एक आदिम भय का कुबूलनामा - PART - II

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''इसमें क्या है। तुम्हें जो पूछना हो बेहिचक पूछ सकती हो ''-प्रसन्न मन प्रियहरि ने जवाब दिया।
'' नहीं, पहले मुझसे वादा कीजिए कि आप टालेंगे नहीं और ईमानदारी से सच-सच जवाब देंगें ''
अब प्रियहरि के चौंकने की बारी थी। आखिर ऐसी क्या बात हो सकती थी जिससे चंचला मन्जूषा आज इतनी गंभीर हुई पड़ रही है। मन्जूषा तो इतनी बिन्दास थी कि बेहिचक जो चाहे प्रियहरि से कह दिया करती थी। उसका मिजाज हंसमुख था, जिससे चलते फिरते प्रियहरि को सताने की उसकी आदत हो चली थी। आखिर नई बात क्या हो सकती थी ?
''आखिर तुम उसके लिये इतनी भूमिका क्यों रच रही हो। जो पूछना है पूछ लो.....''- प्रियहरि ने कहा।
'' नहीं, आपका कोई भरोसा नहीं। पहले आप वादा कीजिए कि आप सच-सच जवाब देंगे। आप टालेंगें नहीं या कोई बहाना नहीं बनायेंगें ''- मन्जूषा ने प्रियहरि की आंखों में झांकते हठपूर्वक कहा। मन्जूषा की गंभीरता से अब प्रियहरि भी घिर आया था। उसने सोचा कि आखिर मन्जूषा अपनी गम्भीरता के प्रति आज इतनी आग्रहशील क्यों है ? मामला क्या हो सकता है ? प्रियहरि की समझ से वह सब परे था। फिर भी बड़ी लापरवाही से उसने जवाब दिया –
'' ओके आइ प्रामिस्‌ । अब बता भी जाओ कि बात क्या है ?''
मन्जूषा कुछ संकोच में थी। उसके चेहरे पर सहमी हुई लालिमा ठहर गई थी। आवाज़ भारी हो चली थी। उसने पूछा - '' अच्छा, आप यह बताइये कि हम दोनो में से आप किसको ज्यादा चाहते हैं ?''
प्रियहरि इस तरह के प्रश्न के लिए तैयार न था। दरअसल इस बारे में कभी उसने सोचा भी न था। हिचकते हुए उसने जवाब दिया -''इसमें क्या बात है ?'' मैं तुम दोनो को चाहता हूं । मेरे साथ तुम एक साथी के रूप में बहुत लंबे समय से पास रही हो और जहां तक इनकी बात है, ये मेरी पत्नी की ससुराल की जगह से हैं और इसलिए स्वभाविक रूप से मुझसे जुड़ी हैं। ''
इस दौरान सुचरिता दिल और आंखों को थामे बड़ी जिज्ञासा से प्रियहरि को देख रही थी।
मन्जूषा मुस्कुराई और चंचलआँखोंसे प्रियहरि को देखती हुई बोली -''प्रियहरि आप अब चालाकी कर रहे हैं। मैं जानती थी कि आप ऐसा ही जवाब देगें। ''
उसने कहा - '' आप भूल गये हैं कि आपने हमसे सच बोलने का वादा किया है। आपको साफ-साफ और बिना किसी हिचक के यह बताना है कि हम दोनो में से एक कौन, दोनो नहीं। दो-दो नहीं चलेंगी।''
मन्जूषा ने प्रियहरि को पशोपेश में डाल दिया था। उस बारे में आखिर वह क्या कह सकता था ? उसने तो इस पर कभी सोचा ही न था। उसकी निगाह में तो वनमाला के सिवा वहां कोई और था ही नहीं।
उसने जवाब दिया - '' क्यों ? जो मुझे लगा वह मैने कह दिया। दरअसल इस बारे में सोचने का कभी मौका ही न मिला। ''
'' आप झूठ बोल रहे हैं। देखिये, ये बात ठीक नहीं है आने वचन दिया है और पीछे हट रहे हैं। आपको अभी इसी वक्त निर्णय करना है और बताना है कि कौन ? हम दोनों में से किसका साथ आपको ज्यादा पसंद होगा -सुचरिता का या मेरा ? एक साथ आप हम दोनों को नहीं रख सकते। आपको हममें से केवल एक को चुनना है। अब बताइये यह या मैं ?''
प्रियहरि के मुंह से अचानक निकल पड़ा - '' तुम ।''
वह नहीं जानता था कि ऐसी कौन सी बात थी जिसने उसे इस जवाब के लिए प्रेरित किया। वह प्रियहरि के साथ मन्जूषा का साहचर्य और खुला संबंध था, या मन्जूषा की लुभाने वाली सुपुष्ट दूधिया देह को भोगने का रुझान ?उस दिन के अपने निर्णय पर प्रियहरि को हमेशा उलझन रही आई। अचानक उसके मुख से ठीक वैसा क्यों निकला ? यूं प्रतीत होता है, जैसे उस दिन मन्जूषा और सुचरिता के बीच कोई गोपनीय शर्त रही आई होगी। अब तक दोनो रमणियां उत्सुकता पूर्वक प्रतीक्षा में थीं, लेकिन जवाब मिलते ही मन्जूषा की आंखों में खुशी की चमक लहरा उठी थी।
मन्जूषा का चेहरा प्रसन्नता से अब चमक उठा था। जैसे वह जीत गई हो, लगभग उछलती हुई उसने सुचरिता के चेहरे पर निगाह डालते घोषित किया -'' देखा, मैने तुमसे कहा था न। मै जानती थी प्रियहरि मुझे ही पसंद करेंगे।''
सुचरिता का चेहरा अचानक धूमिल हो उठा था। उसकी आंखें बदरा गई थीं। बगैर कुछ कहे उसने आंखों में अलिखित पीड़ा के साथ प्रियहरि की आंखों में झांका। उन आंखों का सामना करने का साहस प्रियहरि में न था। वह गहरे संकोच में पड़ गया था। अब भी जब कभी प्रियहरि का सामना यहां-वहां कही अचानक सुचरिता से होता है तब अतीत के उस क्षण की स्मृतियां दीवार बन दोनों के बीच इस तरह आ पड़ती है कि दोनों के सामने धर्मसंकट हो आता है। ऐसे मौकों पर प्रियहरि अपने आपको इस बात के लिए शर्मिन्दा और अपराधी महसूस करता है कि उस दिन उसने सुचरिता की आकांक्षाओं को अपने चुनाव से वंचित क्यों कर दिया ? सुचरिता की आंखों में हमेशा के लिये शिकायत वह क्यों छोड़ गया था ?


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उसकी मुद्रा उस वक्त यूं हो गयी थी जैसे उसने अपनी कल्पना में वनमाला की जगह खुद
अपने को प्रियहरि के साथ बिस्तर में भोगरत पाया हो।


शुरू से ही प्रियहरि के मन में यह शंका थी कि उसकी प्रिया वनमाला की आदत अपने निजी गोपनीय संबंधों को अपनी कुछ महिला सहकर्मियों से उजागर करने की है। कहना मुश्किल था कि वह वैसा क्यों करती थी। संभवतः वैसा करने के पीछे उसमे छिपा स्त्री का वह स्वभाव काम कर रहा होता था जो अपयश के भय से पुरुष-समाज में तो खुले आकाश में उड़ने की अपनी महात्वाकांक्षाओं को छिपाए रखता है किन्तु स्त्री-समूह के बीच अपनी आकर्षण-क्षमता और आकांक्षाओं का प्रदर्शन करता संगिनियों को जलाता यह आभास कराता है कि मुझमें वह कुछ है जो तुम्हे हासिल नहीं है। मन्जूषा और अनुराधा उसकी ऐसी ही सहेलियां थीं, जिनसे वह यूं खुली थी।
प्रियहरि को याद आया कि अपने स्वभाव की गंभीरता और मौन में छिपी रहने वाली वनमाला की मौजूदगी में एक बार मन्जूषा ने अपनी शरारती आंखों से ताकते ताना दिया था -'' प्रियहरि जी तो ऐसे ही हैं। उनका क्या है ? वे तो कवि हैं। जो भी मन में आता है वे लिख जाते हैं।''
प्रियहरि तब समझ गया था कि जरूर मन्जूषा का इशारा वनमाला पर लिखी उस कविता की तरफ था, जिसमें उसने वनमाला को हम-बिस्तर सहचरी की तरह चित्रित किया था। जरूर वनमाला के चित्त में भी वह कविता तैर रही थी। मन्जूषा की ऐसी हिम्मत की कल्पना उसे भी नहीं रही होगी। मन्जूषा के बगल में छुई-मुई सी लजाती वनमाला मौन खड़ी रही थी।
वनमाला के मौन में छिपे पशोपेश पर मन्जूषा जैसे वकील की तरह प्रियहरि से मुखातिब थी - '' हाए रे.. , मैं बता नहीं सकती। न जाने मुझको तो कैसा-कैसा लगता है। प्रियहरि जी भला ऐसा लिख कैसे जाते हैं ?''
मन्जूषा के खुद के चेहरे पर हया उतर आई थी। उसकी मुद्रा उस वक्त यूं हो गयी थी जैसे उसने अपनी कल्पना में वनमाला की जगह खुद अपने को प्रियहरि के साथ बिस्तर में भोगरत पाया हो। शिकायत में प्रियहरि को प्रश्नित करती उसकी आंखें शरमाई पड़ रही थीं और भरे चेहरे पर गालों के उभार में अतिरिक्त लालिमा चढ़ी जा रही थी।
वनमाला को मन्जूषा सयानी सहेली की तरह संबोधित कर रही थी -''ये तो बस ऐसे ही हैं। लेकिन डियर वनमाला रानी, तुम्हें अपने आपको इनसे बचाकर रखना चाहिए।''
प्रियहरि सोच रहा था कि 'बचाकर' कहती मन्जूषा के चित्त में उस वक्त बचाने की वह कौन सी चीज़ लहरा रही होगी । अपनी समझ में मन्जूषा जिसकी ओर से वकालत कर रही थी, अविचलित, वह वनमाला मौन और गंभीर रही आई थी। मन्जूषा की नसीहतों के दौरान उसकी आंखें अर्थ भरी दृष्टि लिए केवल प्रियहरि की आंखों में झांक रही थीं। इधर मन्जूषा थी कि वनमाला को चेतावनी देती हुई भी अपने नाज़-ओ-नखरों के साथ प्रियहरि को छेड़ती मजे ले रही थी।
मन्जूषा का स्वभाव ऐसा ही था। प्रियहरि को याद आया कि किसी पहले भी कभी मन्जूषा अज्ञात प्रेरणा से वनमाला की शुभचिन्ता में उन दोनों के बीच आ पड़ी थी। उस वक्त कोई निहायत मासूम और कमसिन एक खूबसूरत लड़की अपनी पढ़ाई के मामलों मे प्रियहरि के साथ बातों में लगी थी। प्रियहरि का मन भी पूरी तौर पर सामने उपस्थित के साथ लगा था। तभी अचानक वहां खड़ी वनमाला से मन्जूषा प्रियहरि की ओर संकेत करती बतिया रही थी -'' देखा, देख लिया न? मै तो कहती हूं कि ये मर्द लोग ऐसे ही होते हैं। सब एक से होते हैं।''
मन्जूषा का आशय प्रियहरि ने समझ लिया था। अपने खिलाफ वनमाला को इस तरह उकसाने की मन्जूषा की हरकत उसे पसन्द नहीं आई थी। खीझ कर उसने टोका था -'' इसमें ऐसी कौन सी गंभीर बात है ? तुम आखिर ऐसा क्यों कह रही हो और किसके बारे में कह रही हो ? मै जो हूं , मेरी जो निष्ठा है , उस पर किसी को विश्वास होना चाहिए। अर्थ में अनर्थ आखिर लोग क्यों ढूंढने लगते हैं और किसी को ऐसा क्यों करना चाहिए।
वैसा कहते हुए क्षण-भर को प्रियहरि की आंखें वनमाला की आंखों से मिली थीं। मन्जूषा को चिढ़ाते हुए मानो उस वक्त वनमाला के प्रति घोषित वफादारी से प्रियहरि अपनी प्रिया को तसल्ली देता उसका मन जीत रहा था।
वनमाला उस सब के दौरान प्रियहरि को देख रही थी। उसने एक श ब्द भी न कहा था। इधर मन्जूषा थी कि प्रियहरि की झिड़की उसे नागवार गुजरी थी। जल्दबाजी में वह बडबड़ा उठी थी ''-ओ.के बाबा, अब मैं तुम दोनो के बीच नहीं आऊँगी। मुझको तुम लोगों से क्या करना है? मै तो कहती हूं तुम्हारी जोड़ी जुगजुग सलामत रहे।''
प्रियहरि कभी यह न समझ पाया कि मन्जूषा के हृदय में क्या छिपा था ? क्या वह उसकी शुभचिन्तक थी या प्रियहरि और उसकी प्रिया वनमाला के प्रति उसके मन में मीठी ईर्ष्याथी ? ऐसी कौन सी बात थी, जो मंजूषा को प्रियहरि के खिलाफ वनमाला को सलाह देने, तसल्ली देने और आगाह करने उकसाती थी ? जो भी हो मन्जूषा के रहते चीजें यूं ही चलती रही थीं। प्रियहरि से अलग होकर कहीं और चली जाने के बावजूद मन्जूषा वैसी ही चंचल, खुश और प्रियहरि के साथ संबंधो में बिन्दास रही आई थी। पहेली अब भी बरकरार है कि आखिर क्या ऐसा क्या था जिसने मन्जूषा को प्रियहरि से यह पूछने के लिए प्रेरित किया था कि वह उसके और सुचरिता के बीच किस एक को चुनना और पाना पसन्द करेगा।

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यह समझना मुश्किल था कि वनमाला की वह खीझ किस पर थी ?

निकलना खुल्द से आदम का सुनते आए थे लेकिन ।
बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले ॥
- मिर्जा गालिब


जन्मदिन पर वनमाला प्यार में मदमस्त गर्वोन्नत थी - प्रसन्न, और प्रियहरि भी । उस पल फिर प्रतीक्षा और मिलने की ख्वाहिश के साथ वे दोनों अलग हुए थे । लेकिन परीक्षाओं के दिन कितने थे ? भीड़ के बीच मुलाकातों का वही पुराना ढर्रा शुरू हो गया। प्रियहरि का वनमाला के बगैर रहना मुश्किल था । वनमाला से प्यार भरी मुलाकातों की ख्वाहिश उसे मारे डाल रही थी ।
वनमाला की चेतावनी के शब्दों को कि - ''ऐसा होना नहीं चाहिए । मेरे मिस्टर ने पूछा कि उपहार कहां से आए तो मैं क्या कहूंगी ? असलियत जान गये तो वे मुझे भी मार डालेंगे और आपको भी'' - याद करता भी प्रियहरि भूला जा रहा था । दिन काटे न कटते थे और रातें काटने दौड़ती थीं । दीवाली में प्रियजनों को शुभकामनाओं के कार्ड भेजते उसने शेष बचे एक को साहसपूर्वक वनमाला के नाम घर के पते ही भेज दिया । चालाकी बस इतनी कि उसके साथ उसके भयानक पतिदेव का नाम भी दर्ज कर दिया ताकि वह महज सद्‌भावना प्रतीत हो । ग्रीटिंग का वह कार्ड कलात्मक था । कांगड़ा शैली की राधा और कृष्ण की युगल तस्वीर उस पर छपी थी।
दीवाली की छुटि्‌टयां बीत चली थीं। उस बाद के दौर में वनमाला दुचित्तेपन के मूड के साथ प्रियहरि से कभी झगड़ती और कभी प्यार से उसे सहलाती रही थी । उसका गुमसुम रहा आना प्रियहरि को दुखी करता था। संस्था में काम के घंटों के बीच का अन्तराल इतना संक्षिप्त हुआ करता कि वह वनमाला से फुरसत में बातें कर सके। यूं ही बेचैनी में उसके दिन कटते गये थे। वह अक्टूबर का तकरीबन आखिरी दिन था। कामकाज की छुट्‌टी जल्दी कर बारह बजे के बाद उस दिन प्रियहरि सीधे वनमाला के दरवाजे पर जा पहुंचा था।
प्रियहरि की गणना से यह अनुमान था कि उस दिन सुबह की ड्‌यूटी पर वनमाला के श्रीमान जा चुके होंगे और बेखौफ वनमाला से मिलना हो सकेगा। लेकिन नहीं, वैसा हुआ नहीं । तीन बजे काम से लौटने की जगह उनका दोपहर दो बजे की ड्‌यूटी पर जाना तय था। प्रियहरि से कहा तो किसी ने कुछ नहीं। सौजन्य की बातें ऊपर-ऊपर हो रही थीं , लेकिन अंदर कहीं था, जो कुछ असहज था। उस वक्त प्रियहरि को लगा कि शायदवह गलत समय पर जा पहुंचा था। वनमाला के बच्चे '' अंकल-अंकल'' पुकारते प्रियहरि के साथ बड़ी दिलचस्पी के साथ बातें कर रहे थे। अचानक वनमाला के मिस्टर की खीझ बाहर आई। नाराज़ होते हुए वे बंगला भाषा में पत्नी से उन्मुख हुए ।
''ये इन्हें अंकल क्यों कह रहे हैं ? किसने सिखाया है इन्हें ?''
''क्या हो गया कह रहे हैं तो ?'' वनमाला ने अपने मिस्टर को समझाना चाहा।'
उसके मिस्टर बड़बड़ाए -''ये हमसे काफी बड़े हैं। इन्हें अंकल नहीं कहना चाहिये।''
प्रियहरि पशोपेश में पड़ गया था। पति-पत्नी के बीच की बहस बंगला में होती और प्रियहरि से वे हिन्दी में बात करते थे। उससे चाय के लिये पूछा गया था। प्रियहरि ने बता दिया कि चाय तो वह लेता नहीं। वनमाला के मिस्टर ने तब कहा कि चाय नहीं लेते तो मैं काफी ले आता हूं, काफी बना दो।
वनमाला का मूड खराब हो गया था। उसने अपने मिस्टर और प्रियहरि का तनिक भी लिहाज किये बगैर आवेश में कहा - ''कोई ज़रूरत नहीं है काफी लाने की। रहने दीजिये। जो चीज़ घर में नहीं है उसके बारे में क्या ज़रूरत है परेशा न होने की ?''
यह समझना मुश्किल था कि वनमाला की वह खीझ किस पर थी ? पति पर , प्रियहरि पर , या अपने आप पर ? वनमाला के पति दफ्‌तर जाने की तैयारी में थे और वह उन्हें खाना खिलाने की तैयारी में। जल्दी-जल्दी खाने की औपचारिकता सी पूरी कर वे निकलने लगे। वनमाला को शायद यह गवारा न था कि उसके पति के न रहते प्रियहरि उसके साथ बैठ सके। उसे किसी भी संदेह की आशंका से खौफ़ था। पति के वहां रहते ही उसने प्रियहरि को भी टालने के लिहाज से अपने मिस्टर से कहा-''इन्हें भी ले जाइये। चौराहे तक छोड़ दीजियेगा।''
वनमाला के पति ने सचमुच देर होने के कारण या वनमाला को चिढ़ाने उसकी बात टाल दी -''नहीं, मुझे देर हो गई है। वैसा न होता तो मैं इन्हें छोड़ देता।''
प्रियहरि से मुखातिब होते उन्होंने कहा-'' आप बैठिये आराम से , मैं निकलता हूं।''
उनके जाने के बाद तनाव और खीझ में भरी विषादग्रस्त वनमाला प्रियहरि से बोली -'' अब आप भी चले जाइये। खुद मुझे भी खाना खाना है और आराम करना है।''
विवश , स्तब्ध, उदास प्रियहरि उसके यहां से उठ पड़ा। उसे महसूस हुआ कि दीपावली में वनमाला की यादों में बेकरार होते अपने दिल को ग्रीटिंग-कार्ड के बहाने जो उसने भेज दिया, वह उसकी बहुत बड़ी भूल थी। वनमाला के नाम के साथ उसके पति का नाम जोड़ना भी कारगर न हुआ था। लिफाफा देखकर ही अलिखित मजमून को बांच लिया गया था। वही वनमाला और उसके पति के बीच तनाव का सबब था। दोनों के बीच ज़रूर उस बात को लेकर इस दौरान झगड़े हुए थे। आज भी उनकी बातों के बीच उस ग्रीटिंग का जिक्र किन्चित व्यंग्य के साथ हुआ था। अवश्य इसीलिये वनमाला इन दिनों उससे बच रहने की फिराक में खिंची-खिंची, अलग-थलग, चिन्तित और उदास रही आई थी।
उस दिन के बाद प्रियहरि लगातार वनमाला के चेहरे पर गंभीर उदासी और खिंचाव देखता रहा था। वह उसकी ओर निहारती जरूर लेकिन एक चुप्पी थी, जिसमें उसकी प्रसन्नता को लील रखा था। वनमाला को अवसादग्रस्त और चिंतित देख प्रियहरि का मन भी रोता था। वह चाहता था कि वनमाला के साथ बैठे, उसके गले से लग जाए और कहे कि तुम्हारा दुख मेरा भी दुख है। तुम इतनी अकेली और उदास क्यों हो? लेकिन मन को मसोसकर वह रह जाता था। विवश ता और आतुरता का द्वंद प्रियहरि के अंदर मानो वनमाला की आंखों में झांकता उतर आता था।

प्रियहरि के लिये वनमाला रहस्यमयी थी। उसे लेकर इसका मन चौबीसों घंटे झंझावातों से घिरा होता था। कभी–कभी उसे ऐसा प्रतीत होता जैसे अपनी चुप्प उदासी में वनमाला शायद उससे भी अधिक झंझावातों से गुजर रही होती थी। वह इतना गहरा हुआ करता था कि उसकी तह तक जा पाना प्रियहरि को असंभव दिखाई पड़ता। वह अन्दर का विचलन ही था जो वनमाला की किंकर्तव्य उदासी की तरह सदैव उसके चेहरे पर छाया होता। वे दिन ऐसे ही थे जब दोनों मिलते, एक–दूसरे में सुलगती आग के उन धुएं से रूबरू होते, पर शब्द होठों पर थरथराकर थम जाते। यही नियति थी।

उस एक दिन अचानक ऐसा संयोग बना बना था कि लरजते होठों से शब्द फूट पड़े थे। दोनों ही नजरें मिलाते और नजरें चुराते एक–दूसरे की उदासी को पढ़ रहे थे कि बाहर कार के रुकने की आवाज हुई और क्षण भर बाद वनमाला की ही हमउम्र एक सांवली कृशकाय लता डोलती हुई अंदर नमूदार हुई।
वह दौड़कर वनमाला से लिपट चली थी और प्रियहरि के सामने ही ’’ हाय कितने दिनों बाद तुझे देख रही हूं। फोन तक करना भूल गई है और लगाओ तो तेरा फोन हमेशा बंद मिलता है। कैसी है तू ’’ कहती उसके गालों पर चुम्बन बरसा रही थी। मिलन की वैसी ही अधीरता वनमाला में भी छाई थी। गहरा आलिंगन और चुंबन दोनों तरफ से बरस रहा था। यह वनमाला के पुराने कालेज की संगिनी अन्शुलता थी। दोनों इस मिलन से अपार खुश थीं। इस खुशी की लहर का छींटा प्रियहरि तक भी पहुंच चला था। वनमाला ने आत्मीयता से प्रियहरि की आंखों में झांका और प्रशंसापूर्वक उसका परिचय अन्शुलता से कराया । अन्शुलता की निगाहें उत्सुकता की दिलचस्पी में जैसे प्रियहरि को तौल गई थीं।
कहीं कुछ ऐसा न था जिसमें यह आभास हो कि तब वनमाला और प्रियहरि के बीच कहीं दूरी हो। अन्शुलता के आने का फायदा यह हुआ कि बातचीत का सिलसिला फिर चल पड़ा। अक्सर वैसा होता था। रूठी हुई मौज को बाहर आने का बहाना दोनों के अंदरूनी मामलों से बेखबर किसी तीसरे के आकर पुल बना जाने से होता था। अन्शुलता के जाने के बाद उसी के बहाने वनमाला और प्रियहरि के बीच तफसील से बातें हुई थीं। इस तरह जैसे किसी से किसी की कोई शिकायत न हो।
प्रियहरि वनमाला से कह रहा था – “बताऊँ ? तुम्हारी वह अन्शुलता जब तुमसे लिपट बेतहाशा चूम रही थी तो मुझे उससे बेहद जलन हो रही थी।’’
’’ क्यों ? भला आप को जलन क्यों होनी चाहिये ?’’
’’ इसलिये कि तुम्हारे साथ वह जो कर रही थी उसपर तो केवल मेरा अधिकार था।जी करता था उसे परे
ढकेलूं और वैसे ही लिपट दोनों के बीच की सारी कसर निकाल डालूं।’’
वनमाला खिलखिला पड़ी।
’’ हां। खयालों में तो मेरे भी वैसा ही मौसम आ चला था। अब पछताइये। वक्त तो चूक गया।’’
वनमाला ने बताया कि उसकी वह सहेली क्रिस्चियन थी और मिलन की खुशी में वैसा चुम्बन प्रचलित रिवाज ही था।’’
’’ बाबा रे, क्या आवेग था उसके लिपटने और तुम्हें चूमने में। तुममें भी तो वैसा ही ज्वार उमड़ा था। मुझे तो ऐसा लगा कि आगे तुम दोनों के बीच बस वह दृश्य अब उपस्थित होने ही वाला है। ’
’’ छि: आप बड़े वैसे हैं ’’– वनमाला बोली।
’’ क्या उसे तुमने हम दोनों के बारे में और कुछ कहा था ?’’
’’ क्यों ? मैने तो कुछ नहीं बताया था।’’
’’ मुझे ऐसा लगा कि उन आँखों में कुछ और भी था’’
’’ औरत की आंखें बिना कुछ बताए भी बहुत–कुछ तलाश लेती हैं।’’
समय वैसे ही कटा। इससे पहले कि दूसरी पाली के लोग काम पर आएं, वनमाला अपनी पुस्तकें और पर्स समेट हाथ हिलाती विदा हो गई थी।

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आप तो बस कुछ भी समझ लेते हैं।
बाइ गाड, मैंने कभी किसी से कुछ नहीं कहा है : वनमाला

बर्फ पिघली। फिर जैसे एक-दूसरे के मन की लिखावट पढ़कर कब प्रियहरि और वनमाला निकट आए, बैठे, बात करने लगे यह पता ही नहीं लगा। उन दुखों और मजबूरियों के बीच का यह सुख और मिलन भी सहज था। ऐसे क्षणों में वे दोनों यूं हो जाते जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो।
एक दिन चाहत और प्यार के क्षणों में प्रियहरि ने उससे कह दिया कि 'वनमाला, तुम्हारी उदासी और विचलन मुझे भयभीत करते है। ऐसा लगता है कि टूटकर घबराहट में तुम हमारे बीच के संबंधों में मेरे प्रति अपनी नाराजगी की चर्चा अपनी महिला संगिनियों से कर जाती हो।' प्रियहरि ने जानना चाहा था कि क्या उसका संदेह सही है ? वनमाला प्रियहरि की आंखों से झांकती उदासी और वाणी में छिपे दर्द को पढ़ रही थी जब वह उससे कह रहा था कि 'वनमाला, मैं चाहता तो अन्यों से भी पूछ सकता था लेकिन मेरी नैतिकता ने कभी मुझे यह इजाजत नहीं दी कि मैं तुमसे पूछने के सवाल औरों से पूछूं।'
परम एकांत के निर्विघ्न क्षणों में उस दिन वनमाला के जवाब में प्रियहरि को तसल्ली दी। वनमाला ने कहा था कि आपस की बातें उसने कभी किसी से नहीं की वह कह रही थी - ''आप बेकार दुखी होते है, संदेह करते है। विश्वास रखिए कि आपस की बातें मैं कभी किसी दूसरे से नहीं किया करती।''
दिन गुजरते गए। एक दिन प्रियहरि जब कालेज गया तो देखा कि प्रशासन के खिलाफ स्टॉफ के द्वारा यूनियन के जरिये की गई शिकायतों की जांच के लिए उनके बड़े अफसर आए हुए है। यूनियन का सचिव वह ही था इसलिए प्रशासन के विरूद्ध केन्द्र में वह ही था। उसे पता लगा कि सारी महिलाओं ने यह लिखकर दे दिया था कि उन्हें शिकायत तो थी, लेकिन अंदरूनी थी। सरकार तक भेजने की बात उन्होंने नहीं कही थी। सत्यजित, नलिनजी और कानन के अलावा प्रियहरि के पक्ष में कोई न बोला। खूबसूरत अनुराधा स्पष्टतः बॉस के पक्ष की थी। इसलिए उसे छोड़कर बाकी महिलाओं को कालेज न आने की ताईद कर दी गई थी। प्रियहरि के मन को यह धक्का लगा कि जिन पर वह भरोसा करता था; जिन्होंने शिकायत की, कागजों पर दस्तखत किये वे ही डर कर बॉस के कहने पर आज गायब हो गईं। खासतौर पर उसकी प्रिया वनमाला भी जिसके लिए वह जाहिर तौर पर प्रशासन से झगड़ा कर बैठता था, उस दिन गायब थी। वनमाला को परीक्षा के काम की कुछ पैसे नहीं मिले थे। केवल उसका भुगतान किया दिखाकर हिसाब भेज दिया गया था। एक दिन कभी वनमाला के साथ और उसके सामने ही प्रियहरि ने प्रशासन के एजेन्ट को भोले मोशाय को इस पर फटकार भी लगाई जिससे वनमाला पर उसने अपनी नाखुशी जाहिर करते हुए उसे धमकी भी दी थी। सरला नीलांजना के साथ भी यही हुआ था ऐसी शिकायतें बहुतों की थीं। इन्हीं सब की प्रोत्साहन से प्रियहरि लीडर बना उस बॉस झगड़ पड़ा था जो खुद उसे अपना पुराना परिचित और मित्र जान पास लाना चाहता था । और तो जैसे तैसे पर जिसे वह भरोसे का साथी समझता था उस वनमाला के उस दिन न आने की शिकायत प्रियहरि के मन में रही आई थी वह प्रतीक्षा में था कि उससे भेंट हो और वह पूछे कि प्यारी वनमाला, क्या यही मेरे विश्वास और प्रेम का प्रतिफल है जो तुम मुझे दे रही हो ? प्रियहरि उसे देखने की इच्छा करता तरसता रहा। न वह दिखाई देती थी, न कोई उसकी खबर देने वाला था। वह उस टेबिल की ओर देखता जिस पर उसका काला पर्स कालेज में उसकी उपस्थिति बताता था और जो अब लगातार गायब पाया जा रहा था।
तीसरे दिन अचानक दफ्तर में प्रियहरि को चन्द्रनाथ नजर आए। उन्होंने यह कहकर उसे
चौंकाया कि मैडम का तो ट्रांसफर हो गया है और अब मैं यहां आ गया हूं। वातावरण की रहस्यमय चुप्पी और हवा में घुली असाधारण उदासी का कारण अब प्रियहरि की समझ में आया। एक दिन की उसकी छुट्‌टी और अनुपस्थिति के दौरान ही बहुत कुछ घट गया था। प्रियहरि की आंखों में वह दृश्य और उस पल का विषाद तैर गया जब पिछले दिनों उस पर मर-मिटते उसने वनमाला से कहा था कि 'ऐसे दूर रहने से तो अच्छा होता कि वनमाला चुटकी भर विष उसे अपने हाथों ही दे दे ताकि कम से कम ऐसी प्यारी मौत से तृप्त वह अपनी आंखों में वनमाला को बसाए प्राण त्याग दे।'
तब वनमाला ने जवाब दिया था - ''छिः रे, इससे तो अच्छा यह होता कि मैं अपने पुराने कालेज में ही रही आती। कम से कम मजबूरी के ऐसे दिन तो न आते।''
हां, उसका तबादला तकरीबन चालीस मील दूर मालवा के उसी कालेज में हो गया था जहां वह पहले रही आई थी। बाद में किसी दिन सुचरिता ने प्रसंग आने पर बड़े अनमनेपन से प्रियहरि को सूचित किया था - ''वनमाला आई तो थी। आपको यहां-वहां ढूंढती बेचैन नजर आ रही थी। आप ही नहीं आए थे।'' सुचरिता का इशारा उस दिन की तरफ था जब वनमाला यहां से मुक्त कर चुपचाप बिदा कर दी गई थी।

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