एक आदिम भय का कुबूलनामा - PART - II

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'' यू नाटी हिन्दी, ये ओन्नी क्या है ? मैं अनुषा हूं। ज्यादा से ज्यादा ओनुषा। ''
'' सारी डियर लेडी। तुम ''ओनुषा'' होकर तो सब की रही आती हो। मेरा अपना तो उससे अलग कुछ और होना चाहिये न।''
'' अपना ही चाहिये तो नाम क्यों नहीं बदल देते ?''
'' जैसे ?''
'' जैसे ओनुप्रिया। और क्या ? ''
काफी हाउस में बैठे हम ठंडी काफी की चुस्कियां ले रहे थे। वही हमारी पसंद थी।
''मैं कालेज से ही इधर निकल आई थी। तुम्हें कुछ खबर है ?''
मैं किसी काम की वजह से दो दिनों की छुट्‌टी पर रहा आया था। अनुषा ने बताया कि मेरा वहां चयन हो गया है, जहां अपने आवेदन पर पिछले महीने साक्षात्कार देकर मैं लौटा था।
'' टेल मी, विल यू बी जाइनिंग देयर ? यू आर एक्सपेक्टेड देयर बाइ दि एन्ड आफ दिस वीक आनली ''
'' वाइ नाट ? आफकोर्स ''- न जाने अचानक मेरे मुह से जवाब निकल गया था।
'' आई नेवर कुड असेस दैट यू कुड आलसो बी होम-सिक सो मच । हमारा बंगाल कितना अच्छा है ? डिडन्ट यू लाइक अस ''
'' नो, इट्‌स नाट लाइक दैट ''
'' ओउ, नाउ डोन्ट टैल मी दैट ''
प्रियहरि से कुछ कहते न बना था। तब से लगातार उसके मन में यह अहसास बना रहा आया कि कहने में उसने गलती कर दी थी। बहुत देर तक अनुद्गाा और वह आमने-सामने बैठे रहे थे। मन में बातें ही बातें कहने को भरी थीं पर दोनों के होठ जैसे सिल गए थे। एक उदास छाया थी जो दोनों पर मंडरा रही थी। कितनी देर वैसा रहा वह बताना कठिन था। वह अंतिम दृश्य था जब दोनों के मौन एक-दूसरे की आंखों में टकराए थे और बाहर निकल एक ठंडी '' ओ क़े दैन '' के साथ अलग-अलग दिशाओं में मुड चले थे।

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नौ बजकर चालीस मिनट : हरे पल्लू की पीली साड़ी

तुम आयीं मानो
गुलाबी धूप
निकल आयी हो
-एक बिम्ब/शमशेर/कहीं बहुत दूर से सुन रहा हूं/

वनमाला पर निगाह पड़ते ही न जाने किस अज्ञात प्रेरणा से उसे निहारते प्रियहरि के मुंह से वे शब्द फूट पड़े थे - ''वाउ ! यू आर लुकिंग वंडरफुल टुडे। वेरी ब्यूटीफुल। इस पीली साड़ी में आज तुम बहुत खूबसूरत लग रही हो। हरीतिमा में लिपटी अमलतास की स्वर्णिम पीताभ वासंती छटा !''
सामने दीवार पर टंगी घड़ी पर कांटे दर्शा रहे थे - नौ बजकर चालीस मिनट। प्रियहरि उस वक्त नहीं जानता था कि हरे पल्लू की पीली साड़ी में लिपटी वनमाला की छबि के साथ घड़ी के कांटे उसके दिल में वक्त को हमेशा के लिये यूं थामकर रख चले हैं कि रुका हुआ वह पल उसकी नियति हो चला है। ऐसी नियति जिसमें वनमाला और उसका सारा कुछ उलझकर रह जाने वाला है। यह वह वर्तमान था, जिसमें छिपा भविष्य उनकी अदाओं पर मुस्कुरा रहा था।
अचानक और अप्रत्याशित वैसी तारीफ से वनमाला की आंखों में चमक और अन्यथा गंभीर होठों पर स्मिति एक साथ फैल गई थी। प्रसन्न संकोच में डूबी उसने प्रियहरि की आंखों में झांकते यूं जवाब दिया था जैसे उसे उस पर विश्वास न हो रहा था, जो उसने अभी-अभी प्रियहरि से सुना था।
''अच्छा ! ऐसा है क्या ? क्या सचमुच मैं खूबसूरत लग रही हूं या आप मजाक कर रहे हैं'' - वनमाला बोली।
प्रियहरि ने जवाब दिया - ''हां सचमुच। बहुत, बहुत खूबसूरत। भरोसा न हो, तो पूछ लो आईने से।''
''आईना है कहां ? लाऊँ कहां से ? आप ही लाइए, ज़रा दिखाइए तो।''
''मेरा दिल जो है। झांक लो उसमें।''
वनमाला शरमाई भी और खुश भी हुई। उसके कपोलों पर लाली चमक उठी। औरत चाहे वह कोई और कैसी भी क्यों न हो, अपनी प्रशं सा पर फूली नहीं समाती।
- ''अच्छा ! अगर ऐसा है तब तो आज मुझे आप को चाय पिलानी पड़ेगी।'' वनवाला का मूड खिल गया था। वह मूड जो अज्ञात दबावों से उसी तरह अवगुंठित रहता था जैसा प्रियहरि में कहीं था। वह बहुत खुशनुमा दिन था।
उस दिन की खुशनुमाई धीरे-धीरे उन दोनों के दिलों में फैल चली थी। वनमाला की आहट की प्रतीक्षा करता प्रियहरि का दिल धड़कता था। आंखें उसके इंतजार में बिछी रहती थीं। बोला चाहे कुछ जाए लेकिन रोज सामना होते ही आंखें मिलतीं, खिलतीं और एक-दूसरे में छिपे उस मौन संदेश को पढ़ लेती जो लिखे दो दिलों द्वारा जाते लेकिन जिनकी इबारत एक सी होती थीं। यह अब आदत में शुमार हो चला था। इसी के साथ वह पोशीदगी और संकोच भी आदतन शामिल हो गये थे जो औरों के सामने उनके होठ सिले रखते थे। आंखें इस संकोच का फायदा उठाने लगी थीं। जितनी बार, जितनी देर रहना, आमना-सामना होता - चाहे बैठे या चलते-फिरते, वे अपना काम कर जाती थीं। मौन में छिपा यह व्यापार ऐसा संक्रामक था कि उसके लिए उन दोनों का कुछ कहना नहीं, बस होना ही काफी था। इस वक्त जब रात के चौथे पहर में वनमाला प्रियहरि की यादों में घुसी चली आ रही है, जरूर वह भी कहीं न कहीं वनमाला के सपनों में अवश्य टहलता पाया जायेगा भले ही दोनों मीलों दूर क्यों न हों।
वह कौन सी चीज रही होगी जो अलग-थलग, उदास और अज्ञात पीड़ाओं से ग्रस्त दिलों को जोड़े जा रही थी इसे ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता। लेकिन यह जो अपने आप हो रहा था उसके पीछे शायद प्रियहरि और वनमाला दोनों की वृत्तियों, परिस्थितियों और सोच की समानता रही होगी। प्रियहरि की तरह वनमाला भी बाहरी दिखावों की तरफ से लापरवाह और सादगी पसंद थीं। वह भी एक निचले मध्य वर्ग से थी जहां सीमित साधनों के बीच जिन्दगी पलती और बढ़ती है। वह भी प्रियहरि की तरह ही कस्बाई संस्कारों वाली लेकिन उन्नत मूल्यों और सोच की हामी थी। दोनों की भाषा और लिखावट औरों से ज्यादा नफीस और खूबसूरत थी। प्रियहरि की तरफ से खास बात यह थी कि वह वनमाला में वह बांगला रोमांस और आकर्षण आता था जो आरंभ से ही उसकी चाहत में थे। वनमाला की ओर से शायद यह कि गहन विचार,दर्शन, अध्ययन और कला-साहित्य-संस्कृति की गहरी अभिरूचि जो प्रियहरि में थी, उसे बांधती थी। प्रियहरि की दिली इच्छा रही कि वनमाला के अंदर जो छिपी प्रतिभाएं वह देखता था उन्हें उजागर होता भी वह देखे। वह कल्पना में देखता कि वनमाला भी उन ऊँचाइयों पर पहुंच रही है और जीवनसाथी बनकर प्रियहरि और वनमाला साथ-साथ घर में इन पर बहसें कर रहे है, लिख रहे हैं, एक-दूसरे को राहत पहुंचाने चाय की प्याली थमा रहे हैं और स्थापित व्यक्तित्वों की तरह एक-दूसरे के साथ जिन्दगी बसर कर रहे हैं। इतने करीब कि जहां दूरियों का अहसास खो जाता है। तब भी दूरियां तो थी हीं। दूरियों से प्रियहरि का मन मसोसता था।
ऐसी ही कसमसाहट वनमाला में भी प्रियहरि देखता था। तब फर्क यह कि बहुत, बहुत करीब आते-आते वनमाला मानो हमेशा मध्यवर्गीय नैतिकता का ढाल अचानक सचेत हो तान लेती थी, जो खुलने से उसे रोक लेता रहा था । उस दिन दोनों ने अचानक सौंप दिये काम को साथ बैठकर करना शुरू किया था। उन कमरों के चक्कर साथ-साथ लगाये थे, जिन्हें खूबसूरत बनाया जाना था। उन दीवारों का मुआयना किया था, जिनमें वे खूबसूरत कला-कृतियों की प्रतिकृतियां लगाने की योजना पर काम कर रहे थे। साथ-साथ बढ़ते दोनों उस आखिरी कमरे तक पहुंचे जो अभी खाली था। अपने से सटी खड़ी वनमाला से, जो दरवाजे पर ही अटक गई थी, प्रियहरि ने कहा – “ए..इ वनमाला, अब अंदर भी आओ न !''
दोनों की नज़रें मिलीं। वनमाला की नज़र ने प्रियहरि से कहा - ''शरारत ! मुझे मालूम है। गलियारे और कमरे में भटकते दिल के धड़कनों की भाषा तुम्हारी तरह मैं भी सुन रही थी। मेरा दिल अब भी धड़क रहा है। कहीं तुमने मुझे बाँहों में बांध लिपटाया और चूम लिया तो ?'' जुबान की भाषा उसकी अलग थी। बोली - ''आज रहने दो, चलो अब चलते है। फिर कभी देखेंगे।''
उस दिन प्रियहरि और वनमाला ने पहली बार महसूस किया कि तब मौजूद चन्द लोगों की नजरें अब उन्हें पढ़ने की कोशिश में लग चुकी हैं। उन्हें क्या मालूम था कि जिन नज़रों से वे खुद को छिपाना चाहते थे वे ही बाद में ऐसा कहर ढाने वाली हैं कि दोनों की जिन्दगियाँ तबाह हो जाएं।
वनमाला से प्रियहरि और प्रियहरि से वनमाला का लगाव मुकम्मल शक्ल लेता जा रहा था। सुबह तब तक और लोगों का आना, दफ्तर की चहल-पहल जब तक शुरू न होती तब तक अपने कामकाज के बीच से ही चुराए समय में दोनों आपस में बातें कर लेते थे। बातें सीधे मोहब्बत की हों, यह न था। बल्कि यह कि छोटी-छोटी मुलाकातों, बैठकों और अलफाजों के दौरान साथ के लम्हे ही मोहब्बत का इजहार कर देते थे। ज्यादातर वे तो कम बोलते, उनकी निगाहें ज्यादा बात करती थीं। वनमाला के मिजाज़ का यूं कोई भरोसा न रहता। जब-तब वह उदास, थकी और अवसाद से ग्रसित नजर आती थी। ऐसे में चुप्पी उसका औजार हुआ करता थी। वह गुमसुम रही आयेगी। न बात करेगी, न कोई बात सुनेगी। जैसा कि धीरे-धीरे प्रियहरि ने जाना पति के ताने और घर की जिम्मेदारियां उसे तनावग्रस्त और उदास कर जाते थे।
इस तरह के माहौल में उसका मायूस गुस्सा कभी-कभी प्रियहरि पर टूटता था - ''आपको क्या है ? काम-धाम है नहीं इसलिए बस मोहब्बत सूझती है। यहां तो चार-चार कक्षाएं हैं और फिर यहां से भागकर घर के बोझ संभालो।''
वनमाला के मूड की चाबी उसके घर में थी। जब खुश होती तो एक भद्र और बुद्धिमती साथी की तरह पेश आती और पेश होती थी। बहुत ज्यादा फुर्सत से साथ बैठने का मौका अब तक नहीं मिल पाता था।


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क्या ऐसा नहीं हो सकता कि शादियां मियादी समझौते की शक्ल में हों?


समय बदला। एक दिन ऐसा हुआ कि कागज का एक सरकारी फरमान वनमाला और प्रियहरि - दोनों को मिला। लिखा था कि सुबह की परीक्षाओं में प्रियहरि और वनमाला दोनों को साथ-साथ जिम्मेदारी निभानी थी। अपना पुर्जा लेकर उस दिन जब प्रियहरि स्टॉफ रूम पहुंचा तो देखा कि वनमाला वहां मौजूद है। दोपहर बाद तक उस दिन लोग वहां व्यस्त थे। इस समय अब वे चलने की तैयारी में थे। प्रियहरि और वनमाला की निगाहें मिली।
प्रियहरि ने पूछा - ''कागज मिला ?'' उसने कहा - ''हां।''
उस दिन निगाहों की टकराहट में एक-दूसरे के लिए चमक भरा संदेश था - ''कितने दिनों से तमन्ना थी कि ऐसा मौका मिले जब हम आधिकारिक रूप में साथ हों। फुर्सत के लम्हे हों ,बीच में कोई न हो और हम खूब मिलें। ईश्वर ने सुन ली।''
वे दिन ऐसे थे कि प्रियहरि का सारा अस्तित्व सुबह के वनमाला के साथ के चार-पांच घंटों में समा गया था। बाद का सारा समय उस खो जाने की बेला के लौटने के इंजतार में बीतता। साढ़े दस के करीब वनमाला के मिस्टर प्रायः उसे लेने कैम्पस में अवतरित हो जाते। जुदाई में दिल कचोटता था लेकिन मजबूरी थी, जो अक्सर आंखों की टकराहट में बयां होती थीं। एक दफा ऐसी ही बेबसी में प्रियहरि ने वनमाला को छेड़ा था -
''लीजिए, आपके वे आ पहुंचे है आपको लेने।''
मुस्कुराती हुई वनमाला ने प्रियहरि की आंखों में झांका और बोली - ''आह, आप तो यूं कह रहे हैं जैसे मेरा जाना आपको बड़ा अच्छा लग रहा हो।''
प्रियहरि ने कहा - ''मैं तो चाहता हूं कि तुम्हें हमेशा -हमेशा के लिए रोक लूं। काश, ये पल ठहर जाएं।''
बेबसी से काल का वह नियत टुकड़ा उन्हें रोज जुदा कर देता। बाद का सारा समय प्रियहरि का मन वनमाला की याद में तड़पता था और रातें बेचैन गुजरने लगी थी। औरत और मर्द के बीच के रात का रोमांचक खेल बेमज़ा लगता था। उसे दुरुस्त करते वनमाला की तस्वीर प्रियहरि अपनी निगाहों में बसाए रखा करता था। यूं रोज अपने आप कविताएं उसके अंदर बनने लगी थीं। घर वनमाला की भी मजबूरी था और प्रियहरि की भी। इसी प्रसंग की एक कविता प्रियहरि से वनमाला ने किसी एक दिन सुनी थी –

विवाह के मंत्र
शोर करते हैं
शुरू जो हुआ
टेप बंद ही नहीं होता
चलता रहा आया दिन-महीने-साल
साल-दर-साल

रात के अँधेरे में
बिस्तर के बीच दुहराए जा रहे
मंत्र के शोर में घुसता है एक चेहरा

घुसता ही चला जाता है
दिल,दिमाग, शिराओं में
और थमता है शोर

देता है सुकून
चेहरे पर आरोपित चेहरा
पल भर

कविता की लय लहराती वनमाला को अचानक जैसे होश आया हो, उसकी पलकें प्रियहरि की आँखों में डूबती भी हया में झुक चली थीं। उसका चेहरा अनजाने उपज आयी लाली से सुर्ख हो चला था। कुछ यूं जैसे उसकी चोरी पकड़ ली गई हो। धीएमे स्वर में उसने इतना कहा -
''छिः ! आप ऐसा क्यों लिखते है। मुझे लाज आती है। आप तो कुछ भी सोचते रहते हैं।''
प्रियहरि जानता था कि दिली तमन्नाएं फन्तासी में भिड़ती हैं और तसल्ली पाती हैं, भले ही वे झूठी हो। ऐसा वनमाला के साथ भी है लेकिन मध्यवर्गीय नैतिकता का जनाना संकोच 'हां' को भी 'ना' में ही कहने मजबूर हुआ करता है।

ऐसे ही एक दिन गुनगुनी धूप में सुबह प्रियहरि बाहर खड़ा था। इशारों से उसने वनमाला को भी अपने पास बुला लिया। बीच में कोई नहीं था और इतमीनान का मूड था। बातों के दरम्यां प्रियहरि ने पूछा - ''वनमाला, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि शादियां मियादी समझौते की शक्ल में हों। दो-साल, चार, या पांच साल ? फिर हम आजाद हों कि दूसरा साथी चुन सके और साथ रहें।''
वनमाला लजाई। बोली - ''ऐसा हो सकता है क्या ? काश, ऐसा हो सकता।'' अचानक जैसे उसे कुछ याद आया हो आंखों में मुस्कुराती वह बोल पड़ी - ''मैं समझ गई। आप बड़े शरारती है।''

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प्रेम केवल शरीर की कामना का आरंभ ही है


धारावाहिकों में दिखाए जा रहे एक्स्ट्‌रा मैरिटल अफेयर आज के समाज का सच हैं जो हमें कई बार अपने आसपास ही देखते को मिल जाता है । आज ऐसे लोगों की कमी नहीं है जिनकी पत्नी के साथ आफिस मे भी एक गर्लफ्रेन्ड होती है। -कसौटी जिन्दगी की प्रेरणा उर्फ़ श्वेता ने कहा/नई दुनिया 2/11/07 पेज 07


सुबह-सुबह वनमाला को आता देख अपने साथ काम करता देख, उसकी बुद्धिमत्ता, सूझ और आत्मीयता का आभास पाकर प्रियहरि का चित्त प्रायः कल्पना में उसकी अपनी बीबी को वनमाला के सामने ला खड़ा करता। उसकी बीबी खुद तो कभी आठ बजे से पहले बिस्तर छोड़ती न थी। खुद वह तो वैसी थी ही लेकिन हद यह थी कि बच्चों तक को सिखाने, उन्हें जगाने पर वह प्रियहरि से झगड़ा करती कि फालतू सुबह-सुबह वह शोर क्यों मचा रहा है। वनमाला की साफ, मीठी और लहरदार उस आवाज का प्रियहरि मुरीद था जो उसकी समझ में किसी गायिका में हुआ करती है। प्रियहरि उससे कहा करता - ''तुमसे अपनी प्यारी, मीठी आवाज में मैं किसी रोज बंग-संगीत सुनने की गहरी चाह है। कभी सुनाओ प्लीज़।''
प्रशंसा और चाहत के ऐसे पल कभी वनमाला को स्पष्टतः खुशी से भर देते थे, वह चहक उठती थी और कभी ऐसा भी होता था कि वनमाला का मुख अन्यमनस्कता से पथरा सा जाता था और आंखें ऐसी हो जाती मानो स्तब्ध होकर शून्य में देख रही हों। उसे शायद विश्वास न होता था कि प्रियहरि की वे बातें उसी के लिए हुआ करती थीं। वनमाला और प्रियहरि यूं अपने पारिस्थितिक अभावों को एक-दूसरे में पूरा होता अनुभव करते थे। जो बात वनमाला के पति में होनी चाहिए थीं, जो बातें उसकी पति को करनी चाहिए थीं वे प्रियहरि कर रहा था और जो अपेक्षाएं प्रियहरि अपनी पत्नी में रखता था, उन्हें वह वनमाला में पूरी होता देख रहा था। एक-दूसरे के लिए वनमाला और प्रियहरि का साथ प्रतिपूरक बनता जा रहा था।
हालांकि ऐसी औरतें भी होती हैं जो चाहत के पहले ही स्पर्श से समानावेग से पिघल जाती है लेकिन प्रियहरि ने पाया था कि वनमाला वैसी न थी। वह उन अधिकांश मध्यवर्गीय पारम्परिक गृहस्थिनों में थी जिनमें नैतिकता का बोझ कूट-कूटकर भरा होता है। जंघाओं के बीच का वह बिन्दु जहां अंततः प्रेम पर्यवसित होना चाहता है, उनके लिए नैतिकता का चरम केन्द्र और कसौटी हुआ करता है। औरते जानती है पुरुष की निगाह में वही स्त्री होने का अर्थ है। इसलिए समाज और परम्परा ने इनमें गहरा सुरक्षा बोध और चालाकी पैदा कर दी है कि वे शरीर के प्रति बेहद संचेत रहती हैं। उन्हें मालूम होता है कि शरीर उन्हें वहीं ले जायेगा, जहां जाने से उन्हें बचना है। वनमाला को यह समझाना मुश्किल था कि प्रेम केवल शरीर की कामना का आरंभ ही है। शरीर में एकाग्र होकर विसर्जन से ही प्रेम यानी हृदय और शरीर द्विधारहित होकर उस स्वर्ग तक पहुंचते हैं जो समाज स्वीकृत बंधन में बांध देने से शारीरिक क्रीड़ाभ्यास का बेमजा काम मात्र होकर रह जाता है।
वनमाला ने प्रियहरि से कहा था -''यह तो मुझे घर में ही भरपूर मिल जाता है, उसकी कोई कमी नहीं है। इसकी मुझे जरूरत नहीं है।''
वनमाला का अक्सर भभराया चेहरा, चेहरे और आंखों की थकावट, उड़ी हुई रंगत इसकी पुष्टि करते थे कि वह मशीन की तरह रात में चलाई गई है, लेकिन फिर ! फिर वह क्या था जिसे वह पाना चाहती थी ? क्या बिना इसके प्रियहरि खुद जीवित रह सकता है ? वनमाला ने कहा था - ''सुहाग की रात को मैंने और मेरे मिस्टर ने एक-दूसरे से वादा किया था कि हम आपस में कुछ भी छिपाएंगे नहीं। जो भी है, वो एक-दूसरे को बता देंगे और आपस में बेवफाई नहीं करेंगे।''
प्रियहरि का खयाल था कि एक ओर चित्त में बसा यह गहरा बोझ और दूसरी ओर अभाव को भरने की चाहत ही वनमाला का द्वंद्व था जो उसे मूडी और स्किजोफ्रेनिक बना रहा था।
वनमाला के निर्बाध साहचर्य और प्यार की चाहत में प्रियहरि में दीवानगी पैदा कर दी थी। एक पल भी - दिन या रात कभी, उसकी याद के बगैर नहीं गुजरता था। एक तरफ प्रियहरि की चाहत थी जो फैल कर वनमाला में समा जाना चाहती थी, दूसरी तरफ सतर्क वनमाला का भय था जो उसे ऐन मौके पर सतर्क कर सिकोड़ देता था। एक ओर उन्नत दंड और दूसरी ओर खुलता दरवाजा अचानक बंद। बड़ी मुसीबत थी। प्रियहरि पर जुनून सवार था। उसने निर्णय लिया कि अपने दिल की बात उसे वनमाला से कहनी ही है फिर परिणाम चाहे जो हो और ऐसा उसने किया भी। वनमाला के जन्मदिन की बधाई देते प्रियहरि ने उसकी आंखों में झांकते सीधे कह दिया था - ''वनमाला आई लव यू, आई लव यू। आई कैन नाट लिव विदाउट यू।''
वनमाला आनंदित थी। थोड़े से सूखे फल,चाकलेट का एक पैक, कुछ टाफियां और फाउंटेन पेन का एक सेट, वगैरह प्रियहरि ने उसे भेंट की थी। उस वक्त प्रियहरि को यह नहीं मालूम था कि उपहार के मानी क्या होते हैं, उपहार में औरत को क्या दिया जाना चाहिये, उपहार के लिये औरत प्रेमिका की क्या अपेक्षाएं होती हैं, और उपहार को आंकने में औरत के लिये उसकी मौद्रिक कीमत का क्या महत्व होता है वगैरह ? यह बाद में कभी धीरे-धीरे उसे समझ में आया कि उपहार की नहीं, बल्कि उसके पीछे छिपे मौद्रिक मूल्य की अहमियत बाज औरतों के लिये ज्यादा महत्व रखती है। खैर, उस वक्त वनमाला का मन फूला न समा रहा था उसने कहा - ''आह, मैं आज कितनी खुश हूं। मेरे अपने घर में तो मेरा जन्मदिन किसी को याद तक नहीं रहता। आपने कैसे याद किया ?'' फिर अचानक उसके आंखों में शरारत की एक चमक उभरी। वह बोली - ''अच्छा, अगर मैं यह बात अपने मिस्टर को बताऊँ तो ?''
प्रियहरि ने बिन्दास अंदाज में जवाब दिया - ''अब तुमसे कोई भेद नहीं, जिसे बताना हो, बता दो।''
वनमाला हंस रही थी। कहा - ''घबराइए मत, मैं ऐसा करूंगी नहीं।'' वह कहती गई - ''आज का दिन कितना अच्छा है। आज मैं बहुत खुश हूं।''
वनमाला का खुशी का यह इज़हार मानो प्रियहरि के साहसपूर्वक रख दिये गये प्रेम के प्रस्ताव की स्वीकृति थी। वनमाला और प्रियहरि के बीच घर के अनुभव भी मलाल के साथ चर्चा में आया करते थे। वनमाला कहा करती - ''प्रियहरि, आप मेरी इतनी तारीफ करते है लेकिन मेरे मिस्टर तो हमेशा मुझमें, मेरे हर काम में नुक्स निकालते रहते हैं।


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औरत का मन पढ़ना शायद दुनिया का सबसे मुश्किल काम है


" Despite my thirty years of research into the feminine soul, I have not been able to answer.. the great question that has never been answered and which I have not yet been able to answer, ...is 'What does a woman want?" (Sigmund Freud)


औरत का मन पढ़ना शायद दुनिया का सबसे मुश्किल काम है। औरत का संकोच और आदमी का भय होनी को भी अनहोनी बना देता है।

रक्त बुद्धि से अधिक बली है और अधिक ज्ञानी भी
क्यों कि बुद्धि सोचती और शोणित अनुभव करता है। - दिनकर रामधारीसिंह /उर्वशी


परीक्षाओं में एक साथ काम करने के दौर में प्रियहरि और वनमाला ने एक-दूसरे को पहचाना। दोनों ही वैज्ञानिक कार्यशैली और सुसंगत बौद्धिकता के हामी थे। दोनों एक-दूसरे की युक्तियों पर पूर्वाग्रह-रहित ढंग से राय रखते थे। दोनों ही शेष सारे स्टॉफ से अपने को प्रतिभा और कार्यशैली में जुदा और बेहतर पाते थे। दोनों का यह अनुभव था कि किसी और कमतर के साथ काम करने पर सामने वाला अपनी कमतरी को छिपाने उन्हें काट-फेकना पसंद करता था। वनमाला और प्रियहरि के बीच मानो यह संयोग एक किस्म से अभावों की दो जिन्दगियों, प्रतिभाओं, संवेदनाओं की एक पक्की और खुश जोड़ी से बना संयोग था। दोनों एक-दूसरे के बेहद प्रशंसक थे और दोनों ही इस राय पर एक थे कि उनकी जोड़ी का कोई विकल्प हो ही नहीं सकता। इसे बनाए रखाने की चाहत दोनों में हमेशा बनी रही फिर चाहे परिस्थितियां कितनी भी बुरी क्यों न हो गई हों। दोनों के बीच इस मुआमले में यह आपस का वादा था कि किसी तीसरे को वे अपने बीच नहीं आने देंगे। परिस्थियां चाहे जितनी बदल गईं; दूरियां चाहे इस कदर बढ़ गईं कि एक-दूसरे को एक झलक देख पाना भी मुमकिन न हो; बात करना तक मुमकिन न हो; लेकिन इसे केवल वनमाला और प्रियहरि दोनों ही समझ सकते हैं (जबकि यह सच सारे दीगर भी महसूस कर सकते हैं) कि रूहानी चाहत और भरोसे का वह रिश्ता आज भी कायम है। वनमाला से जुड़ी और उसके साथ की चाहत ने प्रियहरि को उसका दीवाना बना दिया था। वनमाला इसे अच्छी तरह जानती और महसूस करती थी भले ही मध्यवर्गीय महिला का प्रशिक्षित नैतिक संयम और बाल-बच्चों की जिम्मेदारी चाहे जितनी भी दूर तक बचाव के उसके ढाल बन जाते हों। वनमाला के नाम प्रियहरि की इबारतें, रोज लिखी जाती कविताएं और नज़्में - कागजों में कैद सब का सब -, आलमारी के एक कोने में सलीके से रखा रहता। परीक्षा की व्यवस्तताओं में दोनों के बीच की बेताब मोहब्बत बाधा बन रही है यह वनमाला प्रियहरि से ज्यादा समझती थी। इसीलिए प्रियहरि के सामने और काम के बीच वह उन सबसे से गुजरना अक्सर टालती थी। यह बात और थी कि प्रियहरि ने वनमाला को जाहिरा तौर पर बता दिया था कि उन कागजों में क्या है, वे कहां रखे है और क्यों रखे है। कागजों में लिखा लगभग सारा यूं भी रू-ब-रू बातचीत और आंखों से दोनों के बीच उजागर था। बाद में वनमाला ने उन कागजों पर कितनी, कब और कैसे नजर डाली इसकी परवाह प्रियहरि न करता था। परीक्षा के दौरान कायम हुई इस मोहब्बत का दौर परीक्षाओं के गुजरने के बाद भी लंबे चलता रहा।
उस एक दिन सुबह-सुबह प्रियहरि और वनमाला दोनों ही वहां अकेले थे। खामोशी में जीने वाली वनमाला उस दिन भी खामोश थी। आलमारी बंद कर कमल के लोच के साथ गर्दन पर टिके चाँद की नजरें प्रियहरि की नजरों से टकराईं।
''इक खलिश दिल में रही आई जो ता-उम्र रही।
देख लूं आंख भर तुमको ये तमन्ना ही रही।''
-वनमाला की आंखों में छिपे दर्द और पशोपेश में झांकते हुए प्रियहरि ने आगे कहा - ''वनमाला, तुम्हारा आदमी बहुत भाग्यशाली है जो उसे तुम्हारा साथ मिला है। तुम बेशकीमती हो। काश, उसकी जगह मैं तुम्हारे साथ होता।''
लज्जा से लाल हुए फूल गये गालों और पलकों के कोरों से निहारती वनमाला ने जवाब दिया - ''मैं बदकिस्मत हूं। आप तो मुझसे इतना प्यार करते है, मेरे लिए यह कहते है लेकिन आपको मालूम है कि मेरे मिस्टर मेरे लिए क्या कहते हैं ? वह तो मुझे काली-कलूटी और बेकार की औरत कहते हमेशा कोसते और बुराइयां ही ढूंढते रहते है। कहते है कि मुझे एक से एक संबंध मिल रहे थे, सुन्दर लड़कियां मिल जातीं, लेकिन न जाने कहां से तुम आ गईं।''
फिर किसी रोज प्रियहरि और वनमाला साथ बैठे ऐसे ही माहौल में मशगूल थे कि अचानक प्रियहरि वनमाला से पूछ बैठा -''ए...इ वनमाला, मुझे एक ही तरीका दिखता है तुम्हारे पास हमेशा बना रहने का। बताओ वह कौन सी युक्ति है जिससे मैं तुम्हारे घर निर्बाध जा सकूं। कि मैं तुम्हारे मिस्टर का सहज मित्र बन सकूं ताकि तुम्हें देखना, तुमसे मिलना दुष्कर न हो।''