियहरि को बहुत पीड़ा हुई। कमस्कम वनमाला से ऐसी उम्मीद वह नहीं करता था। प्रियहरि ने सोचा कि वैसे व्यवहार से वनमाला में मानो इससे पूर्व जन्मों का बचा-खुचा ऋण भी वसूल लिया था । उसने तय किया कि जाकर इस बात के लिए वनमाला को वह बधाई तो दे दे। जो होना था वह तो पहले ही हो चुका था। अब होने को बचा क्या था जो भय हो।
बहुत भारी मन से प्रियहरि वनमाला के घर गया। दोपहर बाद जब उसके घर दाखिल हुआ तो उसके श्रीमन काम कर जा चुके थे। मार्ग निष्कंटक था। वनमाला अकेली थी, शांत थी। पूछ परख हुई, बातें हुई। प्रियहरि के पहुंचने से वनमाला का मूड खिल गया था। प्रियहरि ने उसे बताया कि छुट्‌टी से लौटने के बाद उसने क्या देखा, क्या पाया और उस क्या गुजरी। बात चलाते प्रियहरि ने वनमाला के दस्तखत की चर्चा उससे की और मायूसी में डूबा उसे धन्यवाद दिया। उसने कहा कि वैसी उम्मीद वनमाला से उसे न थी।
वनमाला ने प्रियहरि को तसल्ली देने की कोशिश की। उसने कहा - ''आप बेकार परेशान होते है। आपको क्या होने को है ? भोला बाबू घर आ गये थे। वे परेशान थे, मिनमिनाने लगे कि 'मैडम, दस्तखत कर दो अन्यथा में फंस जाऊँगा। मेरे खिलाफ जांच शुरूहो जाएगी। आप तो अब वहां से चली गई है। आखिर उसमें हर्ज ही क्या है ? उससे मेरा भला हो जाएगा।' वनमाला ने आगे जोड़ा - ''मैंने ही सोचा कि अब जब सचमुच उस कालेज से मेरा लेना-देना ही नहीं रहा तो क्या हर्ज है ? बस ऐसे ही दस्तखत कर दिया।''
वनमाला ने प्रियहरि से कहा कि अब आप भी वहां से निकल जाइए और अपना तबादला अपने नगर में करा लीजिए। वनमाला हमेशा अपनी उन सहकर्मियों से सशंकित रहा करती थी, जो कभी उन्हें मिलाने और कभी अलग करने अपनापा दिखाती प्रियहरि के गिर्द मंडराया करती थी। वह आश्वस्त होना चाहती थी कि उसके जाने के बाद कोई और प्रियहरि और उसकी यादों और प्यार के बीच प्रवेश न कर पाए। जैसी दुविधा और संदेह वनमाला के मन में थे वैसे ही प्रियहरि के मन मे भी थे जिससे वह भी वैसा ही व्यथित था। वनमाला की अन्यमनस्कता और रहस्यमय व्यवहार प्रियहरि के लिए पहेलियां थीं। वह उन्हें बूझना चाहता था। संकोच में सहमते हुए प्रियहरि ने भी वनमाला से पूछ लिया - ''वनमाला, आज एक रहस्य से पर्दा उठाना होगा। बताओ कि दीगर महिलाओं का व्यवहार कभी-कभी मेरे प्रति अचानक कुछ खिंचाव का क्यों कर हो जाता था ? क्या तुम्हारा खुद का हाथ इसमें नहीं था ? क्या सचमुच आपस की बातों की जुगाली तुम उनसे नहीं करती थीं ?''
प्रियहरि ने खुलासा करते हुए अनुराधा की वनमाला से कानाफूसी और अनेक बार वनमाला में लक्षित उस रवैये का प्रसंग छेड़ा था जब वह उसे अकेला छोड़ स्टांफ रूम से बाहर खिसक लेती थी।
वनमाला बोली - ''आप तो बस कुछ भी समझ लेते हैं। बाइ गाड, मैंने कभी किसी से कुछ न कहा है। जहां तक स्टाफ-रूम से बाहर रहे आने की बात है तो मैं इसलिए बाहर रहती थी कि कामर्स के हमारे प्रमुख नलिन सर से मुझे सखत नफरत थी।''
कुछेक पल ऐसी चुप्पी में बीते जिनमें वनमाला और प्रियहरि दोनों का पशोपेश छिपा था। वनमाला का प्रियहरि से और प्रियहरि का वनमाला से दूर रहना कल्पनातीत था। वे दोनों जैसे अतीत की सारी उलझनों का समाधान करते-कराते एक-दूसरे की वफादारी और प्यार को विदाई की इन पलों में तृप्ति के साथ बांधकर एक-दूसरे को आश्वस्त कर लेना चाहते थे। वनमाला के दिलासे के बावजूद प्रियहरि का चित्त उदास था । किस वनमाला पर वह भरोसा करे-वह सोचता रहा ?

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शून्य में खोया समय : मैं तृप्त मैं अतृप्त

अंधेरे में उसकी देह में
तृप्त सुख दमका
जैसे दमकी नाक की कील
जैसे सुख समूची देह में गड़ती
कील था ।
-अंधेरे में/अशोक वाजपेयी/उम्मीद का दूसरा नाम/पृ. 25

बादलों की धमक, बिजली की सनसनी और मूसलधार बारिश : कोई किसी से प्यार नहीं करता . कर ही नही सकता . वह जिसे हम प्यार कहते हैं , महज एक जूनून है. हर आदमी में एक वहसी जूनून होता है. अपने उस जूनून को ही वह प्यार का नाम देता है.


उस मुलाकात का एक-एक पल प्रियहरि की स्मृतियों मे तैर रहा था।
प्रियहरि यानी मेरे चेहरे को गौर से वनमाला ने देखा । उसकी आंखों में शरारत झांक रही थी । अचानक वह खिलखिलाकर हंसने लगी । मेरी आंखों ने उसकी आंखों में झांका । उदासी की परतें और गहरी हो गई । अचानक वनमाला बोली- ''तुम्हारा यही बुद्धूपन तो मुझे भाता है ।बेकार किस चिन्ता में पड़े रहते हो ?''
मेरे करीब आती उसने पीछे से सिर के बाल पकड़े और तड़ातड़ मेरे गालों को चूम गई । बोली-
''तुम्हारा यही भोलापन तो मुझे खींचता है । छोटी सी कोई बात क्या हुई, बस मुंह फूल गया और आंखें शून्य में झांकने लगती हैं । मैं सामने हूं । मुझसे मिल रहे हो फिर भी उदास हो । बताओ भला क्यों नाराज हो ?''
''मुझे न जाने क्यों तुमसे डर लगता है । पास होकर भी तुम दूर जो लगती हो ।'' वनमाला वहां पड़े तखत पर बैठ गई थी । मेरी बात के जवाब में बोली-
''तुम्हारी यही अदा तो मुझे भाती है । बिल्कुल बच्चे हो, भोले और मासूम । मेरी आंखें नम हो चली । उसके पैरों के पास बैठकर मैंने उसकी गोद में अपना सर रख आंखों की नमी को छिपाने की कोशिश की । मेरा सर उसकी जंघाओं के बीच धंसा था ।'' मैंने धीरे से कहा-
''मेरा मजाक मत उड़ाओ प्लीज़ । मैंने कहा न वह कल बोली न मैं । उसके हाथ मेरे बालों को सहला रहे थे और गालों का स्पर्श करते उसे हौले-हौले मसल रहे थे । वह क्षण मौन के संवाद का था ।'' मैंने कहा-
''आज मुझे भगाओगी नहीं ।''
जैसे बहुत दूर से आवाज आ रही थी, उसने उसी आवाज में जवाब दिया । ''नहीं ! वो अब रात दस बजे आएंगे और बच्चे किसी ग्रुप के साथ पिकनिक पर हैं । रात उन्हें लेकर आना होगा ।''
उसी तरह सिर गड़ाए मैंने धीमे से पूछा-
''कामवाली नौकरानी''
''वो दो दिनों से गायब है । खबर आई थी कि कोई बीमार है । शायद कल आए । मेरा बैचेन सिर उसकी जंघाओं की संधि में धंसा पड़ रहा था । मेरे हाथ उसकी जंघाओं पर पसरे थे और उसके पुट्‌ठों को दबाते घर रहे थे । वनमाला का सिर झूककर मेरी पीठ पर टिका जा रहा था । उसके स्तनों का गुदाज स्पर्श मेरी पीठ को सहला रहा था ।''
वनमाला पूछ रही थी- ''सीधे कॉलेज से चले आए हैं ना ? ठहरो ! हटो, मैं तुम्हारे लिए कुछ लाती हूं ।'' झटके से वह उठ खड़ी हुई । पहले बाथरुम की ओर गई । फिर एक छोटी प्लेट के साथ रसोई से वह नमूदार हुई । पानी के छींटों से उसका चेहरा धुला था । चेहरा उसने पोंछा न था और पानी की छींटें नन्हीं बून्दों की शक्ल में उसकी लटों पर सजे थे ।‘’
''लो आज मेरे हाथों से खाओ'' वह सामने खड़ी रसगुल्ले मेरे मुह में ठूसने लगी ।
मैंने निगला । कहा- ''ऐसे नहीं, मेरे साथ तुम भी खाओगी ।'' मैंने प्लेट से एक-पर-एक दो रसगुल्ले उठा उसके मुह में ठूंस दिया । मेरे होंठ उसके रसगुल्ले से अंटे फूले गालों को बारी-बारी से चूमते उन ओंठों तक पहुंचे जहां रसगुल्ले समाये थे । होठों से होठ भिड़ा मैंने धीरे से मुंह में भरे रसगुल्लों से एक टुकड़ा दांत में दबाया और बोला- ''वनमाला तुम्हारे होठों की मिठास रसगुल्लों की चासनी से दोगुनी हो गई है ।''
'' आह , झूठे । मुझे मस्का लगा रहे हो '' वह मुझे परे ढकेलती है।
'' तुम्हारे सिवा है भी कौन जो इस काबिल हो ? तुम्हें बुरा लगता हो तो न लगाया करूं ?''
मेरी आंखों में झांक वह निगाहें झुका लेती है। उसके पांवों की अंगुलियां थिरक रही हैं। अंगूठा जमीन को कुरेद रहा है।
मेरी आंखें उसके चेहरे में डूबी मुग्ध हैं। बाहर आंगन में रंग.बिरंगे फूलों की छटा के साथ उसकी वाटिका की हरीतिमा वासन्ती धूपछांही छटा में मनमोहक लग रही है। उस तरह सलजता में ठिठकी वनमाला में भी मुझे वही छटा नजर आ रही है। आंखों ,पलकों, भौहों , होठों, गालों, लटों, नासिका - सब पर टिकतीं मेरी आंखें वनमाला को लील रही हैं। मुझे याद आ रहा है -''सर्वे नवा इवा भान्ति मधुमास इव द्रुमा :''।
सफेद फूलों की चमक से भरी सघनता में फैली चमेली की पत्तियों में जरा चिकनी लालिमा मैं भर देना चाहता हूं। उसकी छितराई पतली डालियों में मैं उस लता की नमकीन लहसुनिया गंध भर देना चाहता हूं, जो बारिश के बाद नीले फूलों के गुच्छों से लद जाती है। वनमाला ठीक वैसी ही होगी। भुजाओं की ठीक वैसी ही नमकीन गंध के साथ। वनमाला की पलकें झुकती हैं। वक्षस्थल को कंपाती गहरी सांस बाहर आती है और थिरक कर मौन हो जाती है। अपने मंदस्वर से वनमाला मेरे कानों में प्रवेश करती है।
''मुझे पहली बार देख रहे हैं क्या ?''
क्या निस्तब्धता में भी माधुर्य हो सकता है ? हां, यह मैने उस वक्त जाना।
'' तुम्हें जब भी देखता हूं वह पहली बार ही होता है। इससे पहले कि आंखों में तुम्हें बसाकर तृप्त हो पाऊँ, तुम ओझल हो जाती हो। आज जी भर निहारने दो। ''
आज वह फिर देखने से वंचित कर रही है। जवाब में वनमाला का चेहरा मेरे वक्ष में समा जाता है। उसी अतल गहराई से एक रागिनी उठ रही है।
'' तुम मुझे पागल बना दोगे। ''
उसी तरह नीरव पदचाप से मेरा जवाब वनमाला का स्पर्श करता है।
'' अपनी वाटिका की खूबसूरती आज तुमने चुरा ली है।''
वनमाला की चिबुक को अंजुरी में थामे मेरा मन्द्र स्वर उससे कह रहा है -''तुमने मुझे पागल बना दिया है।''
मैं पूछता हूं - आज जी चाहता है तुम्हारी वाटिका की सारी खूबसूरती समेट लूं। सैर कराओगी न ?''
उसकी हथेलियों ने मुझे थाम लिया है।
''आओ ।'' अपनी बड़ी-बड़ी आंखोंसे मुझमें झांकती वह उस ओर खींचती है जिधर वाटिका की ओर खुला द्वार है। मेरा बायां हाथ अंगुलियों में असज्जा में भी सज्जित उसके सपाट केशों पर हौले-हौले थिरक रहा है। दायां हाथ उस द्वार की सिटकिनी सरकाता है और बागीचा कैद में सींकचों के पार चला जाता है। एक अनाम मिठास की भीनी-भीनी सुगंधि से भरी मादक स्तब्धता के बीच केवल दिल की धड़कनों का ही शोर है, जो निरन्तर बढ़ता जा रहा है। अहसासों में उसे केवल दो सुन रहे हैं। एक वनमाला, और दूसरा मैं यानी प्रियहरि।
''वाटिका वहां है, जहां वनमाला है। मैं वहां जहां मेरी वाटिका है।'' मेरी आवाज़ इतनी धीमी है कि वनमाला के उन उस कान के अलावा जिसकी तांबे की तरह ललाई लौ के करीब मेरे होठ अपना संदेश उस तक पहुचाने बढ़ चले हैं, उस अपनी ही आवाज़ को मै भी नहीं सुन सकता। एक झटके से वनमाला के उस हाथ को मेरे हाथ अपनी ओर यूं खीचते हैं कि द्वैत में शोर मचाती धड़कनें परस्पर संक्रमित और संगमित होतीं निर्झर की तरल शीतलता में तब्दील हुईं पहाड़ी का आवेग खो समतल धरती पर आ उतरती हैं । अलस-अनमने बाहर जाते वनमाला के उन कदमों को मैं, मेरा जादुई संदेश इस तरह खींच लौटाता है जैसे उन्हें बस ऐसे ही मनुहार की प्रतीक्षा थी।

वनमाला मुझे अपने बागीचे की सैर करा रही थी। मैं उस कोने की ओर बढ़ रहा था जहां
लहराती झाड़ियों के झुरमुटे में नीम अंधेरों में छिपी एक नन्ही कली चिनगारी सी दमक रही थी।
''उधर नहीं प्लीज़। वह संरक्षित कोना है। उधर जाना खतरनाक है।''
मैने वनमाला की आंखों में झांका। मुझे बुरा लगा था।
'' क्या फायदा जो बाहर की सैर से लुभाती अब तुम ऐसा कह रही हो? ठीक है मैने देख लिया तुम्हें। जब तुम्हारी ही इच्छा नहीं तो मैं क्या कहूं? मैं जाता हूं। बस देख लिया तुम्हें।''
'' आप बुरा मान गये। जरा आराम कर लीजिये फिर जाइयेगा। मुझे तो आप का यूं ही रहा आना भी बहुत भा रहा है।''
''नहीं तुम्हारी बाहर की सैर ने मुझे बेचैन कर दिया है। अंदर जाने से तुम मना कर रही हो। कितनी देर से तुम्हारे साथ यूं टहल रहा हूं। मेरी तीसरी टांग थरथरा रही है और तुम हो कि ऐन उसे थामने की जगह भगा रही हो।''
''लाओ'' वनमाला ने उसे थाम लिया। ''आह ! यह मुझसे नहीं संभाला जाएगा। बहुत तप रहा है। इसे झुरमुट के उस अंधेरे में मुझे टिकाना होगा जहां मेरे बागीचे की धरती लावा उगल रही है। चलो आओ?
आ जाओ। अरे टेढ़े-मेढ़े कहां टांग भटक रही है। राह देख सीधे घुसे चले आओ। आओ और खूब देख लो तुम्हें मैने कहां-कहां सजा रखा है?''- वह बोली।
बगीचे के उन झुरमुटों का तंग अंधेरा कपाट की तरह तना था। कपाटों की संधि को टोहती-टटोलती मेरी टांग अंदर प्रवेश करने बेताब थरथरा रही थी। वनमाला ने कसकर थामा और कपाट की संधि पर यूं टिकाया कि फिर धक्का देता मैं सीधे खुद ही धंस चला।
मेरी टांग बागीचे की उस अंधेरी सुरंग में भी जो नमी से भीग रही थी, हर कोने को वह अब टोह-टोह कर टटोल रही थी। दीवारें रिस रही थीं। लार टपकाती मानों वे उस ताप की प्रतीक्षा में थीं जो उन्हें सोख ले। जहां-जहां मैं धंसता वनमाला मुझे संभालती साथ चिपकी होती। दोनों को एक-दूसरे का खूब ध्यान था। मैने पाया सचमुच वह एक दहकते फूलों की वाटिका थी।
वनमाला की उस प्यारी वाटिका में कभी मेरे हाथ लहराती बेला के भूरे रसीले अंगूरों को तोड़ते, चबाते और चूसते रहे और कभी उन कदली स्तंभों को मापते रहे जो सुतवां चिकनाई में ढले थे। कभी मैं उन खूबसूरत गोलाइयों पर फिसलता जो वाटिका में बेल के फल जैसे भरपूर पुष्टता में फूले जा रहे थे और कभी उस संकरे नक्काशीदार पुल को मापता जो आवाजाही करते कंप-कंप कर लचकता खूब गुदगुदाए जा रहा था।
'' कितना सुन्दर बागीचा है? बहुत मजा़ आ रहा है। जी चाहता है कि अपनी उछलती टांग में चिपका साथ लेता जाऊँ।''
'' अब जब घुस चले हो तो यह वाटिका तुम्हारी है। ले लो भरपूर। जितना जहां-जहां से भाए लेते जाओ।''
''आह, सचमुच तुम्हारा जवाब नहीं। लो ये लिया।''
''और लो''

''यह देखो, और लिया''
''लो? और, और,और लिया''
''आह? लेते चलो। ले-लेकर इसे जितना निचोड़ोगे उतनी ही ज्यादा मैं हरी होती चलूंगी''
''आह, वनमाला मेरे साथ भी वही घट रहा है जो तुम्हारे साथ घट रहा है। जितना लेता हूं? जितने अंदर जाता हूं, उतना मजा बढ़ता जाता है''
'' हाय.हाय। यह क्या हो रहा है? बिजली चमक रही है। बादलों की नमी मुझको भिगा चली है। अब रुकना मुश्किल है। दौड़ चलो। चलो जल्दी, और-और जल्दी''
कूद-कूद कर , उछल-उछल कर चोट खाता और वनमाला के बागीचे की हर सतह से टकराता मैं बेतहाशा दौड़ रहा था।
'' आह, मुझमें बिजलियां कड़क रही हैं।'' मैं चीख रहा था।
'' मुझमें बूंदें बरस रही हैं। मैं भीगी जा रही हूं।'' - वनमाला बुदबुदा रही थी।
'' अकेले नहीं। हम दोनों भीग रहे हैं। आह इस सनसनी को कैसे निगलें। यह बिजली गिरी- एक.. दो.. तीन.. चार.. पांच.. छः.. सात ''
'' आह मेरी छतरी में समा कर चिपक रहो। बस करो बाबा बहुत भीग लिये''
इधर फुहार की सनसनी मेरे अंदर फैलती जा रही थी और उधर गुफाओं की लरजती-कंपती दीवारें उसे गुदगुदा रही थीं । फिर एक बिन्दु ऐसा आया जहां हल्की पड़ती बारिश चार-पांच तरंगों के साथ अघाकर समूची झर चली। बागीचे की जमीन खूब नहा चली थी। वे पांव जो साहचर्य की गुदगुदी पैदा करते वनमाला और मुझे सैर का मजा़ दे रहे थे इस वक्त कीचड़ में सने सुस्ता रहे थे। हमारे बीच सारा पठार बारिश की चिपचिपाहट से भर गया था ।
छतरी में समाए हम कब तक बेहोश रहे आए यह कहना मुश्किल है। जब होश टूटा तो हमने पाया कि मौसम साफ हो चुका था। प्यार में उपजायी कीच और मिटटी की फसल उतार, आवरणों की सिलवटें सजा मासूम दुनियादारों की तरह स्वर्ग की सैर से लौट पुनः सोफे-कुर्सियों के जीव हो चले थे। बातें करते, हंसते-बोलते,हिलते-हिलाते, डोलते-डुलाते, खिलते-खिलखिलाते आराम में अलसा चला मन अब फिर जाग चला। इक-दूजे को तकतीं, इक-दूजे में डूबीं, मिलती-खिलतीं-उठती-झुकती आंखें अधिक मजबूती और तैयारी के साथ उस एक अनुभव को पुखता कर लेने बुला रही थीं।
रसगुल्ले की मिठास अब तक बाकी थी पर अब वनमाला के रस में डूब मिठास दोगुनी हो चली थी। उसे अभी -अभी मैने चखा था लेकिन जी फिर उस मिठास को निगलने मचलने लगा था। वनमाला अभी.अभी ठीक ही तो कह रही थी कि यह आज कल फिर शायद न लौट पाएगा।
उस दिन मैं सारा कुछ एकबारगी वसूल लेना चाहता था । ऐसा कि मेरी प्रिया और मेरे अंदर की सारा सामर्थ्य एक-दूसरे में एक-दूसरे को हमेशा के लिए खलास कर दे । इस खयाल की सनसनी के साथ मेरे होठों ने अचानक फिर वनमाला के होठों पर हमला कर उन्हें दबोच लिया । करवट से फिर उसके शरीर को चितावस्था में धकेलता उसकी कटि को घेरे उस पर सवार था । कुछ वक्त पहले चखी मिठास का नशा दरअसल अब असर करता चढ़कर बोलने लगा था। इस बार बगैर मौका गंवाए वनमाला भी फौरन लता की मानिन्द लहराती मेरे बदन पर लिपट छाती चली गई थी। कसकसाती छातियां कोई कसर न छोड तीं एक-दूसरे को मसलती होड़ ले रही थीं । गालों से गालों की छेड़-छाड़ चल रही थी । इस छेड़-छाड़ में होंठ फिर कहां जा भिड़े पता ही न चला । कभी वह अपने होठों के बीच मेरे होठों को निगल जाने की कोशिश करती और कभी मैं प्रतिद्वंद्विता में आगे निकल जाता । जंघाओं के बीच छिपा मेरा कोमल मन फन काढे बाहर आने को बेताब लहरा रहा था । वनमाला की जंघाओं के बीच के कोमल गुहाद्वार से चिपकी जाती मेरी बेताबी उसके चित्त को भी छू रही थी । प्यार की इस प्यारी कस्मकस में गिरते-संभलते दोनों अंततः उसके पर्यन्क पर जा गिरे थे । पल भर को सारा कुछ थम गया था । जैसे हम चिपके खड़े थे, वैसे ही बिस्तर पर गिरे पाए गए । वह मुझे और मैं उसे मुग्ध आंखों से निहार रहे थे । मेरी हथेलियां बडे हौले-हौले उसके बालों पर फिर रही थी । बारी-बारी वे दोनों गालों पर प्यार भरी थपकियां दे रही थीं । वनमाला की बांहें मुझे घेरे जकड रही थी । मेरी जीभ की कांपती नोक उसके होठों पर फिरने लगी थी और फिर होठों से होठों को निगलने की होड़ शुरू हो गई थी ।
अचानक मैंने झटके से खुद को ऊपर उठाया । अब मेरी मुटि्‌ठयों में उसके वे दो गोल घेरे थे जो बैलून की मानिन्द फूल-फूल कर बढ़े जा रहे थे । अंगूठे और तर्जनी के बीच ललियाए और ललचाते अंगूरों जैसे मीठे और होठों में लपक आने को आतुर उसके सुंदर, भूरे स्तनाग्रों से मैं खेल रहा था । वनमाला 'आह-आह, छोड़ो न..' कहती सिसकारियां भर रही थी । मैने उन सिसकारियों में ''हां - हां और न '' सुना ।
हाथों को अपनी जगह कायम रखे मेरा सिर उसकी कमर से नीचे जंघाओं की संधि को ध्वस्त करने ठोकर मार रहा था । अब तक जकडी उसकी जांघें पिघलने लगी थीं ।
''आह, तुम मुझे मारे डाल रहे हो । मैं पागल हुई जा रही हूं, । छोड़ दो ना प्लीज । अब मैं और बरदाश्त नहीं कर पाऊंगी ।'' वनमाला बुदबुदा रही थी ।
मेरा शरीर फैलकर उसके माथे तक पहुंचा । वनमाला की बायें कान की कोमल लौ मेरे होठों की गिरफ्त में थी । मैंने हल्के से उस पर दांत गड़ाए और इतने धीमे कहा कि उसके कानों के बाहर ध्वनि न जाए- ''छोड़ दूं सचमुच,.. या अंदर आ जाऊँ। ।'' बरसों से भरा सब्र का बांध अब टूटने की कगार पर था ।
''आह'' उसने सिसकरी भरते कहा - ''जो भी करना हो करो न । जल्दी करो प्लीज़, मैं मरी जा रही हूं।''
वनमाला घर में प्रायः गाउन में हुआ करती थी । मुझे यह गवारा न था कि उसके और मेरे बीच वह आए । मेरी अंगुलियों की फुर्ती ने तड़ातड़ गाउन के सारे बटन खोल दिए और फिर भी मेरी बांहों की दुश्मन बनी कमरबंद की गांठें खोलीं । अपनी प्रिया की भुजाओं से नीचे खींचता उसके गाउन को पैरों के पास फेंकते मैंने कहा- ''प्यारे गाउन, आज तुम दूर रहो और मेरे बदन को ही मेरी प्रिया का आवरण बनने दो । ऐसी ही क्रिया और ऐसे ही संवाद से वनमाला मेरे वस्त्रों को भगा रही थी ।''
उसके पांवों पर मेरे हाथ प्यार से फिसल रहे थे । मैंने उसके पांव के अंगूठे को होठों के बीच दबा दांतों से काटा । पिंडलियों के गुदाज मोड़ों को दबाया । उसकी पुष्ट जंघाओं पर हथेली से थापें दी और उन जंघाओं से पूछा कि तैयार हो या नहीं । उनके उत्तर की प्रतीक्षा किये बगैर मैंने दोनों जंघाओं को फैलाते अपनी जंघाओं के लिए जगह बनाई । मेरी आंखों को अपने नाजुक अस्तित्व का टोह लेना देख वनमाला हठ से अपने उन होठों को ढकने की कोशिश में लगी थी, जहां प्रवेश करने मेरी मुट्‌ठी में थमा पौरुष लालायित था । उधर बचने की कोशिश थी और यहां प्रवेश की उत्तेजना से अंगडाइयां लेता मेरा बेताब लाड़ला था । वनमाला की एक बांह पसरकर नीचे आ खिसकी थी । उसकी मुट्‌ठी मेरे पौरुष को सहलाती जकड़े जा रही थी । वनमाला की हथेलियों को चूम मैंने हौले से अलग किया। वनमाला के दिल के उस नाजुक कोने में ऐसा लावा भरा था जिसमें परम शीतलता छुपी थी । मुझे उसी की तलब थी। वनमाला की आतुर हथेली ने फिर फिर मुझे थाम लिया था । वह मेरे पौरुष को थामे राह दिखाती खुद वहां ले जा रही थी जहां उसकी कोमल वनमाला उस पौरुष को निचोड़ जाने बेताब थी । वनमाला के मुड़े हुए घुटने पसर चले थे और मेरा अस्तित्व उन दोनों के बीच छिपी वनमाला में समा चुका था । मैने हाथ फैलाए और वनमाला के गोल गुंबदों पर चिपकते हुए अपने उन हाथों को हौले-हौले वनमाला की बांहों के नीचे से गुजारते अपनी हथेलियों से उसके सिर को थाम लिया । नीचे होंठ अपनी जगह भिड़े थे और अब ऊपर उसके चेहरे पर, उसकी पलकों पर चुम्बनों की बौछार हो रही थी । वनमाला के होठ थरथराए, लपके और मेरे होठों से गुंथ गए । मेरी जीभ ने होठों को ठेलते जगह बनाई और सीधे वनमाला के मुह में धंस गई । वह निपुण थी। स्पर्धा में यह देखने का वक्त न था कि किसकी जीभ ओर किसके अधर किसे परास्त करते लीलते घुसे पड रहे हैं। अंदर की ज्वाला बाहर भड़कती बार-बार केन्द्र को ऐंठाती, गुदगुदाती, सिहराती लौटती फिर और भीषण लपटों के साथ हमे सुलगा जाती थी। चेहरों के खेल का असर छातियों पर दबाव बढाता जा रहा था । और तब जैसे कमरे में भूचाल आया । वनमाला के साथ मेरा बदन हिलने और डोलने लगा । सारी शैया जैसे उस समय दो से एक हुए बदनों के बीच समाई जा रही थी । लावा पिघलता-रिसता जा रहा था और उसकी चिकनाई वनमाला और मुझे गुदगुदाए जा रही थी । प्यारी वनमाला, आज मैं तुम्हें नहीं छोडूंगा । तुमने मुझको बहुत तरसाया है । हर बार मैं वनमाला के अंदर जाता और बाहर निकलता । जंघाओं के बीच की थप्प की आवाज के साथ मैं दोहराता -
''लो ..... और लो ..... लेती जाओ आज सारा प्यार समेट लो ''
भूतल से वनमाला की पृथ्वी सिसकारियां लेती कराहती -
''दो ..... पूरा दो और मेरी समूची पृथ्वी हिला समेट लो। लो यह मैने दिया..... कोई कसर मत छोड़ो''
वनमाला का आनन्दलोक ''आह,--आह..'' की गुदगुदी लहर बन मेरे अधरों पर उफन रहा था । वनमाला के गले से प्रतिध्वनित होती वह लौट रही थी -
''आओ ..... और आओ ..... मार डालो मुझे आज''
वह बुदबुदा रही थी- ''आप को मैंने बहुत तरसाया है । सारी शिकायत मिटा डालो आज। आज वनमाला आपकी है । यह 'आज' शायद कल लौटकर, कभी लौटकर फिर न आए।''
इधर फुहार की सनसनी मेरे अंदर फैलती जा रही थी और उसकी गुफाओं का कंपन उसे गुदगुदा रहा था । फिर एक बिन्दु ऐसा आया जहां चार-पांच-छः-सात-आठ जितनी ना-मालूम तरंगों के साथ बारिश खत्म हुई और कीचड़ में हम डूब गए । उसका पठार बारिश की चिपचिपाहट से भर गया था । वनमाला की छातियों में सर गडाए मैं स्थिर हो गया था और वह थी कि मेरे बालों को सहलाती बार-बार मेरे गालों को चूमे जा रही थी ।
''बस ऐसे ही सोए रहो । अभी मुझे छोड कर न जाना । यहीं आराम करो । ''
वनमाला रानी, प्यार में बुदबुदा रही थी । मैं उसका गुलाम था । इसी हालत के साथ उस सन्नाटे में हम गुम रहे जो हमारे दरम्यान बादलों की धमक, बिजली की सनसनी और मूसलधार बारिश के साथ घटी थी ।

वनमाला और मैं एक–दूसरे की तरफ मुंह किये आराम की मुद्रा में यूं लेटे थे जैसे सारे संसार की बाधाएं पारकर हम निश्चिन्त किनारे आ लगे हों। उसकी भुजाएं मेरे कंधे पर पसरी थीं और मेरा हाथ वनमाला की गर्दन पर होता उसके सिर के बालों को संवार रहा था।

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