एक आदिम भय का कुबूलनामा - PART - II

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वनमाला का जवाब था - ''आप नहीं जानते। वे बड़े विचित्र स्वभाव के है। उन्हें दोस्त बनाना बहुत कठिन है। बल्कि उन्हें आपकी ऐसी कोशिश अगर पता लग गई तो वे मुझे भी मार डालेगें और आपको भी।''
प्यार-मोहब्बत तो अपनी जगह पर थे लेकिन वनमाला को यह भय हमेशा सताया करता था कि ये चीजें आम हो गईं और घर तक फैल गई तो वह मारी जायेगी। उसकी दीवानगी में खोया प्रियहरि उसे समझाया करता कि उन दोनों का मिलना, यह आकर्षण आकस्मिक नहीं है।
वह कहता - ''आज जो है, वह अकारण नहीं है। रक्त का यह आकर्षण पूर्वजन्मों का है जिसने हमें मिलाया है और जो रक्त के एक होने तक कायम रहेगा। फिर इसमें चाहे कितने ही जन्म क्यों न लग जाएं।''
जो था, वह प्रियहरि की पांचवीं इन्द्रिय कह रही थी और जिसे गहराई से वह महसूस करता था। वह उसके दिल की सच्ची आवाज थी। वनमाला इसका अहसास कर कांप गई। वह बोली - ''मुझे यह सुनकर न जाने क्यों घबराहट हो रही है। ऐसा नहीं होना चाहिए। मुझे डर लग रहा है।''
औरत का मन पढ़ना शायद दुनिया का सबसे मुश्किल काम है। वनमाला प्रियहरि की बातें सुना करती और अक्सर गंभीर, अन्यमनस्क, और पशोपेश में पड़ी दिखाई पड़ती। तब उसकी गंभीरता, फूल उठे गाल और मिलती-बचती आंखों की भाषा में क्या लिखा होता था यह कहना मुश्किल था। प्रियहरि डरता था कि कहीं वनमाला उससे नाराज़ न हो जाए। वह नाराजगी के एवज में केवल वनमाला का रहस्यमय मौन देखा करता था। पहल उसे ही करनी पड़ती एक रोज ऐसी ही बातों के दरम्यान वनमाला सूजी हुई आंखों और फूले गालों के साथ बैठी थी। शायद इधर के मिठास के साथ घर की कड़वाहट का द्वंद्व और किंकर्तव्यता का पशोपेश उसे विफल करता था। प्रियहरि पूछ रहा था -''हे...इ, वनमाला, तुम्हारे लिए न जाने कितना-कितना लिखा है। देखोगे नहीं ? तुमसे कुछ कहना है, सुनोगी नहीं ?''
उदास भीगे स्वर में वनमाला ने बहुत धीमे से कहा - ''जो भी कहना है, कहिए और जो करना हो कीजिए न ! पूछते क्यों है ?''
प्रियहरि ने वनमाला को अनमना और उदास पा संकोच में कह दिया - ''रहने दो।''
अब प्रियहरि को लगता है कि उस दिन वनमाला को पढ़ने में उससे गलती हो गई। औरत कहती कुछ नहीं, आप से करने की उम्मीद रखती है। अधिक प्रतीक्षा शायद मन को बोझिल बना देती है। समर्पण और स्वीकार की मुद्रा में बैठी श्यामा को उस एक खास पल में पीछे से प्रियहरि की बांहें घेर लेतीं और उसके सूजे आतुर चेहरे को हथेलियों में थाम उसके होठों पर प्रियहरि के होठ जा ठहरते तो शायद वनमाला का विकल मन स्वीकार लेता। औरत का संकोच और आदमी का भय होनी को भी अनहोनी बना देता है। प्रियहरि इतना ही कायर था। वनमाला के उस आमंत्रण को पढ़ने में प्रियहरि का चित्त उस दिन भूल कर गया था कि - ''जो भी करना हो, कीजिए न। पूछते क्या हैं ?''

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आखिर मैने ऐसा किया क्या हैं जो तुम मुझे इतनी बड़ी सजा देना चाहते हो।
मुझे कैद में रखकर मुक्ति पा लेना क्या तुम्हें अच्छा लगेगा ? : वनमाला

परीक्षाएं चल रही थीं। सुबह-सुबह प्रियहरि और वनमाला एक दूसरे की प्रतीक्षाओं को समाप्त करते जब मिलते तो निगाहों के टकराव के साथ ही दोनों के मन खिल उठते थे। प्रियहरि और वनमाला इतने निकट आ चुके थे कि अब प्रतीक्षा और विलम्ब उनकी स्थाई आदत में शुमार हो चले थे। इसे वनमाला भी अच्छी तरह समझती और महसूस करती थी। व्यक्ति की और समाज की आकांक्षाओं के बीच, अक्सर तीन और छह का आंकड़ा होता है। खास तौर पर मुद्‌दा जब स्त्री और पुरुष के बीच संबंधों का हो वनमाला घर की झंझटों और अपने शक्की पति से यूं ही परेशान थी। आगे बढ़ने का खतरा मोल लेने से वह बचना चाहती थी। वनमाला के जन्मदिन को दोनों ने एक दूसरे के प्रेम-दिवस की तरह मनाकर खुशी तो हासिल कर ली थी, लेकिन वनमाला की उदासीन हिचक और दूरी बनाये रखने की पेशकश ने प्रियहरि को दुखी भी कर दिया था। उदासी भरे भविष्य और वनमाला से दूरी की कल्पना से मायूस प्रियहरि ने एक दिन वनमाला के सामने इस बात का प्रस्ताव रखा कि उसका मन अब परीक्षाओं से अलग हो जाने का है ताकि व्यर्थ ही वह उसे परेशान न कर सके। आखिर उसी के कारण तो वनमाला का चित्त विचलित होता प्रियहरि के लिए नाराज़गी बन जाता है।
परीक्षाओं के अब कुछ ही दिन शेष रह गये थे। वनमाला ने प्रियहरि की आंखों में झांका और कहा-'' इतने दिन साथ गुजारने के बाद अगर आप मुझसे अलग होने काम छोड़ देंगे तब फिर मेरे भी यहां रहने का मतलब क्या है ? आप के बिना मैं भी परीक्षाओं का काम नहीं करूंगी।''
वनमाला के चित्त को पढ़ने में प्रियहरि कभी भी सक्षम न हो पाया, लेकिन अगर वे शब्द वनमाला के हृदय से निकले थे तो वे ही उसके लिए वनमाला पर ईमान को और मजबूत कर जाते थे। उस एक सुबह प्रियहरि ने वनमाला से कहा –
''वनमाला, ऐसा लगता हैं कि इस जीवन में तुम्हें पा सकने का भाग्य मेरा नहीं हैं। मुझे कुछ कहना है। मेरी प्रार्थना स्वीकार करोगी ?”
वनमाला के पूछने पर प्रियहरि ने भारी मन और भावुक स्वर में उससे कहा - ''मैं तुम्हारे बगैर जिन्दा नहीं रहना चाहता। इससे अच्छा तो यह होगा कि मैं कि तुमको खुद मुझे अपने हाथों थोड़ा सा ज़हर दे दो। मैं चाहता हूं कि तुम्हारी गोद में सिर रखे तुम्हारे उस खूबसूरत चेहरे पर आंखें टिकाये मैं अपनी जान दे दूं, जिन्हें हमेशा के लिए कैद रखने वे मरी जाती रही हैं।''
प्रियहरि का उदास मन वनमाला के अंदर भी संक्रमित हो चला था। उसने कहा - '' नहीं, ऐसा मैं कभी नहीं कर सकती। आखिर मैने ऐसा किया क्या है, जो तुम मुझे इतनी बड़ी सजा देना चाहते हो। मुझे कैद में रखकर मुक्ति पा लेना क्या तुम्हें अच्छा लगेगा ? ''
वनमाला अपने को संभाल नहीं पा रही थी। उसकी आंखें भीग चली थीं। प्रियहरि के सामने से उठकर वह तुरंत दफ्तर के उस सूने कमरे में जा बैठी थी, जो सुबह-सुबह खाली पड़ा था। केवल एक बूढ़ा बाबू अभी-अभी वहां पहुंचा था। उसे इस बात की कतई परवाह न थी कि वहां दूसरे क्या कर रहें हैं और क्या बतिया रहे हैं, इसकी ओर ध्यान दे। वनमाला के पीछे-पीछे प्रियहरि भी वहां जा बैठा था। प्रेमी के जान देने की बात प्रिया को भावातिरेक से भरती भी अन्दर-अन्दर खुशी से भर जाती है। उसकी अपनी ही निगाह में खुद की कीमत बढ़ जाती है। इस वक्त वनमाला अपने टूटे हुए प्रेमी पर तरस खाती अपने को उस पर न्यौछावर कर देने की मुद्रा में थी। इधर पशोपेश की हालत में विचलित वनमाला की वासनाओं को और उत्तेजित करता प्रियहरि उसे मनाये जा रहा था -''एइ वनमाला, मान जाओ न प्लीज़। वह मेरी जिन्दगी का सबसे सुखद क्षण होगा और तुम्हारी समस्या भी उससे हल हो जाएगी '' -प्रियहरि धीमे स्वरों में वनमाला के हृदय में बुदबुदा रहा था।
रूंधे हुए गले और टूटती आवाज में वनमाला जवाब दे रहीं थी -''आह..,इससे अच्छा तो यह होता की मैं ही मर जाती। आखिर मै यहां आई ही क्यों ? इससे तो अच्छा यह होगा कि मैं तबादले में जहां से आई हूं , वापस फिर वहीं लौट जाऊँ ।''
बूढा बाबू मुन्डी झुकाए बगैर ध्यान दिये ही यह देखता सुनता मजे ले रहा था। वह देख रहा था कि कैसे घनघोर उदासी के बादलों और असहाय प्रियहरि और वनमाला की आंखें एक दूसरे में डूबी पड़ रही हैं। भावना का ज्वार दोनों को बहाए ले जा रहा था। बाबू की आंखों से ओझल होती वनमाला भागती स्टाफ-रूम के एक कोने में चिपकी आंखों की भीग चली पलकों को हथेलियों से पोछती सिसक रही थी। वनमाला ने पीछे आ खड़े प्रियहरि की हथेलियों का कोमल स्पर्श अपने बालों और गालों पर महसूस किया। उसकी पलटती निगाहें प्रियहरि की उन आंखों से बिंध गई थीं जो बादलों की नमी से बोझिल थीं। प्रियहरि की हथेली में वनमाला के एक हाथ की अंगुलियां उलझी पड़ी जा रही थीं। ऊपर कंधे पर बांह को कसता दूसरा हाथ और नीचे पैर पर अंगूठे से खेलता प्रियहरि का अंगूठा वनमाला को रोमांचक थरथराहट से भरता जादुई आकर्ष ण से कंपती काया को हौले-हौले प्रियहरि की काया के स्पर्श से सहलाता इतने करीब ले चला था कि मादकता की बेहोशी में अब प्रियहरि की छातियों से टकराती वनमाला की छातियां चिपकी पड़ रही थीं। एक-दूजे की देह को लीलती आंखों की सम्मोहकता में छातियों की चीखती हुईं धड़कनें एक-दूजे को पिघलाती आपस में कब गुंथ कर सारी दूरियां मिटा डालने की होड़ में खेलने लगी थीं इसका होश अब न प्रियहरि को रहा था, और न वनमाला को।
सांसें तेज़ थीं, धडकनें चीख रही थीं पर आवाजें इतनी मंद, जैसे बहुत दूर कहीं आ रही हों। वनमाला के अधरों पर लहराते प्रियहरि के ओठ मंत्रवत बुदबुदा रहे थे -'' मान लो। मेरी प्यारी वनमाला, मेरी बात मान लो प्लीज़।''
वैसी ही मंत्रमुग्धता में किसी अन्य लोक से वनमाला के कांपते अधर बेहोशी में जवाब दे रहे थे - ''नो प्लीज़, नो । मुझे छोड़ दो प्लीज़।''
आकर्षण ऐसे दुर्निवार आवेग से दोनों के रक्त मे प्रवाहित हो रहा था कि उनके अधरों पर उच्चरित शब्द अपना निहितार्थ छोड़ दोनों प्रेमियों की कायाओं में खेलते हठपूर्वक अवहेलना पर उतर आए थे। स्वामियों की अवहेलना करते मनाने और छोड़ने की पारस्परिक मनुहारों के बीच ओठ, देह, छातियां, हाथ और पैर और भी अधिक बेताबी से लिपटते दोहरे हुए पड़ रहे थे। इनमें प्रियहरि और वनमाला का वह दूसरा मन छिपा था, जो विवशता से आशंकित चित्त की अस्थिरता से भयभीत इस वक्त हाथ आए पलों को ही संपूर्णता में भोग अपनी चिरसंचित प्यास को अभी ही एकबारगी बुझा लेने मचला जा रहा था। चेतना इस वक्त केवल देह की पोरों और आतुरता से परस्पर गुंथे ओठों में सिमट आई थी । प्रियहरि और वनमाला सारा कुछ छोड़ जैसे किसी अन्य लोक में विचरण कर रहे थे। अचानक खलल पड़ा। बाहर कुछ लोगों के बतियाते चले आने की आहट थी।
'' छोड़ दीजिये, कोई आ रहा है '' - वनमाला बुदबुदाई ।
दोनों ने एक-दूजे की जलती आंखों और लाली से चमकते चेहरों को प्यार से निहारा था। एक बार फिर वनमाला के प्यारे मुखड़े को हथेलियों में थाम प्रियहरि ने उसके अधरों को गहराई से झिंझोड़ा और फिर गालों पर विदाई का कोमल चुंबन टांकता उसे अलग किया। अपने दीगर साथियों के प्रवेश के वक्त वे एक-दूसरे से दूर कुर्सियों के त्रिकोण में अपनी पुस्तकों में गड़े यूं देखे गए, जैसे सरोकारों से रहित दो अजनबी इक-दूसरे से बेखबर दो भिन्न लोकों में बैठे हों।

प्रियहरि ने अनुभव कर लिया था कि आगे मुसीबतों और बाधाओं से भरा अंधेरा रास्ता ही है। वह समझ चुका था कि नियति उनका साथ देने नही जा रही है। इस घटना से वनमाला बेहद विचलित और इसीलिए सतर्क रहने लगी थी। जानबूझ कर उसने इस तरह का व्यवहार शुरू कर दिया था, जिससे यह प्रकट हो की वह अब प्रियहरि को दूर रखना और उससे दूर जाना चाहती है। इधर प्रियहरि था कि खुलेआम वनमाला पर प्यार लुटाने आमादा था। वह समझ रहा था कि वनमाला के अन्दर वह नहीं है, जो बाहर उसमें दिखाई पड़ रहा हैं। दूर जाने के बजाए पूरी तौर पर समर्पित किए वह अपने को गहराई से वनमाला में डुबाए जा रहा था। तब भी कभी-कभी उसका धीरज टूट जाता था और मन बिखर जाता था। वह पशोपेश में पड़ जाता कि जिसे वह अभिनय समझ रहा है कहीं वह वनमाला का असली चेहरा ही तो नहीं हैं। वह आस्वस्त नहीं हो पाता था कि वनमाला भी क्या उसे उतनी ही गहराई से चाहती है, जितना वह वनमाला को चाहता है। वनमाला सारा कुछ बहुत अच्छी तरह महसूस करती थी लेकिन भविष्य से इस कदर भयभीत थी कि इस मुद्‌दे पर बात करने का मौका जब भी आता, वह टाल जाती थी। कभी-कभी तो वह कर्कश भी हो उठती थी।
तब कहती - ''छोड़िए न इन बातों को। क्या हम लोगों के पास उस एक के अलावा कोई और राह नहीं जिसपर ले चलने के लिए आप बार-बार मेरे पीछे पड़े रहते हैं ?'' - या फिर यह कि -''प्रियहरि यथार्थ की दुनिया में आओ प्लीज़। जो तुम चाहते हो वह संभव नहीं हैं। या फिर यह कि - मैने तो उस तरह से कभी सोचा ही नहीं, जैसा आप अपनी कल्पना और आग्रहों में सोचते रहे हैं। बताइए मैं आपके साथ क्या करूं? अब इस मामले में बात करना मुझे पसन्द नहीं हैं। आप कवि हैं और अपनी कल्पना में स्वतंत्र हैं ,.वगैरह।''


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''अ.......रे...... मैं आपको कैसे समझाऊँ?
आप समझते क्यों नहीं?''


प्रेम की तरंग और उनका असर भले ही स्त्री और पुरुष के हृदय में समान आवेग से ही छिपा होता है। लेकिन जहां तक परिस्थितियों का संबंध हैं, स्त्री की परिस्थितियां जटिलतर होती हैं। इसीलिए चाहती हुई भी स्त्री पुरुष के फन्दे से बचना चाहती है। वनमाला इसका अपवाद न थी। उसे अपने घर और घरवाले की कल्पना से बड़ा भय होता था। जब-जब भी वनमाला के इतर संबंधों पर शक को लेकर उसका आदमी उसपर कहर बरपा करता था, तब-तब उसका गुस्सा और नफरत उसी आवेग से प्रियहरि पर टूट पड़ते थे। वनमाला के व्यवहार से आहत प्रियहरि अपने भटकाव को छिपाए गहरी उदासी में खुद को डुबाये रहने का आदी हो चला था। बार-बार वह दयनीय स्वरों में वनमाला से कहता -''आह, वनमाला वह मेरी खुद की भूल थी। मैने कभी यह कल्पना तक नहीं की थी तुम इतनी क्रूर और निष्ठुर हो सकती हो। काश मैं जान पाता कि तुम्हारे हृदय में मेरे प्रेम के लिए गहरी नफरत के अलावा और कुछ भी नहीं ।''
प्रियहरि इस बात को लेकर वनमाला के पीछे पड़ा रहता कि वह एक बार साफ-साफ कह दे कि उसे प्रियहरि से नफरत है ताकि वह निश्चिन्त हो जाए और वनमाला से सचमुच कोई संबंध न रखें । यह भी कि एक बार यह अगर निश्चिन्त हो जाए तो वह अपने दुर्भाग्य को ढोता खुद को वनमाला से दूर रखेगा। लेकिन नहीं, वैसा कभी न हो पाता। प्रियहरि का आग्रह वनमाला हर बार बड़ी सफाई से टाल जाती। वह कहती-''अ.......रे...... मैं आपको कैसे समझाउं ? आप समझते क्यों नहीं? मेरे कहने का वो मतलब नहीं था। सच केवल इतना है कि न मैं आप से प्यार कर सकती हूं, और न आप से नफरत कर सकती हूं।''
पशोपेश को और बढ़ाते अनिश्चय में ढकेलते वनमाला के ऐसे शब्द प्रियहरि को उदासीनता के अकेलेपन में ढकेलते वनमाला से दूर कर जाते थे। अकेला वह अंधेरे में घुटता होता। उसने वनमाला से बात करने से परहेज करना शुरूकर दिया। जब वह सामने होती, तब वनमाला की निगाहों से खुद को बचाता शून्य में कहीं और देखता होता। यह अजीब बात थी कि ऐसे मौकों पर प्रियहरि के हृदय में बसी उदासीनता फौरन वनमाला की आंखों अन्दर भी जा बैठती थी। जब भी मौका होता वह ऐसी हालत में प्रियहरि को अपनी सफाई खुद देती नजर आती -'' उफ.... ओह... प्रियहरि। आख़िर मैंने आपसे ऐसा क्या कह दिया कि आप मुझसे नाराज हो गए । या कभी-कभी यह कि -''उन सब बातों को भूल जाइए न प्लीज़। आाप उन बातों को अपने दिमाग में बिलकुल न रखें । वह कहती -आप तो छोटी-छोटी बातों का बुरा मान जाते हैं।''
कभी वह प्रियहरि को मनाती अपनी कमजोरियां उजाकर करती कहती - ''मुझे जब गुस्सा आता हैं तब भगवान जाने क्या हो जाता है। अपने गुस्से पर मैं काबू कर नहीं पाती और तब मुझे होश नहीं रहता कि मैं क्या-क्या कहे जा रही हूं। जो भी मुह में आता हैं मै बोल जाती हूं। आप मेरी बातों का बुरा न माना कीजिए ....चीज़ों को समझा कीजिए न प्लीज़।''
प्रियहरि की उदासीनता और दिमागी बेचैनी को इन सब से राहत तो मिलती नहीं थी बल्कि अब वह 'हां' और 'नहीं' के बीच पशोपेश की हालत में गमज़दा रहने का आदी हो चला था। ऐसे मौकों पर वह विस्मित हो अपने आप से पूछता -कि आखिर यह रहस्यमयी है कौन ? उन दोनों के बीच यह कैसा संबंध हैं ? वनमाला वैसा व्यवहार क्यों करती हैं ? अपनी प्रिया के चेहरों में से किस पर वह यकीन करे -इस या उस । जो था, उसे नियति ने ही शायदवैसा रच रखा था। वह सोचता कि दोनों के बीच जो हालात हैं वे वैसे ही अनिर्णय के क्यों रहें आते हैं। वह सोच कर कि शायदऐसे हालातों से उसे तब तक गुजरना होगा जब तक वनमाला को चित्त में बसाये और उससे संबंधो को ले कर बसी पहेलियों और सवालों से भरे मन के साथ बेचैन वह इस दुनिया से दूसरी दुनिया में नहीं चला जाता। उसके खयाल में आता कि मृत्यु के समय वैसी दुनिया और कष्ट भरी ज़िन्दगी को समेटे किसी की क्या हालत हो सकती हैं इसे केवल वे ही समझ पाएंगे जो ऐसी दुर्घटनाओं से गुजरे हों। काश , वनमाला भी उनमें होती। प्रियहरि लगातार गहरे अवसाद और विचलन से परेशान था। राहत पाने उसने गर्मियों में यात्रा पर चले जाने और ध्यान की पद्धति का सहारा लिया । ऐसे ही वह देहरादून और ऋषीकेश में समय बिता कर लौटा था। ध्यान की ओट में वनमाला की ओर से अपने चित्त को टालने की कोशिशें अब वह किया करता था। वनमाला सामने भी होती तो प्रियहरि उसे अनदेखा करता तटस्थ रहा आता। वनमाला प्रियहरि की इस मुद्रा पर लगातार गौर करती आई थी। एक दिन जब प्रियहरि वनमाला को अनदेखा करता यूं ही तटस्थता की राहत में था, उसके चित्त को पढ़ती सामने बैठी वनमाला मुस्कुरा उठी। एक निगाह उसने प्रियहरि पर डाली और जैसे उससे नहीं बल्कि हवा से बातें कर रही हो उसने मजा लेते यह टिप्पणी उछाल दी
''-क्या बात है कि जब से हमारे प्रियहरि जी ऋषीकेश से लौटे हैं, उन्होने किसी से बात करना तो क्या किसी कि तरफ देखना भी छोड़ दिया है ?''
वह कह रही थी-'' अब तो ऐसा लगता हैं कि ये सन्यासी हो गये है, अब किसी से क्यों बातें करेगें ?''
केवल कुछ महिला-मित्र जो वनमाला के लिए हानि-रहित थीं, उसके अगल-बगल बैठी थीं। वनमाला इसका खयाल रखती थी कि प्रियहरि से जब यूं चुहल कर रही हो तब वहां केवल उसकी ऐसी हानि-रहित सहकर्मी मौजूद हों, जो उसके अपने प्रेमी से संबंधों के मामले में दिलचस्पी न रखती हों। या फिर वह ऐसा मौका ढूंढ़ती जब वह और प्रियहरि अकेले साथ मौजूद हों। वनमाला को प्रियहरि इतना चाहता था कि उसकी छोटी से छोटी चुहल प्रियहरि को विचलित और उदास कर जाती थी।
परीक्षाएं खत्म होने को आ रही थीं। प्रियहरि ने वनमाला से बात करने, उसकी ओर देखने से परहेज करना शुरूकर दिया था। उसे इस बात का मलाल था कि वनमाला केवल उसे छेड़ती ही हैं उससे प्यार नहीं करती। उसका मन इस शिकायत से भरा था कि उसकी अपनी परेशानियों से वनमाला कोई सरोकार नहीं रखती।
यूं ही दो चार रोज गुज़र गए। अपने प्रति अपने उदास प्रेमी के बदलते मूड और उपेक्षा भरे रवैये को देखती खुद भी बेचैन वनमाला ने एक रोज प्रियहरि से बातें शुरूकरने की पहल की - ''प्रियहरि, मेरा एक छोटा सा काम हैं आप कर देगें क्या प्लीज़..........।''
वनमाला को पिघलता जान प्रियहरि मान से भर उठा था। सिर झुकाए वह यूं अपना काम करता रहा, जैसे वनमाला वहां मौजूद ही न हो।
रूठे हुए प्रियहरि को मान से भरा पाकर चतुर वनमाला मुस्कुराई। उसे मनाना आता था। वह प्रियहरि से मुखातिब हो फिर बोली - ''ए..ई प्रियहरि.., आप मुझे सुन नहीं रहे हैं क्या ? मैं आप ही से बात कर रही हूं।''
प्रकट में वनमाला को अनदेखा किये भी, लेकिन उदासी में उत्सुकता से धड़कते हुए दिल से प्रियहरि ने जवाब दिया - ''कहो, क्या कहना है।''
''मुझे अपने किसी परिचित के लिए एक पुस्तक की ज़रूरत है''- अपनी बात साफ करते हुए आगे वह बोली-'' मेरा मतलब है कि वे हमारें पारिवारिक डॉक्टर हैं। आप अपने श हर में तलाश कर मेरे लिए वह पुस्तक ले आएंगे क्या।''
रूपयों के कुछ नोट दबाये वनमाला की हथेली प्रियहरि तक बढ़ी हुई थी।
'' और भी लोग तो हैं उनसे कह दो ले आयेगे। चित्रकार छैला भी तो तुम्हारा बहुत करीबी हैं। तुम उससे क्यों नहीं कहतीं '' -प्रियहरि ने जवाब दिया,
वनमाला बोली - ''नहीं, मैं आप ही से यह काम कराना चाहती हूं, आप अगर नहीं करेंगे, तो मैं किसी और से भी नहीं कहूंगी ।''
प्रियहरि ने वनमाला की आँखों में झाकते उस अलिखित संदेश को पढ़ना चाहा जो उन आंखों में छिपा था । वहां शिकायत भी थी और रूठे हुए के लिए दिलासा भी थी । लिखा था कि ''तुम कितने नादान हो प्रियहरि। मेरे मन की भाषा तुम क्यों नहीं समझते ? तुम तो हल्के-फुल्के मज़ाक को भी दिल में बिठा लेते हो। मेरे शब्दों पर क्यों चले जाते हो। निरे पागल हो। तुम यह भी नहीं समझते कि शब्दों से परे यह वनमाला तो तुम्हारे साथ है।''
वनमाला की आंखों ने प्रियहरि को समर्पण के लिए मजबूर कर दिया था। उन आंखों के जादू से वह बच नहीं पाया।


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'' अच्छा, आप यह बताइये कि हम दोनो में से आप किसको ज्यादा चाहते हैं ?''
: मन्जूषा


प्रेम का संक्रमण, प्रेम के रोग को फैलाता है। समूचा माहौल ही उससे संक्रमित हो जाता है। यह बड़ी विचित्र बात है कि प्रेमियों के इर्द-गिर्द बैठे वे लोग जो जाहिरा तौर पर ऐसे संबंधों की आलोचना करते हैं खुद अपने आप को विपरीत लिंग के उस स्त्री या पुरुष की ओर अधिकाधिक आकर्षित होता पाते है जिसकी वे आलोचना कर रहे होते हैं। प्रेम अनिवार्यतः ईर्ष्या को जन्म देता है। प्रेमी-जन एक दूसरे से जल उठते ह, जब वे पाते हैं कि कोई तीसरा उन दोनों के बीच सेंध मारने की कोशिश कर रहा है। ऐसी हालत में प्रभावित प्रेमी भयानक ईर्ष्या से भरा असहिष्णु हो उठता हैं। दूसरी तरफ पास बैठे लोग जैसे ऐसे ही मौकों की तलाश में हुआ करते हैं। यह मौका बीच में घुसने और ज़रूरत के मुताबित अनबन में पड़े दिखाई दे रहे प्रेमी-युगल से जरूरत के मुताबित किसी एक प्रेमी को छीन लेने का मुफ़ीद अवसर होता है। तमाशबीनों को यह पता होता है कि प्रेमी-युगल के गहरे प्रेम-संबंधों के बावजूद ऐसे ही मौकों पर किसी एक प्रेमी को तोड़ा जा सकता हैं। प्रियहरि ने अनेक बार वनमाला को सावधान किया था कि वह सतर्क रहा करे और अपने गुस्से का इज़हार उस तरह सबके सामने किया न करे जिससे औरों के दिमाग में श क पैदा हो, लेकिन वनमाला थी कि समझती ही न थी। प्रियहरि की सलाह को दरकिनार करती वह कहती - ''आप बेकार परेशान होते हैं। कोई इस तरफ ध्यान नहीं देता और न कुछ वैसा समझता जैसा आप सोचते हैं।''
परीक्षाओं के दौरान वह पहला अवसर था जब वनमाला और प्रियहरि को पास आता देख मन्जूषा बीच में आ पड़ी थी। अफसर और सहायक की तरह प्रियहरि और वनमाला का पास-पास बैठना और एक दूसरे से बतियाना आम बात थी। उस दिन मन्जूषा ने जब दोनों को इस तरह घुलता हुआ पाया था तब दोस्ताना आवाज में लेकिन विस्मय से भरी आंखों के साथ वह वनमाला पर चीख पड़ी थी - ''हाय रे ,माइ डीयर वनमाला ! तुम प्रियहरि जी के बगल में ही कैसे बैठ गई हो ? चलो उठो वहां से और इधर दूसरी ओर यहां मेरे पास आकर बैठो। तुम जानती नहीं क्या कि वे तुमसे कितने ज्यादा वरिष्ठ और बड़े हैं।
यह वही मन्जूषा थी, जिसे कभी यूनिवर्सिटी में काम के दौरान उसके साथ बैठा एक दबंग पंडित मित्र ने श रारत से प्रियहरि पर छींटा कसा था - ''यार, तुमसे बड़ी लगी हुई दिख रही है। कौन है यह रमणी, जो बहुत हंस-हंस कर तुमसे चुहल करती मजा ले रही है ? क्या बात है, वाह ! गजब की खूबसूरत है यार तुम्हारी यह चहेती। सफेद साड़ी में लिपटी यूं दिखाई पड़ रही हैं जैसे साक्षात्‌ सरस्वती है, जो तुम्हे छेड़ रही है। अच्छा पटाया है तुमने इसे। किस्मत वाले हो तुम।''
पंडितजी की ख्याति शिक्षित-समाज में मुंहफट और झगड़ालू व्यक्तित्व की रही आई थी लेकिन जहां तक प्रियहरि का तआल्लुक था, पंडितजी से उसके बहुत अच्छे संबंध थे। यह शास्त्रीजी एक विद्वान की तरह प्रियहरि को मानते और पेश आते थे।
मन्जूषा का तबादला अब कहीं और हो चला है। खुबसूरत रमणीय चौकोर सुचिक्कण चेहरा, शरारत भरी आंखें और गुलाबी होठो में समाए तरासे हुए खूबसूरत दांतों की पंक्ति। सब मिलाकर रंगीन आकर्षक व्यक्तित्व की धनी मन्जूषा। न तो उसे दुबली कहा जा सकता था और न तो मोटी देह की। बनावट यूं ठोस और तरासी हुई थी कि उसे परंपरागत भारतीय समाज की खूबसूरत आम स्त्री की छबि में देखा जा सकता था। प्रियहरि से मन्जूषा के संबंध बिलकुल खुले और तनाव रहित थे। मन्जूषा कोई बात अपने दिल में छिपाकर नहीं रख सकती थी। ऐसी खुली और वाचाल थी कि जो भी बात उसके दिमाग में आती, बिना किसी मुलम्मे के अपनी ठेठ जुबान में वह बे-लिहाज बोल जाती थी। यही मन्जूषा बहुत दिलचस्पी के साथ प्रियहरि और वनमाला के संबंधों पर गौर किये जा रही थी। प्रियहरि को उन दिनों की वह घटना कभी नहीं भूली जब वे उस जगह साथ-साथ काम कर रहे थे । वह एक खुशनुमा सुबह थी। प्रियहरि अकेला स्टाफ-रुम में किनारे की खिड़की के पास बैठा था, जब उसने देखा कि मन्जूषा अपनी दूसरी सहचरी सुचिता को साथ लिये प्रवेश कर रही हैं। उसके ठीक विपरीत कोने पर टेबल से लगी वे दोनों बैठ गई थीं। कुछ देर खामोशी बनी रही। प्रियहरि ने तब पाया था कि एक दूसरे की आंखों में झांकती दोनों रमणियां जैसे बड़ी गंभीरता से पशोपेस को हटाकर किसी निर्णय पर पहुंचने के लिये मौन संवाद में व्यस्त थीं। फिर अचानक प्रियहरि को जैसे किसी गंभीर आवाज ने संबोधित किया था। यह मन्जूषा थी, जो उससे पूछ रही थी - ''प्रियहरि सर, बहुत व्यस्त हैं क्या ? अगर आप बुरा न मानें तो आपसे एक बात पूछनी थी।''

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